रक्षा बंधन शुभकामनाएंमेरी बेटी किसी की बहू

कहानी लम्बी है ,अंत तक पढ़ेंगे तो रचना के मनोभावों को महसूस अवश्य करें

इस बार मायके आई हुई ईरा बहुत ख़ुश और उत्साह से भरी हुई थी. राखी पर तो वह लगभग हर साल मायके आती है और भाई दूज पर अपनी ननदों को अपने घर बुलाती है. इस तरह वो भी ख़ुश, उसके पति और ननदें भी ख़ुश.

राखी का त्योहार उसे बचपन से ही विशेष प्रिय रहा है. छोटी-सी थी जब पिताजी की गोद में चढ़कर राखी ख़रीदने बाज़ार जाती थी और ढेर सारी दुकानें ढूंढ़कर एक बहुत बड़ी-सी रंग-बिरंगी फूल-पत्तियोंवाली राखी ख़रीदती थी. अपना सारा प्यार वह राखी के आकार के साथ भइया की कलाई पर बांध देना चाहती थी. तब यही लगता था कि जितनी बड़ी राखी होगी, भइया को लगेगा कि ईरा उनसे उतना ही अधिक प्यार करती है. गोया राखी न हो, बहन के प्यार का नाप हो. तभी ईरा बाज़ार से सबसे बड़ी राखी छांटकर लाती थी और भइया था कि ‘इत्ती बड़ी राखी’ को देखकर मुंह बिचकाता, “ये क्या उठा लाई है? मेरे सारे दोस्त फिर शाम को मुझ पर हंसते हैं. कोई छोटी राखी नहीं मिली इसे?”

तब मां बहुत समझा-बुझाकर उसे शांत करतीं, “अरे, अभी छोटी है इसलिए. थोड़ी समझदार हो जाएगी, तब थोड़े ही इतनी बड़ी राखी बांधेगी.”

ईरा को अब भी याद है स्पंज के फूलों की परतों पर रंग-बिरंगी पन्नियों और चमकीले सितारे लगे वो पांच रुपयेवाली राखियां. कितना नेह भरा होता था उनमें. दूसरे दिन ईरा भइया के नहाने से पहले वो राखी उनकी कलाई से उतरवा लेती थी और फिर वह राखी उसके निजी ख़ज़ाने में जमा हो जाती थी. सालभर तक वह उसे संभालकर रखती. कभी अपनी कलाई पर बांधकर ख़ुश होती, तो कभी माथे पर रखकर अपने रूप पर ख़ुद ही रीझ जाती, मानो कहीं की महारानी हो.

प्यार के रेशमी धागों में बंधता-लिपटता बचपन फिर सयानेपन की ओर बढ़ चला. भइया उसकी राखी पूरे साल अपने हाथ पर बांधे रखता, तो अब राखी की सुंदरता की जगह उसकी मज़बूती प्रमुख हो गई. लेकिन रिश्ते वैसे ही सुंदर बने रहे, जैसे वो बचपन की राखी सुंदर हुआ करती थी. भाभी के आने के बाद उस राखी में मज़बूती का एक धागा और सुंदरता का एक नग और जुड़ गया.

और इस बार तो लता बुआ भी आ रही हैं राखी पर, तो सोने पे सुहागा. कितने बरस हो गए बुआ से मिले. बचपन में कितना खेली है वो बुआ की गोद में. मां की तरह ही बुआ ने उसे संभाला था. वो 10 बरस की थी जब बुआ की शादी हो गई थी. कितना रोई थी तब ईरा, तबीयत ख़राब कर ली थी उसने अपनी. बुआ मायके कम ही आती थीं. एक तो वैसे भी मायका मां से होता है और दादी तो ईरा के जन्म के कुछ वर्ष बाद चल बसी थीं.

दादाजी तो और भी पहले चले गए थे. विवाह होते ही मां पर एक मानसिक दबाव हमेशा ही बना रहा था कि बुआ के विवाह की ज़िम्मेदारी एक अनचाहे बोझ की तरह उन्हें ही उठानी है. जैसे-तैसे उन्हें पढ़ा-लिखाकर उनका विवाह करके मानो मां ने चैन की सांस ली और पल्ला झटक लिया. कभी राखी, भाई दूज पर उन्हें बुलाने की बात भी नहीं उठाने देतीं घर में. भइया के विवाह पर बुआ आई थीं कुछ दिनों के लिए बस. लेकिन ईरा को हर छुट्टियों में बुआ बहुत आग्रह से अपने घर

बुलवातीं और उतने ही प्यार से रखतीं. उनके स्वयं के बच्चे हो जाने के बाद भी ईरा के प्रति उनके प्यार में किंचित मात्र फ़र्क़ नहीं आया था.

