श्रीराधाके भक्तोंको एक दिव्य रूप प्राप्त होता है। उसीसे वे उनके दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। भक्त श्रीनिवासजी भी श्रीराधाके भक्त थे। अतः उनको वह रूप प्राप्त था। वे प्रतिदिन भगवान्का ध्यान करते थे। एक दिन वे इस तरह ध्यान कर रहे थे कि राधाकुण्डमें श्रीराधा-कृष्ण सब सखियोंके साथ विहार कर रहे हैं। इसी समय श्रीराधाका एक कुण्डल जलमें गिर गया। श्रीराधाजीने उनको उसे ढूँढ़कर लानेकी आज्ञा दी, वे उसको ढूँढ़ने लगे । वहाँका तो एक मिनट बीता, पर यहाँके सात दिन बीत चुके थे। उनके घरवाले सबघबरा गये। अन्तमें उन सबोंने उनके एक मित्र रामचन्द्रजीको बुलाया। उनको भी दिव्य रूप प्राप्त था। वे जान गये कि श्रीनिवासजी इस समय कहाँ हैं। उन्होंने भी कुण्डल ढूँढ़ना आरम्भ कर दिया। कुण्डल एक दिव्य कमलके नीचे पड़ा था। रामचन्द्रजीने उसे लेकर श्रीनिवासजीके हाथमें दे दिया। वे उसे श्रीराधाको दे आये। श्रीराधाने अपने मुँहका आधा पान श्रीनिवासजी तथा आधा श्रीरामचन्द्रजीको दे दिया। इधर उनकी आँखें खुलीं और उन्होंने अपने मुँहको उस दिव्य पानसे भरा हुआ पाया।
The devotees of Shriradha get a divine form. By that they can get his darshan. Devotee Shrinivasji was also a devotee of Shriradha. That’s why he got that form. He used to meditate on God everyday. One day they were meditating in such a way that Shriradha-Krishna were enjoying with all their friends in Radhakund. At the same time, a coil of Shriradha fell into the water. Shriradhaji ordered them to find him and bring him, they started searching for him. A minute had passed there, but seven days had passed here. His family members all got scared. At last they all called one of their friend Ramchandraji. He too had a divine form. They came to know where Shrinivasji is at this time. He also started searching for the coil. The coil was lying under a divine lotus. Ramchandraji took it and handed it over to Shrinivasji. They gave it to Shriradha. Shriradha gave half of his mouth to Shrinivasji and half to Shriramchandraji. Here his eyes opened and he found his mouth full of that divine drink.