रैवत नाम के राजा की पुत्री का नाम है रेवती और रेवती का विवाह बलरामजी से हो गया, कृष्ण बोले- द्वारिका के राजा तो हम हो गये, बड़े भैया बलरामजी का ब्याह तो हो गया, अब हमारा ब्याह होना चाहिये, पर विवाह होवे कैसे? कोई सगाई वाला तो आता नहीं, सगाई वाला आवे कैसे? पिछे का रिकोर्ड इतना अच्छा है नहीं, देखो सज्जनों आप सत्य मत समझ लेना, हम तो ऐसे ही विनोद में कह रहे हैं, मेरे गोविन्द के विवाह के लिये कन्याओं की कमी है क्या? सोलह हजार एक सौ आठ विवाह कियें।
राजऽऽसीद् भिष्मको नाम विदर्बाधिपतिर्महान्।
तस्य पंचाभवन् पुत्राः कन्यैका च वरानना।।
कुन्दनपुर के राजा है भीष्मक, उनके पाँच पुत्र थे, रूक्मी, रूक्मरथ, रूक्मबाहु, रूक्मकेशी और रूस्भमाली, बड़े पुत्र का नाम था रूक्मी, पाँच पुत्रों के बाद भी कोई पुत्री नहीं है, मन में बड़ी बैचेनी है, बड़ी तपस्या की और सरोवर में कमल के फूल पर उन्हें एक सुंदर सी नन्ही बालिका मिल गयी, उसी का नाम है रूक्मणी, रूक्मणी ही लक्ष्मीजी है और लक्ष्मीजी किसी के गर्भ में वास नहीं करती।
लक्ष्मीजी कहां से प्रगट हुई? लक्ष्मीजी प्रगट हुई समुद्र से, वो लक्ष्मीजी जानकीजी बनी तो प्रगट हुई पृथ्वी से और वही लक्ष्मीजी रूक्मणीजी बनी तो प्रगट हुई कमल के फूल से, राजा भीष्मक ने कन्या को लाकर रानी को सौंप दिया और प्रसन्न होकर बोले- हमें पुत्री मिल गयी कितने आनन्द की बात है, रूक्मणी को पढ़ा-लिखा कर विदुषी बनाया, मन में संकल्प कर लिया कि मथुराधिपति वसुदेव के पुत्र कृष्ण से ही विवाह करेंगे।
आजकल कृष्ण द्वारिका में आ गये, लेकिन कभी-कभी घर में क्या होता है? जब पुत्र बड़ा हो जाता है और माता-पिता की बात नहीं मानता, बड़े पुत्र रूक्मी ने शिशुपाल से सगाई कर दी रूक्मणी की ओर पिताजी से बोला- पिताजी, परसों स्वयंवर होगा, बड़े-बड़े राजकुमार आयेंगे लेकिन आप रूक्मणी से कह दे वो शिशुपाल के गले में ही वर माला डाले, स्वयंवर तो नाटक के लिये होगा, मैंने शिशुपाल को वचन दिया है।
रूक्मणीजी को जब पता चला कि भैया ने मेरा विवाह शिशुपाल से होना निश्चित किया है, रूक्मणीजी अपनी भाभी के पास आयीं और रोती हुई भाभी से बोलीं- भाभी मैंने तो बचपन से द्वारिकाधीश को पति माना है, भाई ने सगाई शिशुपाल से कर दी, भाभी कहती हैं- मन छोटा क्यों करती हो? एक पत्र लिख दो द्वारिकाधीश के पास, भगवान् श्रीकृष्ण को भी स्वयंवर में आमन्त्रित करो, कृष्ण स्वयंवर में आ जाये तो सबके सामने वरमाला डाल देना।
रूक्मणीजी ने पत्र लिखा और ये पत्र पंडितजी द्वारा द्वारिकापुरी भेजा, पण्डितजी द्वारिकाधीश के पास पहुंचे और रूक्मणी का पत्र दिया और कहां- प्रभु में सुदेव हूं, भिष्मक की पुत्री रूक्मणी ने आपके लिये पत्र भेजा है, प्रभु ने कहा पढ़ो, आपके किसी लड़की का पत्र आवें तो दुसरों को थोड़े ही पढने दोगे, पर धन्य हो श्री कृष्ण को सुदेव से कहा तुम्ही पढ़ो, बहुत सुन्दर बात श्लोकों में रूक्मणीजी ने पत्र लिखा।
