आत्मज्ञानसे ही शान्ति

loneliness man sea

द्वापरान्तमें उज्जैनमें शिखिध्वज नामके नरेश थे। उनकी पत्नी चूडाला सौराष्ट्र नरेशकी कन्या थीं। रानी चूडाला बड़ी विदुषी थीं। युवावस्था दिनोंदिन क्षीण हो रही है और वार्धक्य समीप आता जा रहा है, यह उन्होंने बहुत पहिले अनुभव कर लिया था। राज सदनमें आनेवाले महापुरुषोंसे आत्मतत्त्वकी व्याख्यासुनकर वे उसका मनन करने लगीं और मननसे निश्चित तत्त्वमें चित्तको उन्होंने स्थिर किया। इस प्रकार निदिध्यासनकी पूर्णता होनेपर उन्हें तत्त्व-बोध हो गया। आत्मज्ञानसम्पन्ना रानीके मुख और शरीरपर दिव्य कान्ति आ गयी। उनका सौन्दर्य अद्भुत हो गया। राजा शिखिध्वजने यह देखकर पूछा-‘रानी! तुम्हें यहविलक्षण शान्ति और अलौकिक सौन्दर्य कैसे प्राप्त हुआ? तुमने कोई औषध सेवन की है? कोई मन्त्र प्रयोग किया है? अथवा और कोई साधन प्राप्त किया है? तुम्हारा शरीर तो ऐसा हो रहा है जैसे पुनः युवावस्था प्राप्त कर रहा हो।’

चूडालाने उत्तर दिया –’मैंने न औषध सेवन की है, न मन्त्रानुष्ठान किया है और न कोई अन्य साधन ही प्राप्त किया है। मैंने समस्त कामनाओंका त्याग कर दिया है। देहात्मभावको त्यागकर में अपरिच्छिन्न, अव्यक्तपरमतत्त्वमें स्थित हैं, इसीसे कान्तिमती हूँ।’ भुक्त भोगोंके समान ही मैं अभुक्त भोगोंसे भी संतुष्ट हूँ। न मैं क्रोध करती हूँ न हर्षित होती हैं, न असंतुष्ट होती हूँ। भूषण, सम्मान तथा अन्य भोगोंकी प्राप्तिसे न मुझे हर्ष होता न उनकी अप्राप्तिसे खेद में सुख नहीं चाहती, अर्थ नहीं चाहती, अनर्थका परिहार नहीं चाहती। प्रारब्धसे प्राप्त स्थितिमें सदा संतुष्ट रहती हूँ। राग परहित होकर मैं समझ चुकी हूँ कि निखिल विश्वमें व्याप्त चराचरको नियामिका शक्ति मेरा स्वरूप है, इसीसे मैं कान्तिमती हूँ।’

राजा शिखिध्वज रानीकी बात समझ नहीं सके। वे बोले तुम अभी प्रौढ़ नहीं हुई हो, तुम्हारी बुद्धि अपरिपक्व है. कोई बात ठीक कहना भी तुम्हें नहीं आता इसीलिये ऐसी असङ्गत बातें कहती हो। अव्यक्तमें भला, कोई कैसे स्थित हो सकता है। अभुक्त भोगों में संतुष्ट होनेका अर्थ ही क्या। ऐसी अटपटी बातें छोड़ दो और भलीभाँति राजसुखका उपभोग करती हुई मुझे आनन्दित करो।’

रानीने समझ लिया कि ‘महाराजके आत्मबोधका अवसर अभी नहीं आया है, उनके चित्तका मल अभी दूर नहीं हुआ है, इससे परमतत्त्वकी बात अभी वे समझ नहीं पा रहे हैं। अनधिकारीको ज्ञानोपदेश करनेसे लाभ तो होता नहीं, अनर्थकी ही सम्भावना रहती है। धर्मात्मा नरेशमें जब वैराग्य उत्पन्न होगा और तपसे उनके चित्तका मल नष्ट हो जायगा, तभी वे अध्यात्मतत्त्वको हृदयंगम कर सकेंगे। ऐसा निश्चय करके पतिके परम कल्याणकी इच्छा रखनेवाली रानी समयकी प्रतीक्षा करती हुई राजभवनमें पतिके अनुकूल व्यवहार करती रहीं।

