राम बने या कान्हा ये प्रेम का ही रूप है

कान्हा बड़े भाव पूर्ण हो जाते है जब माता कैकयी की बात आती है…. ये आज भी उनसे अनन्य प्रेम करते है… राम रूप में भी ये सबसे अधिक प्रेम माता कैकयी से ही करते थे ये परम सत्य है…. राम को माता कौशल्या ने बनाया ही ऐसा था की मनुष्य बनने के बाद भी उनकी दिव्यता उनका देवत्व माता ने माया से छुपने नही दिया था…माया पति को माया से अलग रखा था अपनी ममता से उनका रक्षण किया था… इतनी पारदर्शी ममता थी, परिशुद्ध प्रेम की ममता… जिसमे कोई अवगुण के लिए प्रवेश ही नही था… पूर्ण पुरुषोत्तम को सर्व गुण संपन्न ही रहने दिया था….धन्य है माता कौशल्या …कान्हा की आंखे बंद हो जाती है हृदय में अपनी माता के प्रेम की लहरे उठ रही है… उसी का अनुभव करते हुए आनंदित हो रहे है…. रानियां उनकी आनंद समाधि को तोड़ना नहीं चाहती पर उनकी उत्सुकता अपनी जगह है , वो अब माता कैकयी को जानना चाहती है…. सत्यभामा उनकी समाधि को खंडित करती है…. नाथ बताइए ना माता कैकई के बारे में…????
कान्हा अपनी आंखे खोलते है मुस्कुराते हुए सत्यभामा की ओर देखते है फिर कहते है… अच्छा सुनो… जैसे मैने कहा था की माता तो बड़ी प्रेम पूर्ण थी पराक्रमी थी मुझसे अत्यधिक प्रेम करती थी… पर माता को अलग अलग रुप में अपनी भूमिका निभानी पड़ती है… एक पत्थर को सुंदर मूर्ति अगर बनाना है तो उस पर छीनी से घाव करने ही पड़ते है… वहा कठोरता दिखानी ही पड़ती है… नही तो पत्थर सुंदर रूप कैसे ले सकता है… ऐसा ही संतान भी एक बिना आकार का पत्थर होता है उसे सुंदर आकार माता पिता ही देते है… यहां आकार का अर्थ है उसके चरित्र को बनाना… रूप तो माता पिता से मिलता ही है…. रूप इतना महत्वपूर्ण नही है जितना कि चरित्र महत्वपूर्ण है… अपने संतान का रूप सवारने से अधिक महत्वपूर्ण है उसका जीवन सवारना जो पूर्णतः उसके गुण, स्वभाव उसके चरित्र पर निर्भय करता है.. ममता परिशुद्धा होनी ही चाहिए पर साथ ही साथ अनुशासित भी होनी चाहिए… जो माता अपने संतान के प्रति अधिक ममता रखती है वो उसके कल्याण के लिए उसे अनुशासन का महत्व भी सिखाती है… अब देखो संतान से हमे निस्वार्थ प्रेम होना चाहिए इसका अर्थ है की उसे पूर्णतः सक्षम बनाया जाए… उसे स्वतंत्र व्यक्तिमहत्व बनाना है तो उसे कठोरता के साथ अनुशासन सीखना… एक बार उन्होंने अनुशासन का स्वीकार कर लिया तो माता पिता को उसे कुछ भी सीखने की आवश्यकता नही होती…. पिता से अधिक मैं माता को ही मानता हूं क्यू की माता ही है जो संतानके हृदय को उसके बुद्धि को पूर्णतः जानती है… लाड़ लड़ाना अच्छी बात है पर डाट फटकार भी आवश्यक है… उचित और अनुचित का भेद उसे सीखना माता का परम कर्तव्य है…ये जीवन जीने की मर्यादाएं सिखाती है… हम सब भाईयो को भी माता कैकयी ही डाट फटकार लगती… भरत को अधिक डाटती थी माता… पर माता कैकयी के संस्कार से भरत जैसा भाई इस संसार को मिला… अपने भाई के लिए त्याग क्या होता है समर्पण क्या होता है ये संसार भरत से ही सिख सकता है …. भरत का नाम लेते से हृदय पिघल जाता है कन्हैया का…. आंखे भर आती है… भरत जैसा पुत्र होने के लिए माता कैकयी जैसी पुण्यात्मा माता होनी चाहिए…. झरझर अश्रु बहने लगते है कन्हैया के… राम बने या कान्हा ये प्रेम का ही रूप है… त्रेता युग के भाई हो या द्वापर युग में सखा सखियां इनके प्रेम में कोई भिन्नता नही है… सीता हो या श्रीराधा इनका प्रेम कभी परिवर्तित नही होता इसीलिए तो इन्हे पूर्ण अवतार श्री कृष्ण कहा जाता है….

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *