‘साधन और अनुष्ठान तोथोंमें ही शीघ्र सफल होते हैं और उनका अक्षय फल होता है। इसी विचारसे साधु बाहिय सुप्पारक तीर्थमें वास करने लगे थे।
बाहियका जीवन अत्यन्त सरल एवं सात्त्विक था । उनके मनमें किसी प्राणोके प्रति वैर-विरोध नहीं था। अपने साधनमें उनकी निष्ठा थी और उसमें वे सतत संलग्न थे। उनके तेजके साथ उनकी सम्मान-प्रतिष्ठा भी बढ़ने लगी थी।”
समीपके ही नहीं, दूर-दूरके लोग उनके समीप आते और चरणोंमें सिर झुकाते सभी उनकी पूजा और देवोचित आदर करते। चीवर, पिण्डपात, शयनासन और दवा – बीरो उनको अनायास ही प्रचुर परिमाणमें प्राप्त हो जाते थे।
‘संसारमें जो अर्हत् या अर्हत्-मार्गारूढ़ हैं, उनमें एक मैं भी हूँ।’ बाहियके मनमें एक दिन विचार उठा।
‘बाहिय मेरा अत्यन्त प्रिय है,’ बाहियके कुलदेवताने सोचा और सन्मार्गपर चलनेके लिये निरन्तर प्रय है। इसे मुक्तिकी प्रत्येक क्षण कामना है। अतएव इसे सावधान करना चाहिये।’
‘बाहिय! तुम अर्हत् नहीं हो।’ कृपापूर्वक कुलदेवताने बाहियके सम्मुख उपस्थित होकर कहा ‘अर्हत्-मार्गपर आरूद भी नहीं हो अर्हत् या अर्हत् मार्गारूद होनेके पथका दर्शन भी तुम्हें नहीं हो सका है। अभिमान नहीं करना चाहिये। अभिमान निर्वाण पथका सबसे बड़ा बाधक है।’
“कृपामय ।’ बाहिय सहम गये। कुलदेवताकी ओर
कृतज्ञताभरी दृष्टिसे देखते हुए उन्होंने अत्यन्त विनीत स्वरमें पूछा इस धरतीपर ऐसे कौन हैं, जो अर्हत् या अर्हतु
मार्गारूढ़ हो चुके हैं। यह बता देनेकी दया कीजिये।’ ‘बाहिय!’ कुलदेवताने उत्तर दिया, ‘इसी आर्यधराण
श्रावस्ती नामक पुण्यनगर है वहाँ इस समय भगवान् | बुद्धदेव निवास कर रहे हैं। वे भगवान् तथागत ही स्वयं अर्हत् हो जगत्को अर्हत् पद प्राप्त करनेका मार्ग-दर्शन करा रहे हैं। उनके परम पवित्र धर्मोपदेशसे जीव चिरकालिक भवबाधासे त्राण पा रहे हैं, मुक्त होते जा रहे हैं।’
कुलदेवता अदृश्य हो गये और बाहिय भगवान् बुद्धदेवके दर्शनार्थ सुप्पारक तीर्थसे चल पड़े।
बाहिय जेतवन पहुँचे। ये सुप्पारक तीर्थसे यहाँतक अनवरत रूपसे चलते आये थे। यात्राके बीच इन्होंने | केवल एक रात्रि विश्राम किया था इनके नेत्रोंमें सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् बुद्ध जैसे समा गये थे। उन्हींके दर्शनार्थ | उक्त पवित्र तीर्थको त्यागकर वे द्रुतगति से चल पड़े थे। जेतवनकी पावन भूमि और वहाँके सघन वृक्षोंको देखकर उन्हें अपूर्व शान्ति मिली। उन्हें लगा, जैसे जेतवनको तरुलता वल्लरियाँ ही नहीं, वहाँका प्रत्येक कण निर्वाण प्राप्त कर चुका है। वे श्रद्धा-विभोर हो गये। उस समय
वहाँ कितने ही भिक्षु इधर-उधर टहल रहे थे। ‘भन्ते! एक भिक्षुके समीप जाकर उन्होंने विनीत वाणीमें पूछा मैं अर्हत् सम्यक सम्बुद्ध भगवान् के दर्शनार्थ सुप्पारक तीर्थसे चलकर आया हूँ। इस समय ये कहाँ बिहार कर रहे हैं?”
‘बाहिय। भिक्षुने उत्तर दिया, ‘आप कुछ देर यहाँ विश्राम करें। भगवान् पिण्डपातके लिये इस समय गाँवमें गये हैं।”मैं भगवान्के दर्शन बिना एक क्षण भी विश्राम
नहीं करना चाहता।’ उन्होंने भिक्षुको उत्तर दिया। ‘मैं अभी भगवान्के समीप जाऊंगा।’ और भिक्षुके बताये गाँवकी और ये चल पड़े।
बाहिय जेतवनसे दौड़ पड़े थे। उनके पैरोंमें जैसे पंख उग आये थे। तथागतके दर्शन बिना वे अधीर से हो रहे थे। श्रावस्तीमें पहुँचकर उन्होंने भगवान्को देखा, भगवान् भिक्षापात्र लिये एक साधारण परिवारकी देहरीपर खड़े थे। भगवान्का भुवन मोहन सौन्दर्य एवं उनकी आकृतिपर क्रीड़ा करती हुई दिव्य ज्योति देखकर वाहिय चकित हो गये। अत्यन्त संयमी, अत्यन्त शान्त एवं शमथ दमथ को प्राप्त प्रभुको देखकर बाहिय उनके चरणोंमें दण्डकी भाँति पड़ गये अपने हाथोंमें उन्होंने भगवान्के पादपद्मोंको पकड़ लिया और नेत्रोंसे प्रवाहित अनवरत वारिधारासे वे बहुत देरतक उनका प्रक्षालन करते रहे।
‘भन्ते!” ‘कुछ देर बाद स्वस्थ होकर उन्होंने अत्यन्त श्रद्धापूरित नम्र वाणीमें निवेदन किया, ‘भगवान् मुझे धर्मोपदेश करें, जिससे मुझे चिरकालिक अक्षय सुख शान्तिकी प्राप्ति हो। सुगत कृपापूर्वक मुझे धर्मोपदेश करें।’
‘बाहिय!’ भगवान्ने अत्यन्त शान्तिपूर्वक कहा, ‘मैं भिक्षाटनके लिये निकला हूँ। यह समय धर्मोपदेशके उपयुक्त नहीं।’
‘भन्ते!’ बाहियने तुरंत निवेदन किया-‘जीवन अत्यन्त अस्थिर है। पता नहीं अगले क्षण भगवान् या मैं ही रह सकूँगा या नहीं। अतएव भगवान् मुझे वह उपदेश करें, जिससे मुझे चिरकालिक अक्षय सुख शान्ति उपलब्ध हो। भगवान् मुझे शीघ्र उपदेश करें।’ ‘बाहिय!’ दूसरी बार भी भगवान्ने अत्यन्त शान्तिसे उत्तर दिया, ‘मैं भिक्षार्थ गाँवमें हूँ। गृहस्थ परिवारको देहरीपर खड़े हो भिक्षापात्रमें भिक्षा लेनेकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। धर्मोपदेशके लिये यह उचित समय नहीं।’
‘भन्ते!’ बाहियने तीसरी बार पुनः अनुरोध किया, “”जीवनका ठिकाना नहीं। आम्रपल्लवकी नोकपर लटके जल- सोकरका ठिकाना है, पर जीवनके सम्बन्धमें यह भी निश्चय नहीं। अगले क्षण भगवान् या मैं ही रहचाऊँगा या नहीं, कुछ भी निश्चित नहीं। अतएव जिससे रेविकालिक अक्षर सुख-शान्तिको उपलब्धि हो, इस भाव में सदाके लिये मुक्ति प्राप्त कर लूँ, मुझे वैसा हो उपदेश दें।’
