यज्ञकी धूम शिखाओंसे गगन आच्छादित हो गयाः | उसकी निर्मल और स्वच्छ नीलिमामें विशेष दीप्ति अभिव्यक्त हो उठी। महाराज रथवीति दार्ध्यकी राजधानी यज्ञकर्ता ऋषियोंकी उपस्थितिसे परम पवित्र हो गयी। वे अपनी राजमहिषी और मनोरमा कन्याके साथ यज्ञवेदीके ही समीप आसनस्थ थे।
‘कितनी सुशील और लावण्यमयी कन्या है!’ अफ्रिके पुत्र ऋषि अर्चनानाने यज्ञकुण्डमें वैदिक मन्त्रों आहुति डालते हुए मनमें विचार किया। उनकी श्वेत दाढ़ीकी दुग्ध-धवलिमामें नवीन आभा लहराने लगी। उन्होंने वेद-वेदाङ्ग परत अपने पुत्र की ओर दृष्टिपात किया; ऋषिकुमारमें यौवनका निखार था, नयनोंमें सात्विकता थी, हृदयमें श्रद्धा और भक्ति थी।
‘मैं अपनी पुत्रवधूके रूपमें आपकी कन्याकी याचना करता हूँ, महाराज!’ अर्चनानाके गम्भीर भाषणसे ऋषि मण्डली चकित थी। जनता विस्मय-मग्न हो गयी।
‘यह तो आपकी बहुत बड़ी कृपा है; मेरी कन्याके लिये इससे बढ़कर सौभाग्यकी दूसरी बात क्या होगी कि यह महर्षि अत्रिके आश्रम में निवास करेगी ?” महाराज रथवीतिने अर्चनानाके प्रति श्रद्धा व्यक्त की। राजकन्याने नीची दृष्टिसे ऋषिकुमार श्यावाचको देखा, मानो वह संकेत कर रही थी कि मेरा मस्तक आपके चरणपर नत होनेके लिये समुत्सुक है।
‘पर हमारा कुल राजर्षियोंका है, हम अपनी कन्या मन्त्रदर्शी ऋषिको ही सौंप सकते हैं, महर्षे।’ राजमहिषीने प्रस्ताव अस्वीकार किया।’पिताजी! मैं अपनी कुल-योग्यता सिद्ध करनेके लिये ऋषिपद प्राप्त करूँगा; मेरे लिये राज-कन्या उतने महत्त्वकी वस्तु नहीं है, जितने महत्त्वका विषय ऋषिपद है। यह प्रधान है, वह गौण है।’ श्यावाश्वने अर्चनानाकी चरण – धूलि ली। उसका प्रण था कि बिना ऋषिपद प्राप्त किये आश्रममें न जाऊँगा। अर्चनाना चले गये। श्यावाश्च ब्रह्मचर्यपूर्वक भिक्षा माँगकर पर्यटन करने लगे।
रास्ते में महाराज विदेदश्वके पुत्र तरन्त और राजमहिषी शशीयसी तथा तरन्तके छोटे भाई पुरुमीढ़ने ऋषिकुमारका अपनी राजधानीमें स्वागत-सत्कार किया, बहुत-सी गायें दीं, अपार धन प्रदान कर श्यावाश्वकी पूजा की।
‘पर अभी तो मैंने मन्त्रका दर्शन ही नहीं किया।’ | श्यावाश्व आश्रममें न जा सका। वह वनमें विचरण कर रहा था कि उसकी सत्यनिष्ठासे प्रसन्न होकर रुद्रपुत्र मरुद्गणोंने उसको दर्शन दिया। उनकी कृपासे उसने मन्त्रदर्शी ऋषिपद प्राप्त किया। मरुद्गणोंने रुक्ममाला दी।
‘यह तो हमारे लिये परम सौभाग्यकी बात है कि मेरी कन्या आपके पौत्रकी जीवन सङ्गिनी हो रही है।’ रथसे उतरनेपर आश्रममें अत्रि ऋषिकी राजा रथवीति और राजमहिषीने पूजा की, मधुपर्क समर्पित किया। श्यावाश्व और उसकी वधूने महर्षि अत्रिकी वन्दना की। अर्चनानाका आशीर्वाद प्राप्त किया। श्यावाश्वने वेदपिता और राजकन्याने वेदमाताका पद पाया। महाराज रथवीतिने हिमालय प्रदेशमें गोमती तटपर तपस्या करनेके लिये प्रस्थान किया।
-रा0 श्री0
(बृहद्देवता अ0 5। 50-81)
