ईष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण


।। श्री: कृपा ।
पूज्य “सद्गुरुदेव जी ने कहा – अंतःकरण की परिशुद्धि में आहार शुचिता आवश्यक है। वस्तुत: वैचारिक शुभता-श्रेष्ठता व ईष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण ही मनुष्य को श्रेष्ठता के शुभग शिखरों पर प्रतिस्थापित करते हैं, अत: सत्कर्मों का निरन्तर अभ्यास रहे ..! आहार-विहार, वैचारिक-शुचिता और सात्विकता द्वारा आरोग्यता एवं जीवन सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहें। ऐसा आहार लें जिससे मन वशीभूत हो सके, आत्मपुष्टि हो सके। आहार की शुचिता के प्रति जाग्रति रहे। आहार की शुचिता व्यवहार कौशल आध्यात्मिक साधना के आरम्भिक प्रयत्न हैं। पवित्र विचार और शुभ-संकल्प का स्रोत शुद्ध आहार ही है। “आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि, सत्व शुद्धो ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिर्लब्धे सर्वग्रन्थीनाँ प्रियमोक्षः”॥ अर्थात्, आहार के शुद्ध होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है, अन्तःकरण के शुद्ध होने से बुद्धि निश्छल होती है और बुद्धि के निर्मल होने से सब संशय और भ्रम जाते रहते हैं तथा तब मुक्ति का मार्ग सुलभ हो जाता है। जो व्यक्ति शरीर के साथ अपने मन, विचार, भावना व संकल्प को भी शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल रखना चाहता हो, उसे राजसिक व तामसिक आहार का त्याग कर सात्विक आहार ग्रहण करना चाहिए। आहार के बाद विहार का क्रम आता है। विहार अर्थात् रहन-सहन। इसे इन्द्रिय संयम भी कह सकते हैं। इसके अंतर्गत कामेन्द्रिय ही प्रधान है। योग साधना के दौरान इसकी निग्रह, शुचिता एवं पवित्रता अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा इसी कार्य को सिद्ध किया जाता है। इन्द्रिय संयम के अंतर्गत वाणी का संयम भी अभीष्ट है। साधना काल में वाणी का न्यूनतम एवं आवश्यक उपयोग ही किया जाये व व्यवहार को भी संयत रखा जाये। निन्दा, चुगली एवं वाद-विवाद से सर्वथा बचना चाहिए। जहाँ ऐसे प्रसंग चल रहे हों वहाँ से उठकर अन्यत्र चले जाना ही उचित है। अवाँछनीय दृश्य एवं प्रसंगों से स्वयं को सर्वथा दूर ही रखना चाहिए है। इस प्रकार आहार की तरह विहार में भी अधिकाधिक सात्विकता एवं पवित्रता का समावेश किया जाना चाहिए …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – विचार स्पष्टता और चिन्तन की प्रखरता स्वाध्याय के परिणाम हैं। सत्संग और सन्त-सानिध्य सर्वथा कल्याणकारक और दुःखहर्ता है। संयम, सेवा, स्वाध्याय, सत्संग, साधना और स्वात्मोत्थान के द्वारा परम सत्य को जाना जा सकता है। मानवी-जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने के लिये सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना और इसे जीवन में उतारना अत्यन्त आवश्यक है। मनुष्य-जीवन का सच्चा मार्गदर्शक एवं आत्मा का भोजन है – स्वाध्याय। स्वाध्याय से जीवन को आदर्श बनाने की सत्प्रेरणा स्वतः मिलती है। स्वाध्याय हमारे चिन्तन में सही विचारों का समावेश करके चरित्र-निर्माण करने में सहायक बनता है, साथ ही ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर भी कराता है। स्वाध्याय स्वर्ग का द्वार और मुक्ति का सोपान है। संसार में जितने भी महापुरुष, वैज्ञानिक, सन्त-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि हुए हैं, उन्होंने स्वाध्याय से ही प्रगति की है। स्वाध्याय का अर्थ – ‘स्व का अध्ययन’ है। स्व का अध्ययन कराने में सबसे सहायक माध्यम हैं – सत्साहित्य एवं वेद-उपनिषद्, गीता, आर्ष-ग्रन्थ तथा महापुरुषों के जीवन-वृत्तान्तों का अध्ययन आदि। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि सन्त-सत्पुरुषों के विचार से, ज्ञान से अथवा अध्ययन से आपको सुखानुभूति प्राप्त होगी। साधना की पहली सीढ़ी या पहला कदम तप है। सन्त के दर्शन का अर्थ तप की प्रेरणा है, क्योंकि जब वे तप करते हैं तब उन्हें पता है कि कैसे, किसको और किस रूप में ढालना है? वे इस संसार को नियंत्रित करते हैं। जिस तरीके से ऊँट को नियंत्रित किया जाता है – नकेल से; घोड़े को नियंत्रित किया जाता है – लगाम से और हाथी को महावत नियंत्रित करता है – अंकुश से। ठीक उसी तरह जब हमारा मन अति अभिमानी, अति असंयमशील, भ्रष्ट और भ्रम के ताने-बाने में उलझ जाऐ, तब ‘तप’ सबसे बड़ा शस्त्र है। पहला तप, आहार-विहार की शुचिता से मिलता है।