रानी बृद्धाला मनमें एक बार कुछ सिद्धियोंकोपानेकी इच्छा हुई। वे आत्मज्ञानसम्पन्ना थीं और योग साधनाओंका रहस्य भी जान चुकी थीं। उन्होंने आसन लगाकर प्राणोंको संगत किया और विधिपूर्वक धारणाका आश्रय लिया। इस प्रकार साधना करके उन्होंने आकाशमें स्वच्छन्द घूमने तथा इच्छानुसार रूप धारण करनेकी सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं।

धर्मात्मा राजा शिखिध्वजको धर्मपूर्वक प्रजापालन एवं राज्यसुख भोगते हुए बहुत समय बीत गया। उन्होंने देखा कि सांसारिक सुखोंके भोगसे वासनाएँ तुम होनेके स्थानपर बढ़ती ही जाती हैं, कोई प्रतिकूलता न होनेपर भी चित्तको शान्ति नहीं मिलती। यह सब देखकर वे राज्यभोगसे खिन्न हो गये। राजाने ब्राह्मणोंको बहुत धन दान कियाः कृच्छ्र- चान्द्रायण आदि व्रत किये और अनेक तीर्थोंमें धूमे भी; किंतु उन्हें शान्ति नहीं मिली।

अन्तमें राजाके चित्तमें वैराग्यका उदय हुआ। उन्होंने वनमें जाकर तपस्या करनेका निश्चय किया। अपना विचार उन्होंने रानी चूडालाको सूचित किया, तब रानीने उनका समर्थन नहीं किया। रानीने कहा ‘जिस कार्यका समय हो, वही करना उचित है। अभी आपकी अवस्था वानप्रस्थ स्वीकार करके वनमें जानेकी नहीं है। वनमें जाकर तप करनेसे ही शान्ति नहीं मिला करती। अभी आप घरमें ही रहें। वानप्रस्थका समय आनेपर हम दोनों साथ ही वनमें चलेंगे।’

महाराजको रानीकी बात जँची नहीं। उन्होंने रानीसे कहा – ‘भद्रे ! तुम प्रजाका पालन करो और मुझे तपस्याके पवित्र मार्गमें जाने दो। प्रजापालन जो मेरा कर्तव्य है, उसका भार में तुमपर छोड़ता हूँ।’

राजा समझते थे कि समझानेसे रानी चूडाला उन्हें वनमें अकेले नहीं जाने देंगी। अतएव आधी रातको जब रानी निद्रामग्र थीं, महाराज उठे और राजभवन से बाहर निकल गये। संयोगवश रानीकी निद्रा टूट गयी। उन्होंने देखा कि महाराज अपनी शय्यापर नहीं हैं तो समझ गयीं कि वे वनकी ओर ही गये होंगे। योगिनी रानी खिड़कीके मार्गसे निकलकर आकाशमें पहुँच गयीं। शीघ्र ही उन्होंने वनमें जाते अपने पतिको देख लिया। आकाशमार्ग से गुप्त रहकर वे महाराजके पीछे चलती रहीं वनमें एक सुन्दर स्थानपर सरिताके पास राजाने रुकनेका विचार किया और बैठ गये।पतिके तपः स्थानको देखनेके अनन्तर चूडाला सोचने लगों -‘मैं इस समय महाराजके पास जाऊँ, यह उचित नहीं है। उनकी तपस्यामें मुझे बाधा नहीं देनी चाहिये। प्रजापालनरूप पतिका कर्तव्य मुझे पूरा ही करना चाहिये। प्रारब्धवश यह जो मुझे पति वियोग प्राप्त हुआ है, उसे भोग लेना ही उचित है।’ ऐसा निश्चय करके रानी चूडाला नगरमें लौट आयीं। उन्होंने सम्पूर्ण राज्य संचालन अपने हाथमें ले लिया और प्रजाका भली प्रकार पालन करने लगीं।

