विक्रमीय दसवीं शताब्दीकी बात है । — एक दिन काश्मीर-नरेश महाराज यशस्करदेव अपनी राजसभा बैठकर किसी गम्भीर विषयका चिन्तन कर रहे थे कि प्रायोपवेशन-अधिकारीने सूचना दी कि एक व्यक्ति राजद्वारपर प्राणत्याग करनेके लिये प्रस्तुत है। महाराज विस्मित हो उठे; उनके राज्यमें प्रजा सुखी, स्वस्थ और सम्पन्न थी। कहीं चोरीका भय नहीं था, लोग धर्मपर आरूढ़ थे, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सत्यपरक आचरण होता था। महाराजने तत्क्षण उस व्यक्तिको सभा भवनमें बुलाया।
‘किसी दस्यु या अनार्यने तुम्हारे यज्ञ-कर्ममें विघ्न तो नहीं उपस्थित किया? ऐसा तो नहीं है कि किसी राजकर्मचारीने अनजानमें तुम्हारे प्रति अनागरिकताका बर्ताव किया हो ?’ महाराज उत्तरकी प्रतीक्षा कर रहे थे।’भगवती वितस्ता (झेलम) की पवित्र जलधारासे लालित आपके विशाल राज्यमें मुझे किसीसे भय नहीं है। मेरे साथ राज्यके न्यायाधीशोंने अन्यायका व्यवहार किया है; मैंने उनसे सब कुछ सत्य कहा, पर उन्होंने मेरे धनी शत्रुके पक्षमें ही निर्णय दिया।’ व्यक्तिने अपने प्राण त्यागका कारण बताया।
‘बात क्या है ? स्पष्ट कहो, नागरिक! मैंने कभी न्यायका भाव गिरने नहीं दिया। मुझपर महाराजने आश्वासन दिया। विश्वास रखो।’
‘मैं पहले आपकी ही राजधानीमें रहता था। मेरे पास अपार सम्पत्ति थी, पर अलक्ष्मीके प्रकोपसे मैंने दरिद्र होकर उसे बेच दिया। घरतक बेच डाला, पत्नीकी जीविकाके लिये मकानके सोपानके पासका कूप छोड़ दिया था। गर्मीमें उसपर माली बैठकर फूल बेचा करते थे और कुछ पैसे मेरी पत्नीको भी मिल जाते थे। मैं रुपया कमाने विदेश चला गया तो मकान खरीदनेवालेने मेरी पत्नीको बलपूर्वक कूपपरसे हटा दिया। वह मजदूरी करने लगी- लौटनेपर मैंने न्यायालयका दरवाजा खटखटाया तो उसने मेरे सत्यकी उपेक्षा कर दी।’ नागरिकने स्पष्ट किया।
‘हमलोगोंने सोच-समझकर निर्णय किया है, महाराज!’ न्यायाधीशोंने अपना पक्ष दृढ़ किया। सभाभवनमें श्रेष्ठ नागरिक उपस्थित थे। जिसने मकान खरीदा था, वह भी था। महाराज धर्म-सिंहासनपर विराजमान थे। नागरिक कीमती अँगूठी पहने हुए थे। महाराज। कौतूहलसे उनकी अंगूठियाँ हाथमें लेकर परीक्षण कर रहे थे। मकान खरीदनेवाले व्यक्तिकी अंगूठी हाथमें आते ही महाराज लोगोंको बैठे रहनेका आदेश देकर बाहर आ गये। उस मुद्रिकाको सेठके घर | भेजकर महाराजने सेवकसे उसके बदलेमें वह वही मँगायी, जिसमें मकानके विक्रय पत्रका विवरण लिखा था. उन्होंने उसको पढ़ा।
वे बही लेकर धर्म-सिंहासनपर बैठ गये। महाराजने न्यायाधीशोंको समझाया कि विक्रय पत्रके अधिकरण | शुल्क में सेठने राजलेखकको एक हजार दीनार दिये हैं। यह बात समझमें नहीं आती कि एक साधारण कामके लिये इतना धन क्यों व्यय किया गया। मुझे ऐसा लगता है कि लेखकने उत्कोच (घूस) पाकर ‘सोपान कूपरहित मकान’ के स्थानपर ‘सोपान-कूपसहित मकान’ लिख दिया है। सभामें सन्नाटा छा गया। महाराज यशस्करदेवके आदेशसे न्यायालयके लेखकको सभाभवनमें उपस्थित होना पड़ा। वह लज्जित था। ‘महाराज न्यायका खून मैंने किया है। ‘रहित’ के बदले सहित मैंने ही लिखा था।’ लेखकने प्रमाणित किया।
‘सोपान, कूप, मकान—सब कुछ नागरिकका है।’ महाराजने न्यायको धोखा देनेके अपराधमें मकान खरीदनेवालेको आजीवन देश-निर्वासनका दण्ड दिया।
नागरिकके सत्याग्रहने विजय प्राप्त की। न्यायने
सत्यकी पहचान की। —रा0 श्री0 (राजतरङ्गिणी)
