सत्यको न समझ पानेकी आत्मघाती विडम्बना
किसी गाँव कन्फ्यूशियस शिष्यसहित पधारे। गाँवकेपाँच युवक एक अन्धेको पकड़कर उनके पास लाये। उनमेंसे एक बोला- भगवन्! एक समस्या हम सबके लिये उत्पन्न हो गयी है। यह व्यक्ति आँखका तो अन्धा है ही साथ ही बहुत मूर्ख भी है, पर है अव्वल दर्जेका तार्किक । हम इसको सतत समझा रहे हैं कि प्रकाशका अस्तित्व है। प्रकृतिके दृश्योंमें सौन्दर्यकी अद्भुत छटा है। दुनियामें कुरूपता एवं सुन्दरताका युग्म सर्वत्र विद्यमान है। सूर्य, चाँद, सितारे प्रकाशवान हैं। रंग-बिरंगे पुष्पोंमें एक प्राकृतिक आकर्षण है, जो सबका मन मोह लेता है। वसन्तके साथ प्रकृति शृंगार करके अवतरित होती है; सबको मनमोहित करती है।’
‘हमारी हर बातको यह अन्धा अपने तर्कोंके सहारे काटकर रख देता है। कहता है कि प्रकाशकी सत्ता कल्पित है। तुम लोगोंने मुझे अन्धा सिद्ध करनेके लिये प्रकाशके सिद्धान्त गढ़ लिये हैं। वस्तुतः प्रकाशका अस्तित्व ही नहीं है। यदि है, तो सिद्ध करके बताओ। मुझे स्पर्श कराके दिखाओ कि प्रकाश है। यदि स्पर्शके माध्यम से सम्भव नहीं है, तो मैं चखकर देखना चाहता हूँ। यदि तुम कहते हो कि स्वादरहित है तो मैं सुन सकता हूँ। प्रकाशकी आवाज सम्प्रेषित करो। यदि उसे सुना भी नहीं जा सकता, तो तुम मुझे प्रकाशकी गन्धका पान करा दो। मेरी प्राणेन्द्रिय समर्थ है- गन्धको ग्रहण करनेमें मेरी चारों इन्द्रियाँ समर्थ हैं। इनमेंसे किसी एकसे प्रकाशका सम्पर्क करा दो। अनुभूति होनेपर ही तो मैं मान सकता हूँ कि प्रकाशकी सत्ता है।’
उन पाँचोंने कन्फ्यूशियससे कहा- ‘आप ही बतायें इस अन्धेको कैसे समझायें ? प्रकाशको चखाया तो जा नहीं सकता। न ही स्पर्श कराया जा सकता है। उसमेंसे गन्ध तो निकलती नहीं, कि इसे सुँघाया जा सके, न ही ध्वनि निकलती है, जिसे सुना जा सके। आप समर्थ हैं, सम्भव है आपके समझानेसे इसे सत्यका ज्ञान हो।’
कन्फ्यूशियस बोले- ‘प्रकाशको यह नासमझ जिन इन्द्रियोंके माध्यम से समझनेका अनुभव करना चाहता है, उनसे कभी सम्भव नहीं है कि वह प्रकाशका अस्तित्व स्वीकार कर ले। उसको बोध करानेमें मैं भी असमर्थ हूँ। तुम्हें मेरे पास नहीं, किसी चिकित्सकके पास जाना चाहिये। जबतक नेत्र नहीं मिल जाते, कोई भी उसे समझानेमें सफल नहीं हो सकता। इसलिये कि आँखोंके अतिरिक्त दृश्य प्रकाशका कोई
प्रमाण नहीं है।’
महान् दार्शनिकका निर्देश पाकर पाँचों उस जन्म जात अन्धेको एक कुशल वैद्यके पास लेकर पहुँचे। विशेषज्ञ वैद्य बोला- ‘इस रोगीको तो और पहले लाना चाहिये था। इसका रोग इतना गम्भीर नहीं। बेकारमें यह अपनी आयुकी इतनी लम्बी अवधि अन्धेपनका भार लादे व्यतीत करता रहा।’
वैद्यने शल्यक्रियाद्वारा आँखोंकी ऊपरी झिल्ली हटा दी, जिससे प्रकाशको आनेका मार्ग मिल गया। अल्पावधिके उपचारसे ही वह अन्धा ठीक हो गया। उसके आश्चर्यका कोई ठिकाना न रहा। उसके सारे तर्क अपने आप तिरोहित हो गये। अपनी भूल उसे समझमें आ गयी। कन्फ्यूशियसने शिष्य – मण्डलीसे कहा – ‘तुम्हें उस अन्धेकी मूर्खता तथा तर्कशीलतापर हँसी आ सकती है, पर उन तथाकथित बुद्धिमानोंको किस श्रेणीमें रखा जाय, जो ईश्वर जैसी अगोचर, निराकार, इन्द्रियातीत सत्ताको प्रत्यक्ष इन्द्रियोंके सहारे समझने का प्रयास करते हैं। उसमें असफल होनेपर ऐसे असंख्यों अन्धे उद्घोष करते दिखायी देते हैं कि ईश्वरका अस्तित्व नहीं है, वह तो आस्तिकोंकी र मात्र कल्पना है।’
सचमुच ही यदि अन्तःकरणपर छाये कषाय कल्मषोंको धोकर परिमार्जित किया जा सके, उसे निर्मल बनाया जा सके, तो उसमें ईश्वरीय प्रकाशको झिलमिलाते देखा और अनुभव किया जा सकता है।