कुछ काल बीत जानेपर चूडालाके मनमें पति दर्शनको इच्छा हुई। वे आकाशमार्ग से उस तपोवनमें पहुँच गयीं। महाराज शिखिध्वजका शरीर कठोर तप करनेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे अत्यन्त कृश, शान्त और उदास दीखते थे। योगिनी चूडालाने समझ लिया कि तपस्यासे राजाके चित्तका मल नष्ट हो गया है और विक्षेप भी समाप्तप्राय है, अब वे तत्वबोधके अधिकारी हो गये हैं। परंतु के बिना सुने हुए उपदेशमें विश्वास नहीं होता, इसलिये अपने स्त्री वेशसे रानीने महाराजके सम्मुख जाना उचित नहीं समझा। उन्होंने एक युवक ऋषिका स्वरूप अपनी संकल्प शक्तिसे धारण कर लिया और आकाशमार्गसे तपस्वी नरेशके सम्मुख उतर पड़ीं।

राजा शिखिध्वजने आकाशसे उतरते एक तेजस्वी ऋषिको देखा तो उठ खड़े हुए। उन्होंने ऋषिको प्रणाम किया और ऋऋषिने भी उन्हें प्रणाम किया। राजाने अर्घ्य आदि देकर आगत अतिथिका सत्कार किया। यह सब हो जानेपर सत्सङ्ग प्रारम्भ हुआ। ऋषिरूपधारिणी रानीने पूछा-‘आप कौन हैं ?’

राजाने अपना परिचय देकर कहा-‘संसाररूपी’ भयसे भीत होकर मैं इस वनमें रहता हूँ। जन्म-मरणके बन्धनसे मैं डर गया हूँ। कठोर तप करते हुए भी मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। मेरा प्रयत्न कुण्ठित हो गया है। मैं असहाय हूँ। आप मुझपर कृपा करें।’

चूडालने कहा-‘कमका आत्यन्तिक नाश ज्ञानके द्वारा ही होता है। ज्ञानी कर्म करते हुए भी अकर्ता है। उसके कर्म उसके लिये बन्धन नहीं बनते; क्योंकि उसमें आसक्ति कामना नहीं रहती। सभी देवता और श्रुतियाँ ज्ञानको ही मोक्षका साधन मानती हैं, फिर आपतपको मोक्षका हेतु मानकर क्यों बान्त हो रहे हैं? यह दण्ड है, यह कमण्डलु है, यह आसन है आदि सत्यके भ्रममें आप क्यों पड़े हैं। मैं कौन हूँ, यह जगत् कैसे उत्पन्न हुआ, इसको शान्ति कैसे होगी इस प्रकारका विचार आप क्यों नहीं करते ?”

शिवने अब उस ऋषिकुमारको ही तत्वोपदेश करनेका आग्रह किया- ‘मैं आपका शिष्य हूँ, आपका अनुगत है, अब आप कृपा करके मुझे ज्ञानका प्रकाश दें।’

चूडालने कहा- आपकी पत्नीने तो बहुत पहले आपको तत्त्व ज्ञानका उपदेश किया था। आपने उसके उपदेशको ग्रहण नहीं किया और न सर्व त्यागका ही आश्रय लिया।’

राजाने सर्वत्यागका ठीक आशय नहीं समझा। उन्होंने उस वनके त्यागका संकल्प किया। परंतु जब ऋषिकुमारने वनत्यागको भी सर्वत्याग नहीं माना, तब राजाने अपने marat ममता भी छोड़ दी। उन्होंने कुटियाको सब वस्तुएँ एकत्र करके उनमें अग्नि लग दो। राजामें विचार जाग्रत् हो गया था, अब वे स्वयं सोचने लगे थे कि सर्व-त्याग हुआ या नहीं। ऋषिकुमार चुपचाप उनकी ओर देख रहे थे। आसन, कमण्डलु, दण्ड आदि सब कुछ उन्होंने एक-एक करके अग्रिमें डाल दिया।

