देवता और दैत्योंने मिलकर अमृतके लिये समुद्र मन्थन किया और अमृत निकला भी; किंतु भगवान् नारायणके कृपापात्र होनेसे केवल देवता ही अमृत पान कर सके। दैत्य छले गये, उन्हें परिश्रम ही हाथ लगा। परिणाम तो देवासुर संग्राम होना ही था। उसमें भी अमृत पानसे अमर बने देवता ही विजयी हुए। दैत्यराज बलि तो युद्धमें मारे ही गये थे; किंतु आचार्य शुक्रने बलि तथा युद्धमें मरे अन्य दैत्योंको भी अपनी संजीवनी विद्यासे जीवित कर लिया। बलि अपने अनुचरोंके साथ अस्ताचल चले गये।
अपनी सेवासे बलिने आचार्य शुक्रको प्रसन्न कर लिया। आचार्यने एक यज्ञ कराया। यज्ञकुण्डसे प्रकट होकर अग्रिने बलिको दिव्य रथ, अक्षय त्रोण तथा अन्य शस्त्र दिये। अब फिर बलिने स्वर्गपर चढ़ाई कर दी। इस बार बलिका तेज इतना दुर्धर्ष था कि देवराज इन्द्र उन्हें देखते ही हताश हो गये। देवगुरु बृहस्पतिने भीदेवताओंको चुपचाप भागकर पर्वतीय गुफाओंमें छिप जानेका आदेश दिया। अमरावतीपर बिना अधिकार कर लिया। युद्ध बलिने ‘स्वर्गके सिंहासनपर वही स्थिर रह सकता है, जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किये हों। कोई भी कर्म तभी फल देता है, जब वह कर्मभूमि पृथ्वीपर किया गया हो। स्वर्गमें किये गये कर्म कोई फल नहीं देते। तुमने स्वर्गपर अधिकार कर लिया है; किंतु यह अधिकार बना रहे, इसके लिये सौ अश्वमेध यज्ञ तुम्हें पूरे कर लेने चाहिये।’ आचार्य शुक्रने बलिको समझाया। बलिने तो अक्षरशः आचार्यकी आज्ञाके पालनका ही इधर व्रत ले लिया था। पृथ्वीपर नर्मदाके पवित्र तटपर उनका यज्ञ मण्डप बना और एकके बाद दूसरा अश्वमेध यज्ञ वे करने लगे। निन्यानबे अश्वमेध यज्ञ निर्विघ्र पूरे हो गये। अन्तिम अश्वमेध भी प्रारम्भ हो गया।उधर देवमाता अदिति अपने गृहहीन पुत्रोंके दुःखसे अत्यन्त दुखी थीं। उन्होंने अपने पतिदेव महर्षि कश्यपसे प्रार्थना की- ‘ऐसा कोई उपाय बताने की कृपा करें, जिससे मेरे पुत्रोंकी विपत्ति दूर हो जाय।’
महर्षिने पयोव्रत करके भगवान्की आराधना करनेका आदेश दिया। अदितिने बड़ी श्रद्धा और तत्परतासे वह व्रत पूरा किया। उनकी आराधनासे संतुष्ट होकर भगवान् नारायणने उन्हें दर्शन दिया। भगवान्ने कहा-देवि ! जो धर्मकी रक्षा करता है, धर्म सदा उसकी रक्षा करता है जो धर्मात्मा है और धर्मज्ञ आचायोंके आदेशपर चलता है, वह मेरे लिये भी अजेय है। उसके साथ बलप्रयोग करके कोई विजयी नहीं हो सकता। लेकिन मेरी उपासना व्यर्थ नहीं जाती। मैं तुम्हारे पुत्र रूपमें अवतार लूंगा और देवताओंको उनका स्वर्ग युक्तिपूर्वक दिलाऊँगा।’
वरदान देकर भगवान् अन्तर्हित हो गये। अदिति के गर्भसे उन्होंने वामनरूपमें अवतार धारण किया। महर्षि कश्यपने ऋषियोंके साथ वामनजीका संस्कार कराया। यज्ञोपवीत संस्कार हो जानेपर वामन बलिकी यज्ञशालाको ओर चल पड़े। खड़ाऊँ पहिने, कटिमें मेखला बाँधे, छत्ता लगाये, दण्ड और जलभरा कमण्डलु लिये, ब्रह्मचारी वेशमें वामन साक्षात् सूर्यके समान तेजस्वी लगते थे।