सत्यको न समझ पानेकी आत्मघाती विडम्बना
किसी गाँव कन्फ्यूशियस शिष्यसहित पधारे। गाँवकेपाँच युवक एक अन्धेको पकड़कर उनके पास लाये। उनमेंसे एक बोला- भगवन्! एक समस्या हम सबके लिये उत्पन्न हो गयी है। यह व्यक्ति आँखका तो अन्धा है ही साथ ही बहुत मूर्ख भी है, पर है अव्वल दर्जेका तार्किक । हम इसको सतत समझा रहे हैं कि प्रकाशका अस्तित्व है। प्रकृतिके दृश्योंमें सौन्दर्यकी अद्भुत छटा है। दुनियामें कुरूपता एवं सुन्दरताका युग्म सर्वत्र विद्यमान है। सूर्य, चाँद, सितारे प्रकाशवान हैं। रंग-बिरंगे पुष्पोंमें एक प्राकृतिक आकर्षण है, जो सबका मन मोह लेता है। वसन्तके साथ प्रकृति शृंगार करके अवतरित होती है; सबको मनमोहित करती है।’
‘हमारी हर बातको यह अन्धा अपने तर्कोंके सहारे काटकर रख देता है। कहता है कि प्रकाशकी सत्ता कल्पित है। तुम लोगोंने मुझे अन्धा सिद्ध करनेके लिये प्रकाशके सिद्धान्त गढ़ लिये हैं। वस्तुतः प्रकाशका अस्तित्व ही नहीं है। यदि है, तो सिद्ध करके बताओ। मुझे स्पर्श कराके दिखाओ कि प्रकाश है। यदि स्पर्शके माध्यम से सम्भव नहीं है, तो मैं चखकर देखना चाहता हूँ। यदि तुम कहते हो कि स्वादरहित है तो मैं सुन सकता हूँ। प्रकाशकी आवाज सम्प्रेषित करो। यदि उसे सुना भी नहीं जा सकता, तो तुम मुझे प्रकाशकी गन्धका पान करा दो। मेरी प्राणेन्द्रिय समर्थ है- गन्धको ग्रहण करनेमें मेरी चारों इन्द्रियाँ समर्थ हैं। इनमेंसे किसी एकसे प्रकाशका सम्पर्क करा दो। अनुभूति होनेपर ही तो मैं मान सकता हूँ कि प्रकाशकी सत्ता है।’
उन पाँचोंने कन्फ्यूशियससे कहा- ‘आप ही बतायें इस अन्धेको कैसे समझायें ? प्रकाशको चखाया तो जा नहीं सकता। न ही स्पर्श कराया जा सकता है। उसमेंसे गन्ध तो निकलती नहीं, कि इसे सुँघाया जा सके, न ही ध्वनि निकलती है, जिसे सुना जा सके। आप समर्थ हैं, सम्भव है आपके समझानेसे इसे सत्यका ज्ञान हो।’
कन्फ्यूशियस बोले- ‘प्रकाशको यह नासमझ जिन इन्द्रियोंके माध्यम से समझनेका अनुभव करना चाहता है, उनसे कभी सम्भव नहीं है कि वह प्रकाशका अस्तित्व स्वीकार कर ले। उसको बोध करानेमें मैं भी असमर्थ हूँ। तुम्हें मेरे पास नहीं, किसी चिकित्सकके पास जाना चाहिये। जबतक नेत्र नहीं मिल जाते, कोई भी उसे समझानेमें सफल नहीं हो सकता। इसलिये कि आँखोंके अतिरिक्त दृश्य प्रकाशका कोई
प्रमाण नहीं है।’
महान् दार्शनिकका निर्देश पाकर पाँचों उस जन्म जात अन्धेको एक कुशल वैद्यके पास लेकर पहुँचे। विशेषज्ञ वैद्य बोला- ‘इस रोगीको तो और पहले लाना चाहिये था। इसका रोग इतना गम्भीर नहीं। बेकारमें यह अपनी आयुकी इतनी लम्बी अवधि अन्धेपनका भार लादे व्यतीत करता रहा।’
वैद्यने शल्यक्रियाद्वारा आँखोंकी ऊपरी झिल्ली हटा दी, जिससे प्रकाशको आनेका मार्ग मिल गया। अल्पावधिके उपचारसे ही वह अन्धा ठीक हो गया। उसके आश्चर्यका कोई ठिकाना न रहा। उसके सारे तर्क अपने आप तिरोहित हो गये। अपनी भूल उसे समझमें आ गयी। कन्फ्यूशियसने शिष्य – मण्डलीसे कहा – ‘तुम्हें उस अन्धेकी मूर्खता तथा तर्कशीलतापर हँसी आ सकती है, पर उन तथाकथित बुद्धिमानोंको किस श्रेणीमें रखा जाय, जो ईश्वर जैसी अगोचर, निराकार, इन्द्रियातीत सत्ताको प्रत्यक्ष इन्द्रियोंके सहारे समझने का प्रयास करते हैं। उसमें असफल होनेपर ऐसे असंख्यों अन्धे उद्घोष करते दिखायी देते हैं कि ईश्वरका अस्तित्व नहीं है, वह तो आस्तिकोंकी र मात्र कल्पना है।’
सचमुच ही यदि अन्तःकरणपर छाये कषाय कल्मषोंको धोकर परिमार्जित किया जा सके, उसे निर्मल बनाया जा सके, तो उसमें ईश्वरीय प्रकाशको झिलमिलाते देखा और अनुभव किया जा सकता है।