‘राजन्! अभी आपने कुछ नहीं छोड़ा है। सर्व त्यागके आनन्दका झूठा अभिनय मत कीजिये। आपने जो कुछ जलाया है, उसमें आपका था हो क्या? वे तो सब प्रकृति निर्मित वस्तुएँ थीं। अब उस ऋषिकुमारने कहा।

राजाने दो क्षण सोचा और कहा आप ठीक कहते हैं। अभी मैंने कुछ नहीं छोड़ा है; किंतु अब मैं सर्व त्याग करता हूँ।’

अपने शरीरकी आहुति देनेको उद्यत नरेशको ऋषिकुमारने फिर रोका न ठहरिये यह शरीर आपका है, यह भी आपका भ्रम है। यह भी प्रकृतिसे ही बना है। इसे नष्ट करनेसे कुछ लाभ नहीं।’

‘तब मेरा क्या है ?’ अब नरेश थके-से बैठ गये और पूछने लगे।

ऋषिकुमार बोले-‘यह अहंकार ही आपका है।आप इस अहंकारको कि यह सब मेरा है, छोड़ दीजिये। परिच्छिन्नमें अहंभाव छोड़नेपर ही आपका सर्वत्याग पूरा होगा।’

‘अहंकारका त्याग!’ शिखिध्वजके निर्मल चित्तमें यह बात प्रकाश बनकर पहुँची। अहंकारके त्यागकेबाद जो रह जाता है, वह तो वर्णनका विषय नहीं है। तत्त्वबोध प्राप्त हुआ नरेशको और तब ऋषिकुमारका रूप छोड़कर चूडालाने अपना रूप धारण करके उनके चरण छूए । वे ज्ञानी दम्पति नगरमें लौट आये शेष प्रारब्ध पूर्ण करने ।

