महाराज सगरके साठ सहस्र पुत्र महर्षि कपिलका अपमान करके अपने ही अपराधसे भस्म हो गये थे। उनके उद्धारका केवल एक मार्ग था-उनकी भस्म गङ्गाजल पड़े। परंतु उस समयतक गङ्गाजी पृथ्वीपर आयी नहीं थीं। वे तो ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके कमण्डलुमें ही थीं। सगरके पौत्र अंशुमान्ने उनको पृथ्वीपर लाने के लिये तपस्या प्रारम्भ की और तपस्या करते-करते हीउनका देहावसान भी हो गया। उनके पुत्र दिलीपने तपस्या करके पिताके कार्यको पूरा करना चाहा, किंतु वे भी असफल रहे। उनकी आयु भी तपस्या करते-करते समाप्त हो गयी। दिलीपके पुत्र भगीरथने जैसे ही देखा कि उनका ज्येष्ठ पुत्र राज्यकार्य चला सकता है, उसे राज्य दे दिया और स्वयं वनमें चले गये। पिता-पितामह जिस कार्यको पूरा नहीं कर सके थे, उसे उन्हें पूरा करना था।दीर्घकालीन तपस्याके पश्चात् गङ्गाजीने प्रसन्न होकर | दर्शन भी दिया और बोलीं- ‘मेरे वेगको सहेगा कौन ? वैसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं आना चाहती; क्योंकि यहाँके चापी मुझमें स्नान करेंगे। उनका पाप मुझमें रह जायगा। वह पाप कैसे नष्ट होगा ?”
भगीरथने निवेदन किया ‘भगवान् शंकर आपका वेग सम्हाल लेंगे। पापका भय आप न करें। भगवद्भक्त महात्मागण भी आपमें स्नान करेंगे। उनके हृदयमें पापहारी श्रीहरि निवास करते हैं। अतः उन भक्तोंके स्पर्शसे आप सदा शुद्ध बनी रहेंगी।’
गङ्गाजी प्रसन्न हो गयीं। भगीरथको फिर तपस्या करके शंकरजीको प्रसन्न करना पड़ा। आशुतोषने गङ्गाजीको मस्तकपर धारण करना स्वीकार कर लिया। परंतु ब्रह्मलोकसे पूरे वेगसे आकर गङ्गाजी उन विराट्मूर्ति धूर्जटिकी जटाओंमें ही समा गयीं वहाँसे उनका एक बूँद जल भी बाहर नहीं आया। भगीरथने फिर सदाशिवकी स्तुति प्रारम्भ की, तब कहीं जटा निचोड़कर शंकरजीने गङ्गाको बाहर प्रकट किया।’श्रेयांसि बहुविघ्नानि।’ भगीरथके साथ गङ्गाजीने यह निश्चय किया था कि भगीरथ रथपर बैठकर आगे आगे चलें और पीछे-पीछे गङ्गाजीका प्रवाह चले। किंतु कुछ दूर जानेपर भगीरथ देखते हैं कि गङ्गाका प्रवाह तो कहीं दीख नहीं रहा है। बात यह हुई कि मार्गमें गङ्गाजी जह्नु ऋषिका आसन- कमण्डलु अपनी धाराके साथ बहा गयीं, अतः क्रोधमें आकर ऋषिने गङ्गाको ही पी लिया था । भगीरथने पीछे लौटकर देखा कि गङ्गाजीके प्रवाहके स्थानपर रेत उड़ रही है। अब उन्होंने किसी प्रकार प्रार्थना करके ऋषिको प्रसन्न किया। ऋषिने गङ्गाको अपनी पुत्री बनाकर, जाँघ चीरकर बाहर निकाला। इससे गङ्गाजी जाह्नवी कहलायीं। भगीरथकी तपस्या, श्रद्धा, धैर्य और उद्योगके प्रभावसे उनके पूर्वज सगरके पुत्रोंकी भस्म गङ्गाजलमें पड़ी। वे मुक्त हो गये। साथ ही संसारका अपार कल्याण हुआ। परमपावन गङ्गा-प्रवाह मर्त्यलोकके प्राणियोंके लिये सुगम हो गया। –
महाराज सगरके साठ सहस्र पुत्र महर्षि कपिलका अपमान करके अपने ही अपराधसे भस्म हो गये थे। उनके उद्धारका केवल एक मार्ग था-उनकी भस्म गङ्गाजल पड़े। परंतु उस समयतक गङ्गाजी पृथ्वीपर आयी नहीं थीं। वे तो ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके कमण्डलुमें ही थीं। सगरके पौत्र अंशुमान्ने उनको पृथ्वीपर लाने के लिये तपस्या प्रारम्भ की और तपस्या करते-करते हीउनका देहावसान भी हो गया। उनके पुत्र दिलीपने तपस्या करके पिताके कार्यको पूरा करना चाहा, किंतु वे भी असफल रहे। उनकी आयु भी तपस्या करते-करते समाप्त हो गयी। दिलीपके पुत्र भगीरथने जैसे ही देखा कि उनका ज्येष्ठ पुत्र राज्यकार्य चला सकता है, उसे राज्य दे दिया और स्वयं वनमें चले गये। पिता-पितामह जिस कार्यको पूरा नहीं कर सके थे, उसे उन्हें पूरा करना था।दीर्घकालीन तपस्याके पश्चात् गङ्गाजीने प्रसन्न होकर | दर्शन भी दिया और बोलीं- ‘मेरे वेगको सहेगा कौन ? वैसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं आना चाहती; क्योंकि यहाँके चापी मुझमें स्नान करेंगे। उनका पाप मुझमें रह जायगा। वह पाप कैसे नष्ट होगा ?”
भगीरथने निवेदन किया ‘भगवान् शंकर आपका वेग सम्हाल लेंगे। पापका भय आप न करें। भगवद्भक्त महात्मागण भी आपमें स्नान करेंगे। उनके हृदयमें पापहारी श्रीहरि निवास करते हैं। अतः उन भक्तोंके स्पर्शसे आप सदा शुद्ध बनी रहेंगी।’
गङ्गाजी प्रसन्न हो गयीं। भगीरथको फिर तपस्या करके शंकरजीको प्रसन्न करना पड़ा। आशुतोषने गङ्गाजीको मस्तकपर धारण करना स्वीकार कर लिया। परंतु ब्रह्मलोकसे पूरे वेगसे आकर गङ्गाजी उन विराट्मूर्ति धूर्जटिकी जटाओंमें ही समा गयीं वहाँसे उनका एक बूँद जल भी बाहर नहीं आया। भगीरथने फिर सदाशिवकी स्तुति प्रारम्भ की, तब कहीं जटा निचोड़कर शंकरजीने गङ्गाको बाहर प्रकट किया।’श्रेयांसि बहुविघ्नानि।’ भगीरथके साथ गङ्गाजीने यह निश्चय किया था कि भगीरथ रथपर बैठकर आगे आगे चलें और पीछे-पीछे गङ्गाजीका प्रवाह चले। किंतु कुछ दूर जानेपर भगीरथ देखते हैं कि गङ्गाका प्रवाह तो कहीं दीख नहीं रहा है। बात यह हुई कि मार्गमें गङ्गाजी जह्नु ऋषिका आसन- कमण्डलु अपनी धाराके साथ बहा गयीं, अतः क्रोधमें आकर ऋषिने गङ्गाको ही पी लिया था । भगीरथने पीछे लौटकर देखा कि गङ्गाजीके प्रवाहके स्थानपर रेत उड़ रही है। अब उन्होंने किसी प्रकार प्रार्थना करके ऋषिको प्रसन्न किया। ऋषिने गङ्गाको अपनी पुत्री बनाकर, जाँघ चीरकर बाहर निकाला। इससे गङ्गाजी जाह्नवी कहलायीं। भगीरथकी तपस्या, श्रद्धा, धैर्य और उद्योगके प्रभावसे उनके पूर्वज सगरके पुत्रोंकी भस्म गङ्गाजलमें पड़ी। वे मुक्त हो गये। साथ ही संसारका अपार कल्याण हुआ। परमपावन गङ्गा-प्रवाह मर्त्यलोकके प्राणियोंके लिये सुगम हो गया। –