“अच्छा बाहिय!” भगवान् उसी अवस्थामें गृहस्थकी देह अपना रिक्त पात्र लिये अत्यन्त शान्त स्वरमें बोले, ‘तुम्हें अभ्यास करना चाहिये, तुम्हें देखनेमें केवल देखना ही चाहिये, सुननेमें केवल सुनना ही चाहिये। सूने चखने और स्पर्श करनेमें केवल सूचना, चखना, स्पर्शही करना चाहिये। जाननेमें केवल जानना ही चाहिये। बाहिय! यदि तुमने ऐसा सीख लिया अर्थात् देखकर सूरकर, चखकर स्पर्शकर और जानकर उसमें लिस नहीं हो सके, आसक्ति तुम्हें स्पर्श नहीं कर की तो तुम्हारे दुःखोंका अन्त हो जायगा। जागतिक आस ही जगत्में आवद्ध करनेवाली है एवं इससे त्राण पाना हो निर्वाण है।’
‘भन्ते!’ वाहिय पुनः भगवान्के चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने अनुभव किया, भगवान्के उपदेशमात्रसे उनका चित्त उपादान (प्रापञ्चिक जगत्की आसक्ति) से रहित तथा आश्रवोंसे मुक्त हो गया। वे बोले मैं आपका आजीवन ऋणी रहूँगा। भगवान्ने मुझे मुक्तिके मूल तत्त्वका साक्षात्कार करा दिया।’
मधुर स्मितके साथ भगवान् भिक्षाटनके लिये आगे बढ़े। बाहिय उनकी ओर ललकभरे अपलक नेत्रोंसे तबतक
देखते रहे, जबतक वे दृष्टिसे ओझल नहीं हो गये। ‘भन्ते!’ एक भिक्षुने दौड़कर भिक्षाटनसे नगरके बाहर लौटते हुए भगवान् से कहा। वह हाँफ रहा था।
आगे वह नहीं बोल पाया।
‘क्या बात है ?’ भगवान्ने प्रश्न किया।
‘भन्ते ।’ कुछ स्थिर होकर उसने निवेदन किया, ‘भगवान्के धर्मोपदेशके अनन्तर लौटते हुए बाहियको एक साँड़ने अपने सॉगोंपर उठाकर जोरसे पटक दिया। बाहियका ऐहिक जीवन तत्काल समाप्त हो गया। उनका शव कुछ ही दूरपर पड़ा है।’
भगवान् उठे और दौड़ पड़े। उन्होंने बाहियके शवको देखकर एकत्र हुए भिक्षुओंसे कहा – ‘भिक्षुओंयह तुम्हारा एक सब्रह्मचारी (गुरुभाई) था। इसकी निर्जीव देहकी रथी बनाकर अग्रिमें जला दो और इसके भस्मोंपर स्तूप निर्मित कर दो।’
‘जैसी आज्ञा !’ भिक्षुओंने उत्तर दिया और बाहियके शवके अन्तिम संस्कारमें लग गये।
‘भन्ते!’ भगवान्के चरणोंके समीप बैठकर भिक्षुओंमेंसे एकने विनम्र निवेदन किया। ‘भगवान्के आदेशानुसार बाहियकी निर्जीव देह प्रज्वलित अग्रिमें भस्म कर दी गयी। उनके भस्मोंपर स्तूप उठवा दिया गया।’ कुछ क्षण रुककर उसी भिक्षुने पुनः निवेदनकिया – भगवान्से हमलोग जानना चाहते हैं कि-
बाहियकी क्या गति होगी।’ अत्यन्त शान्त एवं गम्भीर वाणीमें उन्होंने धीरे-धीरे उत्तर दिया, ‘भिक्षुओ! जब क्षीणाश्रव भिक्षु आत्म साक्षात्कार कर लेता है, तब वह रूप-अरूप तथा सुख-दुःखसे छूट जाता है। बाहियने मेरे बताये धर्मोपदेशको ठीकसे ग्रहण कर लिया था, वह निर्वाणके मार्गपर आरूढ़ हो गया था।’
भिक्षुओंकी आकृतिपर हर्ष नृत्य कर उठा। भगवान् मौन हो गये। शीतल – मन्द समीर भगवान्के चरणोंका स्पर्श करके प्रसन्नतासे नृत्य करने लगा। – शि0 दु0
‘साधन और अनुष्ठान तोथोंमें ही शीघ्र सफल होते हैं और उनका अक्षय फल होता है। इसी विचारसे साधु बाहिय सुप्पारक तीर्थमें वास करने लगे थे।
