श्री द्वारिकाधीश* भाग – 4*

आप सर्वज्ञ हैं और सर्वसमर्थ हैं’- ब्राह्मण ने कहा ‘मैं विदर्भराज-दुहिता का संदेशवाहक बनकर आया हूँ। उनके ही शब्दों में सुना देता हूँ’
‘भुवन सुन्दर! आपके चरणों के अनुरागी महामुनि यदा कदा इस राजसदन को भी अपनी चरणरेणु से पवित्र करने आ जाते हैं। उनके श्रीमुख से आपके गुणों का वर्णन कर्ण मार्ग से हृदय में जाकर समस्त ताप-हरण कर लेता है। आपका रूप तो नेत्रवानों के नेत्र मिलने का परम लाभ है- यह सुनकर मेरा चित्त निर्लज्ज होकर आप में प्रविष्ट हो गया। मुकुन्द! महान कुल में उत्पन्न, रूप, शील, विद्या, वय, धन आदि में अपने तुल्य आपका वरण कौन-सी कन्या करने योग्य समय आने पर नहीं करेंगी। नरश्रेष्ठ! आपका तो भुवनाभिराम हो। मुझे तो वरण का यह अवसर ही नहीं मिला, मैंने कहाँ स्वयम्वर में आकर आपका वरण करना अस्वीकार किया था।’

‘मैंने तो अपने आपको आपके चरणों में उत्सर्ग कर दिया। मैं आपकी हो गयी। अब आप इसे स्वीकृति देकर सनाथ करें। मैं आपका वीरभाग हूँ- केशरी के इस भाग को शिशुपालादि दूसरे शृगाल स्पर्श करें- यह आपके लिये शोभास्पद नहीं होगा।मैंने पूर्त, इष्ट, दान, नियम, व्रत, देव तथा विप्रपूजन किया हो- आप परात्पर प्रभु की आराधना की हो तो आप गदाग्रज ही आकर मेरा पाणिग्रहण करें। दूसरा कोई इस कर का स्पर्श न कर सके।अजित परसों ही मेरा विवाह है। आप यादव महासेना से रक्षित होकर पधारें विदर्भ, और जरासन्ध, शिशुपालादि की सेना को रौंदकर मुझे ले जायें। मैं अब पराक्रम के मूल्य से ही मिलने वाली हो गयी हूँ।’
‘आप कह सकते हैं कि तुम अन्तःपुर में रहती हो। तुम्हारे बंधु-बान्धवों को मारे बिना तुमको कैसे लाया जा सकता है?- इसका उपाय बतला देती हूँ कि हमारे कुल में विवाह से पहिले दिन कुलदेवी के पूजनार्थ कन्या को नगर से बाहर देवी-मन्दिर जाना पड़ता है।’

‘कमलनयन! भगवान शशांक शेखर भी आपकी चरणरज में स्नान करने की कामना करते हैं जैसे वे भी इससे निर्मल होना चाहते हों। ऐसे आपकी कृपा यदि मुझे न मिली इस जन्म में तो मैं अनशन करके देहत्याग कर दूँगी। भले ही सैकड़ों जन्म इसी प्रकार मरना पड़े- आपके श्रीचरणों का आश्रय ही इस किंकरी का स्थान बनेगा।’

ब्राह्मण ने कहा- ‘राजपुत्री का यह संदेश गुप्त है। वे दृढ़ संकल्प हैं। पवित्र हैं। अब आप ही इस पर विचार करके जो उचित हो, करें।’ श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े। उन्होंने ब्राह्मण का हाथ पकड़ लिया- ‘मेरा चित्त भी राजकुमारी में आसक्त है। मुझे उनके चिन्तन में रात्रि में निद्रा नहीं आती। यह भी जानता हूँ कि द्वेष के कारण रुक्मी ने मेरा विवाह रोक दिया। राजकुमारी अग्निशिखा के समान पवित्र हैं। मैं उन अपनी परायणा को तुच्छ राजाओं को कुचलकर ले आऊँगा।’

‘देव राजकन्या को परसों ही देव-पूजन करने राजसदन से निकलना है’-  ब्राह्मण ने स्मरण दिलाया, ‘उसके अगले दिन विवाह है। मुझे मार्ग में बहुत समय लगा है। यद्यपि मैं बिना रात्रि-विश्राम के कहीं रुका नहीं हूँ।’
‘आप चिंता न करें’ -ब्राह्मण को आश्वासन दिया श्रीकृष्णचन्द्र ने और दारुक को बुलवाया- ‘हम प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में चल देंगे। रथ में मेरे सब शस्त्र रख लेने हैं।’
ब्राह्मण मौन बने रहे। लेकिन बहुत चकित- गरुड़ नहीं, सेना नहीं, दूसरा कोई साथ नहीं लेना- सामर्थ्य इसका नाम है। सर्वसमर्थ अश्वों से जाना चाहते हैं तो भी उनके लिए दूरी का क्या अर्थ है।