दैत्यराज बलिका अन्तिम अश्वमेध यज्ञ भी पूर्णाहुतिके निकट ही था। यज्ञशालाके द्वारपर मूर्तिमान् मार्तण्डके समान जब वामन पहुँचे, तब उनके सम्मानमें सभी ऋत्विज् दैत्यराज बलि एवं अन्य सदस्य खड़े हो गये। बलिने बड़े आदरसे उन्हें उच्चासनपर बैठाया। उनके चरण धोकर उनकी पूजा की। अन्तमें नम्रतापूर्वक बलिने हाथ जोड़कर कहा- आप ब्रह्मचारी ब्राह्मणकुमार हैं। आपके पधारनेसे में धन्य हो गया। अब आप जिस उद्देश्यसे आये हैं, वह बतानेकी कृपा करें। जो कुछ आप माँगना चाहें, माँग लें।’
भगवान् वामनने दैत्यकुलके औदार्यकी प्रशंसा की, दानवीरोंकी चर्चा की और बलिको दानशीलताको भी प्रशंसा की। इतना करके उन्होंने कहा- ‘मुझे अपने पैरोंसे तीन पद भूमि चाहिये।’
बलि हँस पड़े और बोले-‘विप्रकुमार! आप विद्वान् हैं, किंतु हैं तो बालक हो। अरे, भूमि ही माँगनीहै तो इतनी भूमि तो माँग लो, जिससे तुम्हारी आजीविका चल जाय।’
परंतु जिसे तीनों लोक चाहिये, वह आजीविका मात्रके लिये भूमि क्यों ले। बड़ी गम्भीरतासे वामन बोले- ‘राजन् ! तृष्णा बहुत बुरी होती है। यदि मैं तीन पद भूमिसे संतुष्ट न होऊँ तो तृष्णा तो राज्य चाहेगी, फिर राज्यको कामना बढ़कर पूरा भूमण्डलकी माँग करेगी और आप जानते ही हैं कि तृष्णाकी तृप्ति तो आपका त्रिलोकीका राज्य पाकर भी नहीं होती। तृष्णा जाग्रत् करके आपने कुछ अच्छा नहीं किया। मुझे तो आप मेरे पैरोंसे नपी तीन पद भूमि दे दें-मेरे लिये इतना ही बहुत है।’
‘अच्छी बात! जैसे आप प्रसन्न रहें।’ बलिने हँसकर संकल्प करनेके लिये पत्नीसे जलपात्र माँगा। परंतु इतनेमें शुक्राचार्य वामनजीको पहचान गये थे। उन्होंने अपने शिष्यको डाँटा’ मूर्ख! क्या करने जा रहा है? ये नन्हे से ब्राह्मणकुमार नहीं हैं। इस वेधमें तेरे सामने ये साक्षात् मायामय विष्णु खड़े हैं। ये अपने एक पदमें भूलोक और दूसरेमें स्वर्गादि लोक नाम लेंगे। तीसरा पद रखनेको स्थान छोड़ेंगे ही नहीं। सर्वस्व इन्हें देकर तू कहाँ रहेगा? इन्हें हाथ जोड़ और कह दे कि देवता! कोई और यजमान ढूंढ़ो मुझपर तो कृपा ही करो।’
“ये साक्षात् विष्णु हैं!’ बलि भी चौंके। अपने आचार्यपर अविश्वास करनेका कारण नहीं था। मस्तक झुकाकर दो क्षण उन्होंने सोचा और तब उस महामनस्वीने सिर उठाया भगवन्! आप इतने बड़े-बड़े यज्ञोंसे मेरे द्वारा जिन यज्ञमूर्ति विष्णुकी आराधना कराते हैं, वे साक्षात् विष्णु ये हों या और कोई मैं तो भूमि देनेको कह चुका प्रह्लादका पौत्र ‘हाँ’ करके कृपणकी भाँति अस्वीकार कर दे, यह नहीं हो सकता। मेरा कुछ भी हो जाय, द्वारपर आये ब्राह्मणको में शक्ति रहते विमुख नहीं करूँगा।’
शुक्राचार्यको क्रोध आ गया। उन्होंने रोषपूर्वक कहा-‘तू मेरी बात नहीं मानता, अपनेको और पण्डित समझता है इससे तेरा वैभव तत्काल नष्ट हो जायगा।’ बड़ा धर्मात्मा