– सु0 सिं0

द्वापरान्तमें उज्जैनमें शिखिध्वज नामके नरेश थे। उनकी पत्नी चूडाला सौराष्ट्र नरेशकी कन्या थीं। रानी चूडाला बड़ी विदुषी थीं। युवावस्था दिनोंदिन क्षीण हो रही है और वार्धक्य समीप आता जा रहा है, यह उन्होंने बहुत पहिले अनुभव कर लिया था। राज सदनमें आनेवाले महापुरुषोंसे आत्मतत्त्वकी व्याख्यासुनकर वे उसका मनन करने लगीं और मननसे निश्चित तत्त्वमें चित्तको उन्होंने स्थिर किया। इस प्रकार निदिध्यासनकी पूर्णता होनेपर उन्हें तत्त्व-बोध हो गया। आत्मज्ञानसम्पन्ना रानीके मुख और शरीरपर दिव्य कान्ति आ गयी। उनका सौन्दर्य अद्भुत हो गया। राजा शिखिध्वजने यह देखकर पूछा-‘रानी! तुम्हें यहविलक्षण शान्ति और अलौकिक सौन्दर्य कैसे प्राप्त हुआ? तुमने कोई औषध सेवन की है? कोई मन्त्र प्रयोग किया है? अथवा और कोई साधन प्राप्त किया है? तुम्हारा शरीर तो ऐसा हो रहा है जैसे पुनः युवावस्था प्राप्त कर रहा हो।’
चूडालाने उत्तर दिया -‘मैंने न औषध सेवन की है, न मन्त्रानुष्ठान किया है और न कोई अन्य साधन ही प्राप्त किया है। मैंने समस्त कामनाओंका त्याग कर दिया है। देहात्मभावको त्यागकर में अपरिच्छिन्न, अव्यक्तपरमतत्त्वमें स्थित हैं, इसीसे कान्तिमती हूँ।’ भुक्त भोगोंके समान ही मैं अभुक्त भोगोंसे भी संतुष्ट हूँ। न मैं क्रोध करती हूँ न हर्षित होती हैं, न असंतुष्ट होती हूँ। भूषण, सम्मान तथा अन्य भोगोंकी प्राप्तिसे न मुझे हर्ष होता न उनकी अप्राप्तिसे खेद में सुख नहीं चाहती, अर्थ नहीं चाहती, अनर्थका परिहार नहीं चाहती। प्रारब्धसे प्राप्त स्थितिमें सदा संतुष्ट रहती हूँ। राग परहित होकर मैं समझ चुकी हूँ कि निखिल विश्वमें व्याप्त चराचरको नियामिका शक्ति मेरा स्वरूप है, इसीसे मैं कान्तिमती हूँ।’
राजा शिखिध्वज रानीकी बात समझ नहीं सके। वे बोले तुम अभी प्रौढ़ नहीं हुई हो, तुम्हारी बुद्धि अपरिपक्व है. कोई बात ठीक कहना भी तुम्हें नहीं आता इसीलिये ऐसी असङ्गत बातें कहती हो। अव्यक्तमें भला, कोई कैसे स्थित हो सकता है। अभुक्त भोगों में संतुष्ट होनेका अर्थ ही क्या। ऐसी अटपटी बातें छोड़ दो और भलीभाँति राजसुखका उपभोग करती हुई मुझे आनन्दित करो।’
रानीने समझ लिया कि ‘महाराजके आत्मबोधका अवसर अभी नहीं आया है, उनके चित्तका मल अभी दूर नहीं हुआ है, इससे परमतत्त्वकी बात अभी वे समझ नहीं पा रहे हैं। अनधिकारीको ज्ञानोपदेश करनेसे लाभ तो होता नहीं, अनर्थकी ही सम्भावना रहती है। धर्मात्मा नरेशमें जब वैराग्य उत्पन्न होगा और तपसे उनके चित्तका मल नष्ट हो जायगा, तभी वे अध्यात्मतत्त्वको हृदयंगम कर सकेंगे। ऐसा निश्चय करके पतिके परम कल्याणकी इच्छा रखनेवाली रानी समयकी प्रतीक्षा करती हुई राजभवनमें पतिके अनुकूल व्यवहार करती रहीं।
रानी बृद्धाला मनमें एक बार कुछ सिद्धियोंकोपानेकी इच्छा हुई। वे आत्मज्ञानसम्पन्ना थीं और योग साधनाओंका रहस्य भी जान चुकी थीं। उन्होंने आसन लगाकर प्राणोंको संगत किया और विधिपूर्वक धारणाका आश्रय लिया। इस प्रकार साधना करके उन्होंने आकाशमें स्वच्छन्द घूमने तथा इच्छानुसार रूप धारण करनेकी सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं।