ईरा जब समझदार हुई, तब से उसे मां का व्यवहार कचोटने लगा. बुआ का क्या कभी मन नहीं करता होगा मायके, अपने जन्म स्थान आने का? अपने बच्चों को मामा के घर भेजने का? ससुराल में जब सब उनसे मायके जाने के बारे में पूछते होंगे, तब कैसा लगता होगा बुआ को. इसलिए उसने इस बार पिताजी पर बहुत दबाव बनाया और ख़ुद भी मां से बहुत आग्रहपूर्वक बुआ को राखी पर बुलाने को राज़ी किया. मां को पता नहीं क्यों हर बार इस बात का डर लगा रहता कि बुआ को बुलाया, तो उन्हें लेना-देना पड़ेगा. पहले ही उनके ब्याह का ख़र्च मां को ही करना पड़ा है और अब तीज-त्योहार पर फिर ख़र्चा. ईरा को मां की छोटी सोच और मानसिकता पर दुख होता, लेकिन कुछ बोल नहीं पाती. मां कैसे रिश्तों को पैसों में तोल पाती हैं, वो भी एक बेटी के उसके मायके के साथ रिश्ते को…

बुआ के आने में अभी एक दिन बाकी था. ईरा ने भाभी को रसोईघर में खाना और मिठाइयां बनवाने में पूरी मदद की, ताकि भाभी पर काम का अतिरिक्त बोझ न पड़े और उनके साथ ईरा समय भी व्यतीत कर ले. दोनों हंसी-मज़ाक और बातें कर रही थीं. मां हर थोड़ी देर बाद किसी-न-किसी बहाने से उसे आवाज़ देकर बुला रही थीं. ईरा समझ गई कि मां नहीं चाहती हैं कि वह रसोई में भाभी की मदद करे. ईरा को कोफ़्त हो आई मां की सोच पर. मां की मंशा समझकर भाभी का भी मुंह उतर गया. पर ईरा ने मां की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वो भाभी के साथ काम करवाती रही.

दोपहर में खाने वगैरह से फुर्सत पाकर ईरा फिर आराम से मां के पास बैठी.

“तुझे क्या ज़रूरत है खटने की. दो दिन के लिए ही तो आई है. ईशिता कर लेती काम.” मां ने छूटते ही डांट लगाई.

“तो क्या हुआ मां दोनों ने मिलकर किया, तो काम भी जल्दी निबट गया. थोड़ा आराम भाभी भी कर लेंगी. इसी बहाने ननद-भाभी थोड़ी गपशप भी कर लेती हैं.” ईरा बोली.

“अरे, तुझे घर में तो खटना ही पड़ता है और यहां भी…” मां आगे कुछ बोलतीं, इससे पहले ही ईरा बोल पड़ी-

“ओ मां! अपने घर के कामों को, ज़िम्मेदारियों को खटना नहीं कहते और अगर तुम अपनी बेटी के लिए ऐसी सोच रखती हो, तो फिर एक बार ये भी सोचो कि भाभी भी इस घर के लिए तुम्हारे हिसाब से ‘खट’ ही रही हैं. तुम्हारे मन में भाभी के लिए कभी हमदर्दी क्यों नहीं जागती? तुम्हें कभी उनके लिए यह क्यों नहीं लगता कि वह बेचारी भी ‘खट’ रही है इस घर में. बेटियां काम करें, तो मांओं को लगता है कि बेचारी खट रही है, लेकिन बहू कितना भी काम करे, तो सास को वह हमेशा ़फुर्सत में ही बैठी लगती है. कहेंगी- यह तो उसका काम ही है. औरतों में बैठी इस सास और मां के अलग-अलग होने के कारण ही रिश्ते तनावपूर्ण हो जाते हैं. जिस दिन औरत निष्पक्ष रूप से स़िर्फ ‘स्त्री’ होकर ‘स्त्री’ को देखेगी, उस दिन दुनिया की सारी बहुएं, बेटियां, भाभियां और ननदें सुखी हो जाएंगी.”