यज्ञकी धूम शिखाओंसे गगन आच्छादित हो गयाः | उसकी निर्मल और स्वच्छ नीलिमामें विशेष दीप्ति अभिव्यक्त हो उठी। महाराज रथवीति दार्ध्यकी राजधानी यज्ञकर्ता ऋषियोंकी उपस्थितिसे परम पवित्र हो गयी। वे अपनी राजमहिषी और मनोरमा कन्याके साथ यज्ञवेदीके ही समीप आसनस्थ थे।
‘कितनी सुशील और लावण्यमयी कन्या है!’ अफ्रिके पुत्र ऋषि अर्चनानाने यज्ञकुण्डमें वैदिक मन्त्रों आहुति डालते हुए मनमें विचार किया। उनकी श्वेत दाढ़ीकी दुग्ध-धवलिमामें नवीन आभा लहराने लगी। उन्होंने वेद-वेदाङ्ग परत अपने पुत्र की ओर दृष्टिपात किया; ऋषिकुमारमें यौवनका निखार था, नयनोंमें सात्विकता थी, हृदयमें श्रद्धा और भक्ति थी।
‘मैं अपनी पुत्रवधूके रूपमें आपकी कन्याकी याचना करता हूँ, महाराज!’ अर्चनानाके गम्भीर भाषणसे ऋषि मण्डली चकित थी। जनता विस्मय-मग्न हो गयी।
‘यह तो आपकी बहुत बड़ी कृपा है; मेरी कन्याके लिये इससे बढ़कर सौभाग्यकी दूसरी बात क्या होगी कि यह महर्षि अत्रिके आश्रम में निवास करेगी ?” महाराज रथवीतिने अर्चनानाके प्रति श्रद्धा व्यक्त की। राजकन्याने नीची दृष्टिसे ऋषिकुमार श्यावाचको देखा, मानो वह संकेत कर रही थी कि मेरा मस्तक आपके चरणपर नत होनेके लिये समुत्सुक है।
‘पर हमारा कुल राजर्षियोंका है, हम अपनी कन्या मन्त्रदर्शी ऋषिको ही सौंप सकते हैं, महर्षे।’ राजमहिषीने प्रस्ताव अस्वीकार किया।’पिताजी! मैं अपनी कुल-योग्यता सिद्ध करनेके लिये ऋषिपद प्राप्त करूँगा; मेरे लिये राज-कन्या उतने महत्त्वकी वस्तु नहीं है, जितने महत्त्वका विषय ऋषिपद है। यह प्रधान है, वह गौण है।’ श्यावाश्वने अर्चनानाकी चरण – धूलि ली। उसका प्रण था कि बिना ऋषिपद प्राप्त किये आश्रममें न जाऊँगा। अर्चनाना चले गये। श्यावाश्च ब्रह्मचर्यपूर्वक भिक्षा माँगकर पर्यटन करने लगे।
रास्ते में महाराज विदेदश्वके पुत्र तरन्त और राजमहिषी शशीयसी तथा तरन्तके छोटे भाई पुरुमीढ़ने ऋषिकुमारका अपनी राजधानीमें स्वागत-सत्कार किया, बहुत-सी गायें दीं, अपार धन प्रदान कर श्यावाश्वकी पूजा की।
‘पर अभी तो मैंने मन्त्रका दर्शन ही नहीं किया।’ | श्यावाश्व आश्रममें न जा सका। वह वनमें विचरण कर रहा था कि उसकी सत्यनिष्ठासे प्रसन्न होकर रुद्रपुत्र मरुद्गणोंने उसको दर्शन दिया। उनकी कृपासे उसने मन्त्रदर्शी ऋषिपद प्राप्त किया। मरुद्गणोंने रुक्ममाला दी।
‘यह तो हमारे लिये परम सौभाग्यकी बात है कि मेरी कन्या आपके पौत्रकी जीवन सङ्गिनी हो रही है।’ रथसे उतरनेपर आश्रममें अत्रि ऋषिकी राजा रथवीति और राजमहिषीने पूजा की, मधुपर्क समर्पित किया। श्यावाश्व और उसकी वधूने महर्षि अत्रिकी वन्दना की। अर्चनानाका आशीर्वाद प्राप्त किया। श्यावाश्वने वेदपिता और राजकन्याने वेदमाताका पद पाया। महाराज रथवीतिने हिमालय प्रदेशमें गोमती तटपर तपस्या करनेके लिये प्रस्थान किया।
-रा0 श्री0
(बृहद्देवता अ0 5। 50-81)