बलिने मस्तक झुकाकर गुरुदेवका शाप स्वीकार कर लिया किंतु अपना निशय नहीं छोड़ा। जल लेकरउन्होंने वामनको तीन पद भूमि देनेका संकल्प कर दिया। भूमिदान लेते ही वामनभगवान्ने विराट्रूप धारण कर लिया। एक पदमें पूरी भूमि उन्होंने नाप ली और दूसरा पद उठाया तो उसके अङ्गुष्ठका नख ब्रह्माण्डावरणको भेदकर बाहर चला गया। अब भगवान्ने बलिसे कहा—’तू बड़ा दानवीर बनता था। मुझे तूने तीन पद भूमि दी है। दो पदमें ही तेरा त्रिलोकीका राज्य पूरा हो गया। अब तीसरे पदको रखनेका स्थान बता ।’
बलिने मस्तक झुकाकर कहा- ‘सम्पत्तिसे सम्पत्तिका स्वामी बड़ा होता है। आप तीसरा पद मेरे मस्तकपर रखें और अपना दान पूर्णतः ले लें।’भगवान्ने तीसरा पद बलिके मस्तकपर रखकर उन्हें धन्य कर दिया । इन्द्रको स्वर्ग प्राप्त हुआ। स्वयं वामनभगवान् उपेन्द्र बने इन्द्रकी रक्षाके लिये; किंतु बलिको तो उन्होंने अपने-आपको ही दे दिया। स्वर्गसे भी अधिक ऐश्वर्यमय सुतललोक प्रभुने बलिको निवासके लिये दिया। अगले मन्वन्तरमें बलि इन्द्र बनेंगे, यह आश्वासन दिया। इससे भी आगे यह वरदान दिया कि वे अखिलेश्वर स्वयं हाथमें गदा लिये सदा सुतलमें बलिके द्वारपर उपस्थित रहेंगे। इस प्रकार छले जाकर भी बलि विजयी ही रहे और दयामय प्रभु उनके द्वारपाल बन गये।
-सु0 सिं0
(श्रीमद्भागवत 8 । 15-23)
देवता और दैत्योंने मिलकर अमृतके लिये समुद्र मन्थन किया और अमृत निकला भी; किंतु भगवान् नारायणके कृपापात्र होनेसे केवल देवता ही अमृत पान कर सके। दैत्य छले गये, उन्हें परिश्रम ही हाथ लगा। परिणाम तो देवासुर संग्राम होना ही था। उसमें भी अमृत पानसे अमर बने देवता ही विजयी हुए। दैत्यराज बलि तो युद्धमें मारे ही गये थे; किंतु आचार्य शुक्रने बलि तथा युद्धमें मरे अन्य दैत्योंको भी अपनी संजीवनी विद्यासे जीवित कर लिया। बलि अपने अनुचरोंके साथ अस्ताचल चले गये।
अपनी सेवासे बलिने आचार्य शुक्रको प्रसन्न कर लिया। आचार्यने एक यज्ञ कराया। यज्ञकुण्डसे प्रकट होकर अग्रिने बलिको दिव्य रथ, अक्षय त्रोण तथा अन्य शस्त्र दिये। अब फिर बलिने स्वर्गपर चढ़ाई कर दी। इस बार बलिका तेज इतना दुर्धर्ष था कि देवराज इन्द्र उन्हें देखते ही हताश हो गये। देवगुरु बृहस्पतिने भीदेवताओंको चुपचाप भागकर पर्वतीय गुफाओंमें छिप जानेका आदेश दिया। अमरावतीपर बिना अधिकार कर लिया। युद्ध बलिने ‘स्वर्गके सिंहासनपर वही स्थिर रह सकता है, जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किये हों। कोई भी कर्म तभी फल देता है, जब वह कर्मभूमि पृथ्वीपर किया गया हो। स्वर्गमें किये गये कर्म कोई फल नहीं देते। तुमने स्वर्गपर अधिकार कर लिया है; किंतु यह अधिकार बना रहे, इसके लिये सौ अश्वमेध यज्ञ तुम्हें पूरे कर लेने चाहिये।’ आचार्य शुक्रने बलिको समझाया। बलिने तो अक्षरशः आचार्यकी आज्ञाके पालनका ही इधर व्रत ले लिया था। पृथ्वीपर नर्मदाके पवित्र तटपर उनका यज्ञ मण्डप बना और एकके बाद दूसरा अश्वमेध यज्ञ वे करने लगे। निन्यानबे अश्वमेध यज्ञ निर्विघ्र पूरे हो गये। अन्तिम अश्वमेध भी प्रारम्भ हो गया।उधर देवमाता अदिति अपने गृहहीन पुत्रोंके दुःखसे अत्यन्त दुखी थीं। उन्होंने अपने पतिदेव महर्षि कश्यपसे प्रार्थना की- ‘ऐसा कोई उपाय बताने की कृपा करें, जिससे मेरे पुत्रोंकी विपत्ति दूर हो जाय।’
महर्षिने पयोव्रत करके भगवान्की आराधना करनेका आदेश दिया। अदितिने बड़ी श्रद्धा और तत्परतासे वह व्रत पूरा किया। उनकी आराधनासे संतुष्ट होकर भगवान् नारायणने उन्हें दर्शन दिया। भगवान्ने कहा-देवि ! जो धर्मकी रक्षा करता है, धर्म सदा उसकी रक्षा करता है जो धर्मात्मा है और धर्मज्ञ आचायोंके आदेशपर चलता है, वह मेरे लिये भी अजेय है। उसके साथ बलप्रयोग करके कोई विजयी नहीं हो सकता। लेकिन मेरी उपासना व्यर्थ नहीं जाती। मैं तुम्हारे पुत्र रूपमें अवतार लूंगा और देवताओंको उनका स्वर्ग युक्तिपूर्वक दिलाऊँगा।’
वरदान देकर भगवान् अन्तर्हित हो गये। अदिति के गर्भसे उन्होंने वामनरूपमें अवतार धारण किया। महर्षि कश्यपने ऋषियोंके साथ वामनजीका संस्कार कराया। यज्ञोपवीत संस्कार हो जानेपर वामन बलिकी यज्ञशालाको ओर चल पड़े। खड़ाऊँ पहिने, कटिमें मेखला बाँधे, छत्ता लगाये, दण्ड और जलभरा कमण्डलु लिये, ब्रह्मचारी वेशमें वामन साक्षात् सूर्यके समान तेजस्वी लगते थे।
दैत्यराज बलिका अन्तिम अश्वमेध यज्ञ भी पूर्णाहुतिके निकट ही था। यज्ञशालाके द्वारपर मूर्तिमान् मार्तण्डके समान जब वामन पहुँचे, तब उनके सम्मानमें सभी ऋत्विज् दैत्यराज बलि एवं अन्य सदस्य खड़े हो गये। बलिने बड़े आदरसे उन्हें उच्चासनपर बैठाया। उनके चरण धोकर उनकी पूजा की। अन्तमें नम्रतापूर्वक बलिने हाथ जोड़कर कहा- आप ब्रह्मचारी ब्राह्मणकुमार हैं। आपके पधारनेसे में धन्य हो गया। अब आप जिस उद्देश्यसे आये हैं, वह बतानेकी कृपा करें। जो कुछ आप माँगना चाहें, माँग लें।’
भगवान् वामनने दैत्यकुलके औदार्यकी प्रशंसा की, दानवीरोंकी चर्चा की और बलिको दानशीलताको भी प्रशंसा की। इतना करके उन्होंने कहा- ‘मुझे अपने पैरोंसे तीन पद भूमि चाहिये।’
बलि हँस पड़े और बोले-‘विप्रकुमार! आप विद्वान् हैं, किंतु हैं तो बालक हो। अरे, भूमि ही माँगनीहै तो इतनी भूमि तो माँग लो, जिससे तुम्हारी आजीविका चल जाय।’
परंतु जिसे तीनों लोक चाहिये, वह आजीविका मात्रके लिये भूमि क्यों ले। बड़ी गम्भीरतासे वामन बोले- ‘राजन् ! तृष्णा बहुत बुरी होती है। यदि मैं तीन पद भूमिसे संतुष्ट न होऊँ तो तृष्णा तो राज्य चाहेगी, फिर राज्यको कामना बढ़कर पूरा भूमण्डलकी माँग करेगी और आप जानते ही हैं कि तृष्णाकी तृप्ति तो आपका त्रिलोकीका राज्य पाकर भी नहीं होती। तृष्णा जाग्रत् करके आपने कुछ अच्छा नहीं किया। मुझे तो आप मेरे पैरोंसे नपी तीन पद भूमि दे दें-मेरे लिये इतना ही बहुत है।’
