देवराज इन्द्र अपनी देवसभामें श्रेणिक नामके राजाके साधु-स्वभावकी प्रशंसा कर रहे थे। उस प्रशंसाको सुनकर एक देवताके मनमें राजाकी परीक्षा लेनेकी इच्छा हुई। देवता पृथ्वीपर आये और राजा जिस मार्गसे नगरमें आ रहे थे बाहरसे घूमकर, उस मार्ग में साधुका वेश बनाकर एक तालाबपर बैठकर मछली मारनेका ढोंग करने लगे। राजा उधरसे निकले तो साधुको यह विपरीत
आचरण करते देख बोले- ‘अरे! आप यह क्या अपकर्म कर रहे हैं ?’
साधुने कहा—’राजन्! मैं धर्म-अधर्मकी बात नहीं
जानता। मछली मारकर उन्हें बेचूँगा और प्राप्त धनसेजाड़ोंके लिये एक कम्बल खरीदूँगा ।’
‘आप कोई जन्म-मरणके चक्रमें भटकनेवाले प्राणियोंमेंसे ही जान पड़ते हैं।’ इतना कहकर राजा अपने मार्गसे चले गये।
देवता स्वर्ग लौट आये। पूछनेपर उन्होंने देवराजसे कहा – ‘सचमुच वह राजा साधु है। समत्वमें उसकी बुद्धि स्थित है। पापी, असदाचारीकी निन्दा करना तथा उससे घृणा करना उसने छोड़ दिया है; इसका अर्थ ही है कि उसे अपने सत्कर्मपर गर्व नहीं है।’
क्रियाहीनं कुसाधुं च दृष्ट्वा चित्ते न यश्चलेत् ।
तेषां दृढं तु सम्यक्त्वं धर्मे श्रेणिकभूपवत् ॥
– सु0 सिं0
Devraj Indra was praising the ascetic nature of a king named Shrenik in his assembly. Hearing that praise, a god had a desire to test the king. The deities came to the earth and went around the road by which the king was coming to the city, disguised as a monk, sat on a pond and pretended to be fishing. If the king comes out from there, it is opposite to the sages.
Seeing his conduct, he said- ‘Hey! What wrongdoing are you doing?’
The monk said – ‘ Rajan! i don’t talk about religion
knows. I will sell them after killing fish and buy a blanket for the winters with the money received.
‘You seem to be one of the creatures wandering in the cycle of birth and death.’ Having said this, the king went on his way.
The gods returned to heaven. On asking, he said to Devraj – ‘Truly that king is a monk. His wisdom is situated in equanimity. He has given up condemning and hating the sinful, the evildoer; It only means that he is not proud of his good deed.
Kriyahinam Kusadhun ca drishtva chitte na yashchlet.
तेशां धर्दं तु सम्यक्त्वं धर्मे श्रेनिकभूपवत् ॥