विक्रमीय दसवीं शताब्दीकी बात है । — एक दिन काश्मीर-नरेश महाराज यशस्करदेव अपनी राजसभा बैठकर किसी गम्भीर विषयका चिन्तन कर रहे थे कि प्रायोपवेशन-अधिकारीने सूचना दी कि एक व्यक्ति राजद्वारपर प्राणत्याग करनेके लिये प्रस्तुत है। महाराज विस्मित हो उठे; उनके राज्यमें प्रजा सुखी, स्वस्थ और सम्पन्न थी। कहीं चोरीका भय नहीं था, लोग धर्मपर आरूढ़ थे, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सत्यपरक आचरण होता था। महाराजने तत्क्षण उस व्यक्तिको सभा भवनमें बुलाया।
‘किसी दस्यु या अनार्यने तुम्हारे यज्ञ-कर्ममें विघ्न तो नहीं उपस्थित किया? ऐसा तो नहीं है कि किसी राजकर्मचारीने अनजानमें तुम्हारे प्रति अनागरिकताका बर्ताव किया हो ?’ महाराज उत्तरकी प्रतीक्षा कर रहे थे।’भगवती वितस्ता (झेलम) की पवित्र जलधारासे लालित आपके विशाल राज्यमें मुझे किसीसे भय नहीं है। मेरे साथ राज्यके न्यायाधीशोंने अन्यायका व्यवहार किया है; मैंने उनसे सब कुछ सत्य कहा, पर उन्होंने मेरे धनी शत्रुके पक्षमें ही निर्णय दिया।’ व्यक्तिने अपने प्राण त्यागका कारण बताया।
‘बात क्या है ? स्पष्ट कहो, नागरिक! मैंने कभी न्यायका भाव गिरने नहीं दिया। मुझपर महाराजने आश्वासन दिया। विश्वास रखो।’
‘मैं पहले आपकी ही राजधानीमें रहता था। मेरे पास अपार सम्पत्ति थी, पर अलक्ष्मीके प्रकोपसे मैंने दरिद्र होकर उसे बेच दिया। घरतक बेच डाला, पत्नीकी जीविकाके लिये मकानके सोपानके पासका कूप छोड़ दिया था। गर्मीमें उसपर माली बैठकर फूल बेचा करते थे और कुछ पैसे मेरी पत्नीको भी मिल जाते थे। मैं रुपया कमाने विदेश चला गया तो मकान खरीदनेवालेने मेरी पत्नीको बलपूर्वक कूपपरसे हटा दिया। वह मजदूरी करने लगी- लौटनेपर मैंने न्यायालयका दरवाजा खटखटाया तो उसने मेरे सत्यकी उपेक्षा कर दी।’ नागरिकने स्पष्ट किया।
‘हमलोगोंने सोच-समझकर निर्णय किया है, महाराज!’ न्यायाधीशोंने अपना पक्ष दृढ़ किया। सभाभवनमें श्रेष्ठ नागरिक उपस्थित थे। जिसने मकान खरीदा था, वह भी था। महाराज धर्म-सिंहासनपर विराजमान थे। नागरिक कीमती अँगूठी पहने हुए थे। महाराज। कौतूहलसे उनकी अंगूठियाँ हाथमें लेकर परीक्षण कर रहे थे। मकान खरीदनेवाले व्यक्तिकी अंगूठी हाथमें आते ही महाराज लोगोंको बैठे रहनेका आदेश देकर बाहर आ गये। उस मुद्रिकाको सेठके घर | भेजकर महाराजने सेवकसे उसके बदलेमें वह वही मँगायी, जिसमें मकानके विक्रय पत्रका विवरण लिखा था. उन्होंने उसको पढ़ा।
वे बही लेकर धर्म-सिंहासनपर बैठ गये। महाराजने न्यायाधीशोंको समझाया कि विक्रय पत्रके अधिकरण | शुल्क में सेठने राजलेखकको एक हजार दीनार दिये हैं। यह बात समझमें नहीं आती कि एक साधारण कामके लिये इतना धन क्यों व्यय किया गया। मुझे ऐसा लगता है कि लेखकने उत्कोच (घूस) पाकर ‘सोपान कूपरहित मकान’ के स्थानपर ‘सोपान-कूपसहित मकान’ लिख दिया है। सभामें सन्नाटा छा गया। महाराज यशस्करदेवके आदेशसे न्यायालयके लेखकको सभाभवनमें उपस्थित होना पड़ा। वह लज्जित था। ‘महाराज न्यायका खून मैंने किया है। ‘रहित’ के बदले सहित मैंने ही लिखा था।’ लेखकने प्रमाणित किया।
‘सोपान, कूप, मकान—सब कुछ नागरिकका है।’ महाराजने न्यायको धोखा देनेके अपराधमें मकान खरीदनेवालेको आजीवन देश-निर्वासनका दण्ड दिया।
नागरिकके सत्याग्रहने विजय प्राप्त की। न्यायने
सत्यकी पहचान की। —रा0 श्री0 (राजतरङ्गिणी)