ब्राह्मण ने ब्रह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में ही स्नान किया। संक्षिप्त सन्ध्या कर ली।श्रीद्वारिकाधीश उनसे पहिले प्रस्तुत हो गये। ब्राह्मण को उन्होंने अपने साथ रथ पर बैठाया और दारुक ने रथ को हाँक दिया।

शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक- चारों श्यामकर्ण, चारों दिव्य अश्व और वे गरुड़ध्वज दिव्य रथ को लेकर मानो उड़े जा रहे थे। ब्राह्मण को लगा कि वह किसी आकाशगामी विमान पर बैठा है। उसे आशा तो दूर, कल्पना भी नहीं थी कि रथ भी इतना तीव्रगामी हो सकता है। उसने नेत्र बन्द कर लिये, क्योंकि वायु के वेगमान झौंके उसके नेत्र सहन नहीं कर पाते थे।

चमत्कार श्रीकृष्ण का रथ नहीं था। चमत्कार तो आगे होना था। प्रातःकाल श्रीसंकर्षण पिता के गृह में माता-पिता की पद-वन्दना करने पहुँचे। वहाँ उन्हें प्रतिदिन श्रीकृष्ण मिल जाते थे। आज वे क्यों नहीं आये? यहाँ नहीं आये तो गये कहाँ? श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारपाल ने बतलाया- ‘प्रभु ने जाते-जाते कहा है कि वे कुण्डिनपुर जा रहे हैं। वहाँ से कल कोई विप्र आये थे। उनको भी साथ ले गये, दारुक ने रात्रि को ही रथ शस्त्र-सज्जित कर दिया था।’

‘कुण्डिनपुर’  भगवान संकर्षण चौंके। वहाँ से ब्राह्मण विवाह का निमन्त्रण लेकर आता तो ऐसे चुपचाप जाना क्यों होता? कुण्डिनपुर जाने का एक ही प्रयोजन संभव है- राजकुमारी का हरण और तब वहाँ युद्ध अनिवार्य है। रुक्मी का द्वेष है यादवों से और वह अकेला भी दुर्जय योद्धा है।श्री कृष्ण उस राजकन्या को सम्भालेंगे या युद्ध करेंगे? भगवान बलराम के अधरों से उसी समय शंख लग गया और सेना का आह्वान करने के स्वर में गूँजने लगा। दो क्षण में तो द्वारिका युद्ध-भेरी के घनघोष, योद्धाओं के हुँकार से भर उठी।

‘कौन आया? किसने धृष्टता की?’ महासेनापति अनाधृष्ट, सात्यकि, कृतवर्मा, गद आदि तत्काल अपने रथों पर पहुँचे। यादव-वीरों को सज्जित होने में थोड़ी भी देर नहीं हुई। गज, रथ, अश्व, और पैदल- सम्पूर्ण चतुरंगिणी सेना अस्त्र-शस्त्र सन्नद्ध नगर से बाहर आ गयी। महासेनापति को भी पता नहीं विपक्ष कौन है, कहाँ है। लेकिन भगवान संकर्षण रथारूढ़ पहुँचे और उन्होंने सबको सम्बोधित किया- ‘श्रीकृष्ण प्रभात में ही निकल पड़े हैं। वे विदर्भ गये हैं। ‘विदर्भ-कुण्डिनपुर- वहाँ से उस अपूर्ण स्वयंवर में जाकर लौटना सबको बहुत अपमानजनक लगा था। सब ने तभी निश्चय किया था- ‘विदर्भ-राजादुहिता महारानी होंगी भगवान वासुदेव की। उनका परिणय दूसरे से होने दिया नहीं जा सकता।’

इस समाचार ने सब में उत्साह भर दिया। सब प्रस्तुत-युद्ध-प्रस्तुत क्योंकि वहाँ युद्ध तो अनिवार्य है और भगवान वासुदेव वहाँ गये हैं तो इस बार केवल स्वागत लेने तो गये नहीं।’
‘श्रीकृष्ण अकेले गये हैं। पूरे वेग से गया है उनका गरुड़ध्वज रथ। हमारा वहाँ पहुँचना व्यर्थ हो जायेगा यदि हम उनसे पीछे पहुँचते हैं।’ श्रीसंकर्षण, छोटे भाई को युद्ध करना पड़ेगा अकेले, इस सम्भावना से ही आवेश में आ गये थे।
क्रमशः

जय श्रीराधे कृष्णा

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