मां अवाक् होकर सुनती रह गईं. उन्हें ईरा से ऐेसे प्रत्युत्तर की कतई आशा नहीं थी. उस समय उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा.

शाम को भी घर के काम निबटाने में ईरा ने भाभी की मदद की और फिर उन्हें साथ लेकर बाज़ार चली गई और सबके लिए ढेर सारे उपहार ख़रीद लाई. मां, बुआ, भाभी के लिए साड़ियां, पापा और भइया के लिए कुर्ता-पायजामा,

रिंकी-ऋषि के लिए कपड़े, खिलौने, मिठाइयां. पिताजी और भाई-भाभी पास ही थे, इसलिए मां उस समय तो कुछ नहीं बोलीं, लेकिन ईरा मां के चेहरे के भाव देखकर समझ गई कि उनको बुआ के लिए भी समान क़ीमत की साड़ी लाना अच्छा नहीं लगा है. लेकिन ईरा इस बार कुछ ठानकर ही मायके आई थी. तीन साल हो गए उसकी शादी को, वह हक़ से अपने मायके आती है, तो बुआ क्यों नहीं?

ईरा आई थी, तो पिताजी बाहर तख़्त पर सो जाते थे और ईरा कमरे में मां के साथ. रात के खाने-पीने से निबटकर थोड़ी देर सबने बैठकर बातें की, फिर सब सोने चले गए. मां और ईरा भी अपने कमरे में आ गईं. आते ही मां ने अंदर से कुंडी लगा दी. फिर उन्होंने अपना लॉकर खोला और एक बड़ी-सी थैली निकालकर पलंग पर बैठ गईं. थैली खोलकर मां ने उसमें से कई छोटे-बड़े डिब्बे-डिब्बियां निकालीं. ईरा को पता था कि इसमें मां का सारा सोने-चांदी का सामान रखा था. मां ने दो जड़ाऊ कंगन बाहर निकाले. ईरा पहचान गई, यह उसकी दादी के कंगन थे. दोनों कंगन मिलाकर कम-से-कम 15 तोले के होंगे.

“मैं चाहती हूं कि अब ये कंगन तू रख ले.” मां ने ईरा के हाथों में कंगन थमाते हुए कहा, “इससे पहले की कोई और इन्हें झपट ले…”

“मगर क्यों मां? ये कंगन तो दादी के हैं न?” ईरा चौंककर बोली.

मगर तब तक मां थैली में दूसरी चीज़ें ढूंढ़ने लगीं और साथ ही मां का बड़बड़ाना भी शुरू हो गया.

“ब्याह करने के बाद भी चैन नहीं है. उम्रभर इनके तीज-त्योहारों पर भी घर भरते रहो. ब्याह कर दिया भाई ने तब भी पिंड नहीं छूटा. अब भी मुक्ति नहीं है हमें. मां-बाबूजी ख़ुद तो चले गए, लेकिन हमें बांध दिया इस जंजाल में. घर पर बुलाकर इनकी ख़ातिरदारी भी करो और विदा करते समय इनकी ख़ातिर लुट भी जाओ. ये बहनें भी भाई के गले टंगी रहती हैं उम्रभर.”

ईरा को याद आया जब बुआ के यहां जाती थी, तो कितने प्यार से, चाव से कितना कुछ ख़रीदकर देती थीं वो उसे- कपड़े, खिलौने, लेकिन उनके बेटों के लिए मां ने कभी कुछ नहीं भेजा. न कभी घर बुलाया छुट्टियों में. उन्हें पता ही नहीं कि मामा का घर कैसा होता है? चांदी की मामूली चीज़ देने का भी मां का मन नहीं हुआ, तो आलमारी में उपहार में आई हुईं साड़ियां छांटने लगीं मां बुआ को देने के लिए, लेकिन ईरा का चेहरा अचानक ही मुरझा-सा गया. वह अनायास ही बुआ के साथ अपनी तुलना करने लगी. दोनों ही तो इस घर की बेटियां हैं. आज मां बुआ को लेने-देने पर इतना मन ख़राब कर रही हैं, कल को भाभी भी ईरा के लिए… साड़ियां छांटती मां की नज़र अचानक ईरा पर पड़ी, “अरे, तुझे क्या हुआ? ऐसा मुंह क्यों उतर आया अचानक?”