बाहियका जीवन अत्यन्त सरल एवं सात्त्विक था । उनके मनमें किसी प्राणोके प्रति वैर-विरोध नहीं था। अपने साधनमें उनकी निष्ठा थी और उसमें वे सतत संलग्न थे। उनके तेजके साथ उनकी सम्मान-प्रतिष्ठा भी बढ़ने लगी थी।”
समीपके ही नहीं, दूर-दूरके लोग उनके समीप आते और चरणोंमें सिर झुकाते सभी उनकी पूजा और देवोचित आदर करते। चीवर, पिण्डपात, शयनासन और दवा – बीरो उनको अनायास ही प्रचुर परिमाणमें प्राप्त हो जाते थे।
‘संसारमें जो अर्हत् या अर्हत्-मार्गारूढ़ हैं, उनमें एक मैं भी हूँ।’ बाहियके मनमें एक दिन विचार उठा।
‘बाहिय मेरा अत्यन्त प्रिय है,’ बाहियके कुलदेवताने सोचा और सन्मार्गपर चलनेके लिये निरन्तर प्रय है। इसे मुक्तिकी प्रत्येक क्षण कामना है। अतएव इसे सावधान करना चाहिये।’
‘बाहिय! तुम अर्हत् नहीं हो।’ कृपापूर्वक कुलदेवताने बाहियके सम्मुख उपस्थित होकर कहा ‘अर्हत्-मार्गपर आरूद भी नहीं हो अर्हत् या अर्हत् मार्गारूद होनेके पथका दर्शन भी तुम्हें नहीं हो सका है। अभिमान नहीं करना चाहिये। अभिमान निर्वाण पथका सबसे बड़ा बाधक है।’
“कृपामय ।’ बाहिय सहम गये। कुलदेवताकी ओर
कृतज्ञताभरी दृष्टिसे देखते हुए उन्होंने अत्यन्त विनीत स्वरमें पूछा इस धरतीपर ऐसे कौन हैं, जो अर्हत् या अर्हतु
मार्गारूढ़ हो चुके हैं। यह बता देनेकी दया कीजिये।’ ‘बाहिय!’ कुलदेवताने उत्तर दिया, ‘इसी आर्यधराण
श्रावस्ती नामक पुण्यनगर है वहाँ इस समय भगवान् | बुद्धदेव निवास कर रहे हैं। वे भगवान् तथागत ही स्वयं अर्हत् हो जगत्को अर्हत् पद प्राप्त करनेका मार्ग-दर्शन करा रहे हैं। उनके परम पवित्र धर्मोपदेशसे जीव चिरकालिक भवबाधासे त्राण पा रहे हैं, मुक्त होते जा रहे हैं।’
कुलदेवता अदृश्य हो गये और बाहिय भगवान् बुद्धदेवके दर्शनार्थ सुप्पारक तीर्थसे चल पड़े।
बाहिय जेतवन पहुँचे। ये सुप्पारक तीर्थसे यहाँतक अनवरत रूपसे चलते आये थे। यात्राके बीच इन्होंने | केवल एक रात्रि विश्राम किया था इनके नेत्रोंमें सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् बुद्ध जैसे समा गये थे। उन्हींके दर्शनार्थ | उक्त पवित्र तीर्थको त्यागकर वे द्रुतगति से चल पड़े थे। जेतवनकी पावन भूमि और वहाँके सघन वृक्षोंको देखकर उन्हें अपूर्व शान्ति मिली। उन्हें लगा, जैसे जेतवनको तरुलता वल्लरियाँ ही नहीं, वहाँका प्रत्येक कण निर्वाण प्राप्त कर चुका है। वे श्रद्धा-विभोर हो गये। उस समय
वहाँ कितने ही भिक्षु इधर-उधर टहल रहे थे। ‘भन्ते! एक भिक्षुके समीप जाकर उन्होंने विनीत वाणीमें पूछा मैं अर्हत् सम्यक सम्बुद्ध भगवान् के दर्शनार्थ सुप्पारक तीर्थसे चलकर आया हूँ। इस समय ये कहाँ बिहार कर रहे हैं?”