जिस साधक के पास आहार-विहार की शुचिता नहीं, वह साधना नहीं कर सकता। साधु-सन्तों के पास आहार-विहार की बड़ी शुचिता होती है। उनका भोजन ग्रहण, मनन, चिन्तन, कथन और श्रवण बड़ा संयत होता है। तभी तो दर्शन की चरम स्थिति पर पहुँचे ऋषि-मुनियों ने जगत के पदार्थों का विश्‍लेषण कर इन्हें परिवर्तनशील और क्षणभंगुर बताया हैं। उन्होनें समूची सत्ता को मिथ्या कहा है, जहाँ वेदों में भी इस बात का विवरण मिलता है। सत्य तो सिर्फ यही है – “ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या”। जब मानव मन स्वप्न के विकारों से अथवा दूषित सपनों से मुक्त हो जाता है, तभी उसे मुक्ति मिलती है और यह मुक्ति आपको मिलेगी – एकान्त शैली से; जिसमें जगा हुआ साधक एकान्त के इस पल को ध्यान, जप, भजन एवं प्रभु स्मरण में लगाता है …।




, Sri: Please. Respected “Sadgurudev ji said – Cleanliness of diet is essential in the purification of the conscience. In fact, complete dedication towards ideological auspiciousness-superiority and God only places a man on the auspicious heights of excellence, so, there should be continuous practice of good deeds..! Strive for health and success in life through diet, thought-cleanliness and truthfulness. Take such a diet that can subdue the mind, self-affirmation. Be aware of the cleanliness of the diet. Pure food is the source of pure thoughts and auspicious thoughts. Smritirlabdhe sarvagranthinam priyamaksha: That is, the purity of the diet leads to the purification of the heart, the purity of the heart makes the intellect flawless and the purity of the intellect removes all doubts and illusions and then the path of liberation becomes accessible. The person who wants to keep his mind, thoughts, feelings and thoughts pure, pure and pure along with the body, he should give up the rajasic and tamasic diet and take satvik diet. After the diet comes the order of Vihara. Vihara means living. – Tolerance. It can also be called sensory restraint. Under this, the sexual organs are the main ones. Its control, purity and purity are essential during yoga practice. This work is accomplished through the vow of celibacy. Restraint of speech under sensory restraint It is also desired. In the Sadhana period, the minimum and necessary use of speech should be done and the behavior should also be kept restrained. Criticism, backbiting and debate should be avoided completely. One should completely keep oneself away from undesirable scenes and events. In this way, like diet, more and more sattvikta and purity should be included in Vihar….

Respected “Acharyashree” ji said – clarity of thought and intensity of thinking are the results of self-study. Satsang and company of saints are very beneficial and remover of sorrow. The ultimate truth can be known through self-restraint, service, self-study, satsang, spiritual practice and self-evolution. In order to make human life better and better, it is very necessary to study the scriptures and bring them into life. Self-study is the true guide of human life and the food of the soul. Self-study automatically gives the inspiration to make life ideal. Self-study helps in character-building by including right thoughts in our thinking, and also leads us towards God-realization. Self-study is the door to heaven and the step to salvation. All the great men, scientists, saint-mahatma, sage-maharishi etc. who have been in the world, have progressed through self-study. The meaning of Swadhyaya is ‘study of self’. The most helpful mediums in studying the self are – study of scriptures and Vedas-Upanishads, Gita, Arsh-Granth and life-stories of great men etc. Respected “Acharyashree” ji said that you will get pleasure from the thought, knowledge or study of saints and good men. The first step or the first step of spiritual practice is penance. The meaning of seeing a saint is the inspiration of penance, because when he does penance then he knows how, whom and in what form to mold? They control this world. The method by which the camel is controlled – by the reins; The horse is controlled by the reins and the mahout controls the elephant by the reins. In the same way, when our mind is very proud, very incontinent, corrupt and entangled in the web of illusion, then ‘Tapa’ is the biggest weapon. The first austerity comes from the purity of diet.

The seeker who does not have the purity of diet, he cannot do meditation. Sages and Saints have great purity in their diet. His food intake, meditation, thinking, speech and hearing are very restrained. That’s why sages and sages who have reached the pinnacle of philosophy have analyzed the things of the world and described them as changeable and transitory. They have called the entire power false, where the details of this are found in the Vedas as well. Truth is only this – “Brahm Satya and Jagad Mithya”. When the human mind is freed from the disorders of the dream or from the polluted dreams, then only it gets freedom and you will get this freedom – by solitary style; In which the awakened seeker spends this moment of solitude in meditation, chanting, bhajan and remembering the Lord….

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