हिरण्यकशिपु जब स्वयं प्रह्लादको मारनेके लिये उद्यत हुआ और क्रोधावेशमें उसने सामनेके खंभेपर घूसा मारा तब उसी खंभेको फाड़कर नृसिंह भगवान् प्रकट हो गये और उन्होंने हिरण्यकशिपुको पकड़कर नखोंसे उसका पेट फाड़ डाला। दैत्यराजके अनुचर प्राण लेकर भाग खड़े हुए। हिरण्यकशिपुकी आँतों की माला गलेमें डाले, बार-बार जीभ लपलपाकर विकट गर्जना करते अङ्गार-नेत्र नृसिंहभगवान् बैठ गये दैत्यराजके सिंहासनपर उनका प्रचण्ड क्रोध शान्त नहीं हुआ था। शंकरजी तथा ब्रह्माजीके साथ सब देवता वहाँ पधारे। सबने अलग-अलग स्तुति की। लेकिन कोई परिणाम नहीं हुआ। ब्रह्माजी डरे कि यदि प्रभुका क्रोध शान्त न हुआ तो पता नहीं क्या अनर्थ होगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मीको भेजा; किंतु श्रीलक्ष्मीजी भी वह विकराल रूप देखते ही लौट पड़ीं। उन्होंने भी कह दिया -‘ इतना भयंकर रूप अपने आराध्यका मैंने कभी नहीं देखा। मैं उनके समीप नहीं जा सकती।’
अन्तमें ब्रह्माजीने प्रह्लादसे कहा-‘बेटा! तुम्हीं समीप जाकर भगवान्को शान्त करो।’ प्रह्लादको भय क्या होता है, यह तो ज्ञात ही नहींथा। वे सहजभावसे प्रभुके सम्मुख गये और दण्डवत प्रणिपात करते भूमिपर लोट गये। भगवान् नृसिंहने स्वयं उन्हें उठाकर गोदमें बैठा लिया और वात्सल्यके मारे जिह्वासे उनका मस्तक चाटने लगे। उन त्रिभुवन नाथने कहा—’बेटा! मुझे क्षमा कर। मेरे आनेमें बहुत देर हुई, इससे तुझे अत्यधिक कष्ट भोगना पड़ा।’
प्रह्लादने गोदसे उतरकर हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्ण गद्गद – स्वरमें प्रार्थना की। भगवान्ने कहा- ‘प्रह्लाद ! मैं प्रसन्न हूँ। तेरी जो इच्छा हो, वह वरदान माँग ले।’
प्रह्लाद बोले- ‘प्रभो! आप यह क्या कह रहे हैं? जो सेवक कुछ पानेकी आशासे स्वामीकी सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप मेरे परमोदार स्वामी हैं और मैं आपका चरणाश्रित सेवक हूँ। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दें कि मेरे मनमें कभी कोई कामना हो ही नहीं।’
भगवान् सर्वज्ञ हैं। उन्होंने ‘एवमस्तु’ कहकर भी कहा-‘प्रह्लाद ! कुछ तो माँग ले !’