‘अच्छी बात! जैसे आप प्रसन्न रहें।’ बलिने हँसकर संकल्प करनेके लिये पत्नीसे जलपात्र माँगा। परंतु इतनेमें शुक्राचार्य वामनजीको पहचान गये थे। उन्होंने अपने शिष्यको डाँटा’ मूर्ख! क्या करने जा रहा है? ये नन्हे से ब्राह्मणकुमार नहीं हैं। इस वेधमें तेरे सामने ये साक्षात् मायामय विष्णु खड़े हैं। ये अपने एक पदमें भूलोक और दूसरेमें स्वर्गादि लोक नाम लेंगे। तीसरा पद रखनेको स्थान छोड़ेंगे ही नहीं। सर्वस्व इन्हें देकर तू कहाँ रहेगा? इन्हें हाथ जोड़ और कह दे कि देवता! कोई और यजमान ढूंढ़ो मुझपर तो कृपा ही करो।’
“ये साक्षात् विष्णु हैं!’ बलि भी चौंके। अपने आचार्यपर अविश्वास करनेका कारण नहीं था। मस्तक झुकाकर दो क्षण उन्होंने सोचा और तब उस महामनस्वीने सिर उठाया भगवन्! आप इतने बड़े-बड़े यज्ञोंसे मेरे द्वारा जिन यज्ञमूर्ति विष्णुकी आराधना कराते हैं, वे साक्षात् विष्णु ये हों या और कोई मैं तो भूमि देनेको कह चुका प्रह्लादका पौत्र ‘हाँ’ करके कृपणकी भाँति अस्वीकार कर दे, यह नहीं हो सकता। मेरा कुछ भी हो जाय, द्वारपर आये ब्राह्मणको में शक्ति रहते विमुख नहीं करूँगा।’
शुक्राचार्यको क्रोध आ गया। उन्होंने रोषपूर्वक कहा-‘तू मेरी बात नहीं मानता, अपनेको और पण्डित समझता है इससे तेरा वैभव तत्काल नष्ट हो जायगा।’ बड़ा धर्मात्मा
बलिने मस्तक झुकाकर गुरुदेवका शाप स्वीकार कर लिया किंतु अपना निशय नहीं छोड़ा। जल लेकरउन्होंने वामनको तीन पद भूमि देनेका संकल्प कर दिया। भूमिदान लेते ही वामनभगवान्ने विराट्रूप धारण कर लिया। एक पदमें पूरी भूमि उन्होंने नाप ली और दूसरा पद उठाया तो उसके अङ्गुष्ठका नख ब्रह्माण्डावरणको भेदकर बाहर चला गया। अब भगवान्ने बलिसे कहा—’तू बड़ा दानवीर बनता था। मुझे तूने तीन पद भूमि दी है। दो पदमें ही तेरा त्रिलोकीका राज्य पूरा हो गया। अब तीसरे पदको रखनेका स्थान बता ।’
बलिने मस्तक झुकाकर कहा- ‘सम्पत्तिसे सम्पत्तिका स्वामी बड़ा होता है। आप तीसरा पद मेरे मस्तकपर रखें और अपना दान पूर्णतः ले लें।’भगवान्ने तीसरा पद बलिके मस्तकपर रखकर उन्हें धन्य कर दिया । इन्द्रको स्वर्ग प्राप्त हुआ। स्वयं वामनभगवान् उपेन्द्र बने इन्द्रकी रक्षाके लिये; किंतु बलिको तो उन्होंने अपने-आपको ही दे दिया। स्वर्गसे भी अधिक ऐश्वर्यमय सुतललोक प्रभुने बलिको निवासके लिये दिया। अगले मन्वन्तरमें बलि इन्द्र बनेंगे, यह आश्वासन दिया। इससे भी आगे यह वरदान दिया कि वे अखिलेश्वर स्वयं हाथमें गदा लिये सदा सुतलमें बलिके द्वारपर उपस्थित रहेंगे। इस प्रकार छले जाकर भी बलि विजयी ही रहे और दयामय प्रभु उनके द्वारपाल बन गये।
-सु0 सिं0
(श्रीमद्भागवत 8 । 15-23)