रूक्मणीजी बड़ी विदुषी थी उसने सोचा सम्बोधन क्या करू? इनको में मन ही मन पति मान चुकी हूंँ, नाम तो ले नहीं सकती, क्योंकि पहले कि स्त्रीयां अपने पति का नाम नहीं लेती थी, नहीं लिखती थी, आज भी गांवों में रिवाज है पति अपने पत्नी का और पत्नी अपने पति का, पति कहता है ओ सुनती हो और पत्नी कहती है ओ सुनते हो, इसी में काम हो जाता है, कोडवर्ड कितना अच्छा की पति बीस लोगों में बैठे हो और पत्नी कहेगी ओ सुनते हो, तो वो ही सुनेगा दुसरा नहीं कहेगा हां आया।
पति-पत्नी को नाम आपस में लेना भी नहीं चाहिये, ये पति-पत्नी आपस में नाम लेते हैं तो बड़ा अजीब सा लगता है, ऐसे लगता है जैसे भाई-बहन बात कर रहे हैं क्या? एक मैया से मैंनें पूछ लिया- मैया आप पति का नाम क्यों नहीं लेती? मैया ने कहा- बेटा, पति का नाम लेने से पति की उम्र कम हो जाती है, इसलिये पत्नी को पति का नाम नहीं लेना चाहिये, पति को भी पत्नी का नाम नहीं लेना चाहिये।
मैंने कहा- लेकिन जानकीजी तो लेती थीं, जब जानकीजी का हरण कर दुष्ट रावण ले गया, तो अशोक वाटिका में जानकीजी कहती थीं- हे रघुवर, हे श्रीरामजी कहाँ हो? ऐसा बोलती थीं, मैया मुझसे बोली- पति यदि दूर हो तो नाम ले सकती है, पास में हो तो नहीं लेना चाहिये, एक जगह का प्रसंग हैँ- एक मैया रोज कथा सुनने जाती थीं, कथावाचक बीच-बीच में कीर्तन कराते थे, “कालियमर्दन कंस निकंदन, देवकीनन्दन तव शरणं” अब सब लोग कीर्तन बोले, लेकिन आगे बैठी हुई मैया कीर्तन नहीं बोले, क्योंकि उसके पति का नाम था देवकीनंदन।
अब वो मैया क्या करे? कीर्तन बोले तो उसमें पति का नाम आता है और नहीं बोले तो पाप लगता है, मैया बेचारी कालियमर्दन, कंस निकंदन तो बोल लेती लेकिन देवकीनंदन बोले ही नहीं, दूसरे दिन उसने सोचा, शायद व्यासजी आज दूसरा कीर्तन करायेंगे लेकिन फिर वहीं कीर्तन, तीसरे दिन भी वही कीर्तन, मैया बोली- व्यासजी भी रोज वही कीर्तन कराते हैं, जिसमें मेरे उनका नाम आता है, लेकिन कल तो कीर्तन करना ही है, होगी सो देखी जायेगी।
बेटी का नाम था चम्पा, कथा में जाती हुई अपनी बेटी चम्पा से कहती गई बेटी चम्पा तेरे पिताजी आवे तब भोजन करा देना, यों कह कर कथा में चली गई, महाराज ने फिर वो ही कीर्तन कराया- “कालियमर्दन कंस निकंदन, देवकीनन्दन तव शरणं” माता ने आज निश्चय कर लिया था कि कीर्तन पुरा बोलना है, मैया बोली- “कालियमर्दन कंस निकंदन, चम्पा के पापा तव शरणं” देखो, कीर्तन भी हो गया, लय भी नहीं बिगड़ी और पति का नाम भी नहीं आया, कीर्तन नहीं बोलने का पाप भी नहीं लगा।
भाय कुभाय अनख आलसहु।
नाम जपत मंगल दिसि दसहु।।
कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा के कीर्तन में कुछ उल्टा-सीधा भी हो जाये तो दोष नहीं लगता, कितना सुन्दर पत्र लिखती है रूक्मणीजी, सात श्लोकों में पत्र लिखा, सात ही श्लोक क्यों लिखे? क्योंकि विवाह में सात फेरे होते हैं, इसलिये साथ श्लोक लिखे।