प्रह्लादने सोचा- ‘प्रभु जब मुझसे बार-बार माँगनेको कहते हैं तो अवश्य मेरे मनमें कोई-न-कोई कामना है।’ अन्तमें उन्होंने प्रार्थना की- ‘नाथ ! मेरे पितानेआपकी बहुत निन्दा की है और आपके सेवक-मुझको | कष्ट दिया है। मैं चाहता हूँ कि वे इस पापसे छूटकर पवित्र हो जायँ।’
भगवान् नृसिंह हँस पड़े- ‘प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसा भक्त जिसका पुत्र हुआ वह तो स्वयं पवित्र हो गया। जिस कुलमें तुम जैसे मेरे भक्त उत्पन्न हुए, उसकुलकी तो इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं।’ अपनेको कष्ट देनेवालेकी भी दुर्गति न हो, यह एक कामना थी प्रह्लादके मनमें। धन्य है यह कामना । सच्चे भगवद्भक्तमें अपने लिये कोई कामना भला शेष कैसे रह सकती है।
श्रीमद्भागवत 7 । 9-10 )
हिरण्यकशिपु जब स्वयं प्रह्लादको मारनेके लिये उद्यत हुआ और क्रोधावेशमें उसने सामनेके खंभेपर घूसा मारा तब उसी खंभेको फाड़कर नृसिंह भगवान् प्रकट हो गये और उन्होंने हिरण्यकशिपुको पकड़कर नखोंसे उसका पेट फाड़ डाला। दैत्यराजके अनुचर प्राण लेकर भाग खड़े हुए। हिरण्यकशिपुकी आँतों की माला गलेमें डाले, बार-बार जीभ लपलपाकर विकट गर्जना करते अङ्गार-नेत्र नृसिंहभगवान् बैठ गये दैत्यराजके सिंहासनपर उनका प्रचण्ड क्रोध शान्त नहीं हुआ था। शंकरजी तथा ब्रह्माजीके साथ सब देवता वहाँ पधारे। सबने अलग-अलग स्तुति की। लेकिन कोई परिणाम नहीं हुआ। ब्रह्माजी डरे कि यदि प्रभुका क्रोध शान्त न हुआ तो पता नहीं क्या अनर्थ होगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मीको भेजा; किंतु श्रीलक्ष्मीजी भी वह विकराल रूप देखते ही लौट पड़ीं। उन्होंने भी कह दिया -‘ इतना भयंकर रूप अपने आराध्यका मैंने कभी नहीं देखा। मैं उनके समीप नहीं जा सकती।’
अन्तमें ब्रह्माजीने प्रह्लादसे कहा-‘बेटा! तुम्हीं समीप जाकर भगवान्को शान्त करो।’ प्रह्लादको भय क्या होता है, यह तो ज्ञात ही नहींथा। वे सहजभावसे प्रभुके सम्मुख गये और दण्डवत प्रणिपात करते भूमिपर लोट गये। भगवान् नृसिंहने स्वयं उन्हें उठाकर गोदमें बैठा लिया और वात्सल्यके मारे जिह्वासे उनका मस्तक चाटने लगे। उन त्रिभुवन नाथने कहा—’बेटा! मुझे क्षमा कर। मेरे आनेमें बहुत देर हुई, इससे तुझे अत्यधिक कष्ट भोगना पड़ा।’
प्रह्लादने गोदसे उतरकर हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्ण गद्गद – स्वरमें प्रार्थना की। भगवान्ने कहा- ‘प्रह्लाद ! मैं प्रसन्न हूँ। तेरी जो इच्छा हो, वह वरदान माँग ले।’
प्रह्लाद बोले- ‘प्रभो! आप यह क्या कह रहे हैं? जो सेवक कुछ पानेकी आशासे स्वामीकी सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप मेरे परमोदार स्वामी हैं और मैं आपका चरणाश्रित सेवक हूँ। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दें कि मेरे मनमें कभी कोई कामना हो ही नहीं।’
भगवान् सर्वज्ञ हैं। उन्होंने ‘एवमस्तु’ कहकर भी कहा-‘प्रह्लाद ! कुछ तो माँग ले !’
प्रह्लादने सोचा- ‘प्रभु जब मुझसे बार-बार माँगनेको कहते हैं तो अवश्य मेरे मनमें कोई-न-कोई कामना है।’ अन्तमें उन्होंने प्रार्थना की- ‘नाथ ! मेरे पितानेआपकी बहुत निन्दा की है और आपके सेवक-मुझको | कष्ट दिया है। मैं चाहता हूँ कि वे इस पापसे छूटकर पवित्र हो जायँ।’
भगवान् नृसिंह हँस पड़े- ‘प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसा भक्त जिसका पुत्र हुआ वह तो स्वयं पवित्र हो गया। जिस कुलमें तुम जैसे मेरे भक्त उत्पन्न हुए, उसकुलकी तो इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं।’ अपनेको कष्ट देनेवालेकी भी दुर्गति न हो, यह एक कामना थी प्रह्लादके मनमें। धन्य है यह कामना । सच्चे भगवद्भक्तमें अपने लिये कोई कामना भला शेष कैसे रह सकती है।
श्रीमद्भागवत 7 । 9-10 )