‘बाहिय। भिक्षुने उत्तर दिया, ‘आप कुछ देर यहाँ विश्राम करें। भगवान् पिण्डपातके लिये इस समय गाँवमें गये हैं।”मैं भगवान्के दर्शन बिना एक क्षण भी विश्राम
नहीं करना चाहता।’ उन्होंने भिक्षुको उत्तर दिया। ‘मैं अभी भगवान्के समीप जाऊंगा।’ और भिक्षुके बताये गाँवकी और ये चल पड़े।
बाहिय जेतवनसे दौड़ पड़े थे। उनके पैरोंमें जैसे पंख उग आये थे। तथागतके दर्शन बिना वे अधीर से हो रहे थे। श्रावस्तीमें पहुँचकर उन्होंने भगवान्को देखा, भगवान् भिक्षापात्र लिये एक साधारण परिवारकी देहरीपर खड़े थे। भगवान्का भुवन मोहन सौन्दर्य एवं उनकी आकृतिपर क्रीड़ा करती हुई दिव्य ज्योति देखकर वाहिय चकित हो गये। अत्यन्त संयमी, अत्यन्त शान्त एवं शमथ दमथ को प्राप्त प्रभुको देखकर बाहिय उनके चरणोंमें दण्डकी भाँति पड़ गये अपने हाथोंमें उन्होंने भगवान्के पादपद्मोंको पकड़ लिया और नेत्रोंसे प्रवाहित अनवरत वारिधारासे वे बहुत देरतक उनका प्रक्षालन करते रहे।
‘भन्ते!” ‘कुछ देर बाद स्वस्थ होकर उन्होंने अत्यन्त श्रद्धापूरित नम्र वाणीमें निवेदन किया, ‘भगवान् मुझे धर्मोपदेश करें, जिससे मुझे चिरकालिक अक्षय सुख शान्तिकी प्राप्ति हो। सुगत कृपापूर्वक मुझे धर्मोपदेश करें।’
‘बाहिय!’ भगवान्ने अत्यन्त शान्तिपूर्वक कहा, ‘मैं भिक्षाटनके लिये निकला हूँ। यह समय धर्मोपदेशके उपयुक्त नहीं।’
‘भन्ते!’ बाहियने तुरंत निवेदन किया-‘जीवन अत्यन्त अस्थिर है। पता नहीं अगले क्षण भगवान् या मैं ही रह सकूँगा या नहीं। अतएव भगवान् मुझे वह उपदेश करें, जिससे मुझे चिरकालिक अक्षय सुख शान्ति उपलब्ध हो। भगवान् मुझे शीघ्र उपदेश करें।’ ‘बाहिय!’ दूसरी बार भी भगवान्ने अत्यन्त शान्तिसे उत्तर दिया, ‘मैं भिक्षार्थ गाँवमें हूँ। गृहस्थ परिवारको देहरीपर खड़े हो भिक्षापात्रमें भिक्षा लेनेकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। धर्मोपदेशके लिये यह उचित समय नहीं।’
‘भन्ते!’ बाहियने तीसरी बार पुनः अनुरोध किया, “”जीवनका ठिकाना नहीं। आम्रपल्लवकी नोकपर लटके जल- सोकरका ठिकाना है, पर जीवनके सम्बन्धमें यह भी निश्चय नहीं। अगले क्षण भगवान् या मैं ही रहचाऊँगा या नहीं, कुछ भी निश्चित नहीं। अतएव जिससे रेविकालिक अक्षर सुख-शान्तिको उपलब्धि हो, इस भाव में सदाके लिये मुक्ति प्राप्त कर लूँ, मुझे वैसा हो उपदेश दें।’
“अच्छा बाहिय!” भगवान् उसी अवस्थामें गृहस्थकी देह अपना रिक्त पात्र लिये अत्यन्त शान्त स्वरमें बोले, ‘तुम्हें अभ्यास करना चाहिये, तुम्हें देखनेमें केवल देखना ही चाहिये, सुननेमें केवल सुनना ही चाहिये। सूने चखने और स्पर्श करनेमें केवल सूचना, चखना, स्पर्शही करना चाहिये। जाननेमें केवल जानना ही चाहिये। बाहिय! यदि तुमने ऐसा सीख लिया अर्थात् देखकर सूरकर, चखकर स्पर्शकर और जानकर उसमें लिस नहीं हो सके, आसक्ति तुम्हें स्पर्श नहीं कर की तो तुम्हारे दुःखोंका अन्त हो जायगा। जागतिक आस ही जगत्में आवद्ध करनेवाली है एवं इससे त्राण पाना हो निर्वाण है।’
‘भन्ते!’ वाहिय पुनः भगवान्के चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने अनुभव किया, भगवान्के उपदेशमात्रसे उनका चित्त उपादान (प्रापञ्चिक जगत्की आसक्ति) से रहित तथा आश्रवोंसे मुक्त हो गया। वे बोले मैं आपका आजीवन ऋणी रहूँगा। भगवान्ने मुझे मुक्तिके मूल तत्त्वका साक्षात्कार करा दिया।’
मधुर स्मितके साथ भगवान् भिक्षाटनके लिये आगे बढ़े। बाहिय उनकी ओर ललकभरे अपलक नेत्रोंसे तबतक
देखते रहे, जबतक वे दृष्टिसे ओझल नहीं हो गये। ‘भन्ते!’ एक भिक्षुने दौड़कर भिक्षाटनसे नगरके बाहर लौटते हुए भगवान् से कहा। वह हाँफ रहा था।
आगे वह नहीं बोल पाया।
‘क्या बात है ?’ भगवान्ने प्रश्न किया।
‘भन्ते ।’ कुछ स्थिर होकर उसने निवेदन किया, ‘भगवान्के धर्मोपदेशके अनन्तर लौटते हुए बाहियको एक साँड़ने अपने सॉगोंपर उठाकर जोरसे पटक दिया। बाहियका ऐहिक जीवन तत्काल समाप्त हो गया। उनका शव कुछ ही दूरपर पड़ा है।’
भगवान् उठे और दौड़ पड़े। उन्होंने बाहियके शवको देखकर एकत्र हुए भिक्षुओंसे कहा – ‘भिक्षुओंयह तुम्हारा एक सब्रह्मचारी (गुरुभाई) था। इसकी निर्जीव देहकी रथी बनाकर अग्रिमें जला दो और इसके भस्मोंपर स्तूप निर्मित कर दो।’
‘जैसी आज्ञा !’ भिक्षुओंने उत्तर दिया और बाहियके शवके अन्तिम संस्कारमें लग गये।
‘भन्ते!’ भगवान्के चरणोंके समीप बैठकर भिक्षुओंमेंसे एकने विनम्र निवेदन किया। ‘भगवान्के आदेशानुसार बाहियकी निर्जीव देह प्रज्वलित अग्रिमें भस्म कर दी गयी। उनके भस्मोंपर स्तूप उठवा दिया गया।’ कुछ क्षण रुककर उसी भिक्षुने पुनः निवेदनकिया – भगवान्से हमलोग जानना चाहते हैं कि-
बाहियकी क्या गति होगी।’ अत्यन्त शान्त एवं गम्भीर वाणीमें उन्होंने धीरे-धीरे उत्तर दिया, ‘भिक्षुओ! जब क्षीणाश्रव भिक्षु आत्म साक्षात्कार कर लेता है, तब वह रूप-अरूप तथा सुख-दुःखसे छूट जाता है। बाहियने मेरे बताये धर्मोपदेशको ठीकसे ग्रहण कर लिया था, वह निर्वाणके मार्गपर आरूढ़ हो गया था।’
भिक्षुओंकी आकृतिपर हर्ष नृत्य कर उठा। भगवान् मौन हो गये। शीतल – मन्द समीर भगवान्के चरणोंका स्पर्श करके प्रसन्नतासे नृत्य करने लगा। – शि0 दु0