. भीलकन्या जीवंती महाराज वृषपर्वा की प्रिय सेविका थी। जीवंती की भगवान में अटूट आस्था थी और वृषपर्वा भी इस बात को जानते थे।
वह प्रभु-भक्ति में लीन रहते हुए निरंतर अपने कर्तव्यपालन में रत रहती। एक दिन महाराज वृषपर्वा ने सोचा कि ऐसा भक्तिभाव रखने वाली नारी को दासता में रखना उचित नहीं और उन्होंने उसे मुक्त करने का निर्णय ले लिया। किंतु उसे मुक्त करते समय वृषपर्वा के मन में खुशी के साथ-साथ किंचित चिंता का भाव भी था।
चिंता यह कि अब उसकी जीविका कैसे चल पाएगी। ऐसा सोचते हुए उनके मन में विचार आया कि क्यों न इस पवित्र व्यक्तित्व को राजदरबार में राजगुरु का पद दे दिया जाए। हालांकि ऐसा करना उनके लिए थोड़ा कठिन था,
क्योंकि एक भीलकन्या को राजगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होते देखना शायद राजदरबारियों को पसंद नहीं आता। वृषपर्वा इन्हीं विचारों में खोए हुए थे,
तभी जीवंती का स्वर उनके कानों में पड़ा - आप क्या सोचने लगे महाराज! मेरे जीवन की व्यवस्था के लिए आप व्यर्थ चिंतित न हों।
भगवान पर पूर्ण भरोसा ही तो भक्ति है। भक्त तो हमेशा यही भरोसा करता है कि जिसने जीवन दिया, क्या वह इतना न कर सकेगा कि उस जीवन को जीने के लिए समुचित व्यवस्था जुटा दे।
मेरी अनुभूति यही कहती है कि भगवान अवश्य ही मुझे स्वीकार कर लेंगे। जो मेरे इस कथन पर भरोसा नहीं कर पाते, समझो कि उन्होंने कभी भगवान को पुकारा ही नहीं।
कभी उन्होंने अपने आपको पूरा का पूरा उनके हाथ में सौंपा ही नहीं।" जीवंती की बातें महाराज वृषपर्वा के दिल को छू रही थीं। उसने आगे कहा - भक्ति का मार्ग अति सुगम है, परंतु उसका पहला कदम बड़ा ही कठिन है क्योंकि प्राय: सभी के मन में ऐसा ही बना रहता है कि हम अपने सूत्रधार स्वयं बने रहें। इसीलिए कई तपस्वियों का, सिद्धों, साधकों का अहंकार मरता नहीं।
बस नए-नए रूप धारण कर लेता है। कल भोगी था, अब त्यागी हो जाता है। नए मुखौटे पहन लेता है। उनके मन से यह बात मिटती नहीं कि मैं कुछ करके रहूंगा।
लेकिन भक्त तो सदा यही अनुभव करता है कि मैं ही झूठा भ्रम है। मैं हूं ही कहां? तू ही तो है तो तू ही कर!" जीवंती की ये बातें सुन महाराज वृषपर्वा को भक्ति का सार समझ में आया।