धर्मात्मा राजा शिखिध्वजको धर्मपूर्वक प्रजापालन एवं राज्यसुख भोगते हुए बहुत समय बीत गया। उन्होंने देखा कि सांसारिक सुखोंके भोगसे वासनाएँ तुम होनेके स्थानपर बढ़ती ही जाती हैं, कोई प्रतिकूलता न होनेपर भी चित्तको शान्ति नहीं मिलती। यह सब देखकर वे राज्यभोगसे खिन्न हो गये। राजाने ब्राह्मणोंको बहुत धन दान कियाः कृच्छ्र- चान्द्रायण आदि व्रत किये और अनेक तीर्थोंमें धूमे भी; किंतु उन्हें शान्ति नहीं मिली।
अन्तमें राजाके चित्तमें वैराग्यका उदय हुआ। उन्होंने वनमें जाकर तपस्या करनेका निश्चय किया। अपना विचार उन्होंने रानी चूडालाको सूचित किया, तब रानीने उनका समर्थन नहीं किया। रानीने कहा ‘जिस कार्यका समय हो, वही करना उचित है। अभी आपकी अवस्था वानप्रस्थ स्वीकार करके वनमें जानेकी नहीं है। वनमें जाकर तप करनेसे ही शान्ति नहीं मिला करती। अभी आप घरमें ही रहें। वानप्रस्थका समय आनेपर हम दोनों साथ ही वनमें चलेंगे।’
महाराजको रानीकी बात जँची नहीं। उन्होंने रानीसे कहा – ‘भद्रे ! तुम प्रजाका पालन करो और मुझे तपस्याके पवित्र मार्गमें जाने दो। प्रजापालन जो मेरा कर्तव्य है, उसका भार में तुमपर छोड़ता हूँ।’
राजा समझते थे कि समझानेसे रानी चूडाला उन्हें वनमें अकेले नहीं जाने देंगी। अतएव आधी रातको जब रानी निद्रामग्र थीं, महाराज उठे और राजभवन से बाहर निकल गये। संयोगवश रानीकी निद्रा टूट गयी। उन्होंने देखा कि महाराज अपनी शय्यापर नहीं हैं तो समझ गयीं कि वे वनकी ओर ही गये होंगे। योगिनी रानी खिड़कीके मार्गसे निकलकर आकाशमें पहुँच गयीं। शीघ्र ही उन्होंने वनमें जाते अपने पतिको देख लिया। आकाशमार्ग से गुप्त रहकर वे महाराजके पीछे चलती रहीं वनमें एक सुन्दर स्थानपर सरिताके पास राजाने रुकनेका विचार किया और बैठ गये।पतिके तपः स्थानको देखनेके अनन्तर चूडाला सोचने लगों -‘मैं इस समय महाराजके पास जाऊँ, यह उचित नहीं है। उनकी तपस्यामें मुझे बाधा नहीं देनी चाहिये। प्रजापालनरूप पतिका कर्तव्य मुझे पूरा ही करना चाहिये। प्रारब्धवश यह जो मुझे पति वियोग प्राप्त हुआ है, उसे भोग लेना ही उचित है।’ ऐसा निश्चय करके रानी चूडाला नगरमें लौट आयीं। उन्होंने सम्पूर्ण राज्य संचालन अपने हाथमें ले लिया और प्रजाका भली प्रकार पालन करने लगीं।
कुछ काल बीत जानेपर चूडालाके मनमें पति दर्शनको इच्छा हुई। वे आकाशमार्ग से उस तपोवनमें पहुँच गयीं। महाराज शिखिध्वजका शरीर कठोर तप करनेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे अत्यन्त कृश, शान्त और उदास दीखते थे। योगिनी चूडालाने समझ लिया कि तपस्यासे राजाके चित्तका मल नष्ट हो गया है और विक्षेप भी समाप्तप्राय है, अब वे तत्वबोधके अधिकारी हो गये हैं। परंतु के बिना सुने हुए उपदेशमें विश्वास नहीं होता, इसलिये अपने स्त्री वेशसे रानीने महाराजके सम्मुख जाना उचित नहीं समझा। उन्होंने एक युवक ऋषिका स्वरूप अपनी संकल्प शक्तिसे धारण कर लिया और आकाशमार्गसे तपस्वी नरेशके सम्मुख उतर पड़ीं।
राजा शिखिध्वजने आकाशसे उतरते एक तेजस्वी ऋषिको देखा तो उठ खड़े हुए। उन्होंने ऋषिको प्रणाम किया और ऋऋषिने भी उन्हें प्रणाम किया। राजाने अर्घ्य आदि देकर आगत अतिथिका सत्कार किया। यह सब हो जानेपर सत्सङ्ग प्रारम्भ हुआ। ऋषिरूपधारिणी रानीने पूछा-‘आप कौन हैं ?’
राजाने अपना परिचय देकर कहा-‘संसाररूपी’ भयसे भीत होकर मैं इस वनमें रहता हूँ। जन्म-मरणके बन्धनसे मैं डर गया हूँ। कठोर तप करते हुए भी मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। मेरा प्रयत्न कुण्ठित हो गया है। मैं असहाय हूँ। आप मुझपर कृपा करें।’
चूडालने कहा-‘कमका आत्यन्तिक नाश ज्ञानके द्वारा ही होता है। ज्ञानी कर्म करते हुए भी अकर्ता है। उसके कर्म उसके लिये बन्धन नहीं बनते; क्योंकि उसमें आसक्ति कामना नहीं रहती। सभी देवता और श्रुतियाँ ज्ञानको ही मोक्षका साधन मानती हैं, फिर आपतपको मोक्षका हेतु मानकर क्यों बान्त हो रहे हैं? यह दण्ड है, यह कमण्डलु है, यह आसन है आदि सत्यके भ्रममें आप क्यों पड़े हैं। मैं कौन हूँ, यह जगत् कैसे उत्पन्न हुआ, इसको शान्ति कैसे होगी इस प्रकारका विचार आप क्यों नहीं करते ?”
शिवने अब उस ऋषिकुमारको ही तत्वोपदेश करनेका आग्रह किया- ‘मैं आपका शिष्य हूँ, आपका अनुगत है, अब आप कृपा करके मुझे ज्ञानका प्रकाश दें।’
चूडालने कहा- आपकी पत्नीने तो बहुत पहले आपको तत्त्व ज्ञानका उपदेश किया था। आपने उसके उपदेशको ग्रहण नहीं किया और न सर्व त्यागका ही आश्रय लिया।’
राजाने सर्वत्यागका ठीक आशय नहीं समझा। उन्होंने उस वनके त्यागका संकल्प किया। परंतु जब ऋषिकुमारने वनत्यागको भी सर्वत्याग नहीं माना, तब राजाने अपने marat ममता भी छोड़ दी। उन्होंने कुटियाको सब वस्तुएँ एकत्र करके उनमें अग्नि लग दो। राजामें विचार जाग्रत् हो गया था, अब वे स्वयं सोचने लगे थे कि सर्व-त्याग हुआ या नहीं। ऋषिकुमार चुपचाप उनकी ओर देख रहे थे। आसन, कमण्डलु, दण्ड आदि सब कुछ उन्होंने एक-एक करके अग्रिमें डाल दिया।
‘राजन्! अभी आपने कुछ नहीं छोड़ा है। सर्व त्यागके आनन्दका झूठा अभिनय मत कीजिये। आपने जो कुछ जलाया है, उसमें आपका था हो क्या? वे तो सब प्रकृति निर्मित वस्तुएँ थीं। अब उस ऋषिकुमारने कहा।
राजाने दो क्षण सोचा और कहा आप ठीक कहते हैं। अभी मैंने कुछ नहीं छोड़ा है; किंतु अब मैं सर्व त्याग करता हूँ।’
अपने शरीरकी आहुति देनेको उद्यत नरेशको ऋषिकुमारने फिर रोका न ठहरिये यह शरीर आपका है, यह भी आपका भ्रम है। यह भी प्रकृतिसे ही बना है। इसे नष्ट करनेसे कुछ लाभ नहीं।’
‘तब मेरा क्या है ?’ अब नरेश थके-से बैठ गये और पूछने लगे।
ऋषिकुमार बोले-‘यह अहंकार ही आपका है।आप इस अहंकारको कि यह सब मेरा है, छोड़ दीजिये। परिच्छिन्नमें अहंभाव छोड़नेपर ही आपका सर्वत्याग पूरा होगा।’
‘अहंकारका त्याग!’ शिखिध्वजके निर्मल चित्तमें यह बात प्रकाश बनकर पहुँची। अहंकारके त्यागकेबाद जो रह जाता है, वह तो वर्णनका विषय नहीं है। तत्त्वबोध प्राप्त हुआ नरेशको और तब ऋषिकुमारका रूप छोड़कर चूडालाने अपना रूप धारण करके उनके चरण छूए । वे ज्ञानी दम्पति नगरमें लौट आये शेष प्रारब्ध पूर्ण करने ।
– सु0 सिं0

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