मां तुम मेरे ही सामने बुआ के प्रति कैसी सोच और कैसी बातें कर रही हो? एक बार भी नहीं सोचा कि जैसे मैं इस घर की बेटी हूं, वो भी इस घर की बेटी हैं. अगर बुआ के प्रति तुम्हारी सोच ऐसी है, तो कल को भइया-भाभी भी मेरे साथ ऐसा ही करेंगे, तो उनकी कोई ग़लती नहीं होगी न? क्योंकि यदि तुम बुआ को कोसती हो, तो भाभी को भी तो पूरा हक़ है मेरे आने को कोसने का, मायके नहीं बुलाने का.” ईरा का गला भर आया, आंखें डबडबा आईं.

“अब तो मुझे भी यहां आने के लिए सोचना पड़ेगा.”

मां हाथ में साड़ी थामे सन्न-सी बैठी रह गईं. ये तो उन्होंने सोचा ही नहीं कि उनकी अपनी बेटी यह बात ख़ुद पर लेकर दुखी हो जाएगी.

“तुम शुरू से ही बुआ के प्रति जैसा व्यवहार कर रही हो, भविष्य में भाभी के मन में भी मेरे प्रति वैसा ही व्यवहार करने का बीज बो रही हो. क्योंकि वो देख रही हैं कि इस घर में ननद का सम्मान और प्रेम कितना और कैसा होता है.” ईरा हाथ के कंगनों की तरफ़ देखते हुए बोली, “ये दादी के पुश्तैनी कंगन हैं, वो चाहतीं तो तुम्हारी तरह ही चुपचाप बुआ को दे सकती थीं, लेकिन उन्होंने घर की बहू पर भरोसा किया और तुम्हारा मान रखा.”

“भाई-बहन का रिश्ता तो वैसे भी रेशम की तरह नाज़ुक होता है और मां बांधने के लिए उसमें पहले ही गांठ लगानी पड़ती है, तो जिस रिश्ते में पहले ही गांठ लगी हो, तो उसमें और खिंचाव क्यों पैदा करना. ये कंगन भाभी ने तुम्हारे पास देखे हुए हैं. कल को उन्होंने इसके बारे में पूछा, तो क्या जवाब दोगी. मायका मां से होता है और उसके बाद भाई-भाभी से. अपने व्यवहार की वजह से मेरा मायका मत छुड़ाओ मां. मैं इस घर का इतिहास दोहराना नहीं चाहती. बुआ को सम्मान दो, तभी तुम्हारी बहू मुझे सम्मान देना सीखेगी. जब बुआ के बच्चों को प्रेम से अपने घर रहने के लिए बुलाओगी, तभी भविष्य में इस घर में मेरे बच्चे भी अधिकार से आकर रह पाएंगे. भगवान के लिए एक ही घर की दो बेटियों के लिए अलग-अलग व्यवहार मत करो.” ईरा ने कंगन वापस मां के हाथों में थमा दिए.

दूसरे दिन सुबह-सवेरे ही बुआ आ गईं. सालों बाद अपना घर देखने की ख़ुशी उनके चेहरे पर सहज दिख रही थी. कितना कुछ लेकर आई थीं सबके लिए. एक-से-एक महंगी वस्तुएं और उन सबसे ऊपर सबके लिए अनमोल व अपार स्नेह. पिताजी भी कितने ख़ुश लग रहे थे.

नहा-धोकर पिताजी और भइया राखी बंधवाने बैठे. राखी बंधवाने के बाद भइया ने ईरा के सर पर स्नेह से हाथ फेरकर उपहार दिया. पिताजी सकुचाए से खड़े रहे. तभी मां ने एक क़ीमती साड़ी पिताजी को दी बुआ को देने के लिए. फिर मां ने दादी के जड़ाऊ कंगन में से एक-एक कंगन बुआ और भाभी को दिए.

“ये मांजी के कंगन हैं. इन पर अब तुम दोनों का हक़ है. ये मांजी के आशीर्वाद स्वरूप उनके बेटे और बेटी दोनों के वंश में रहेंगे.” बुआ की आंखें इस स्नेह से भीग गईं. मां ने उन्हें गले लगा लिया.

ईरा ने ईश्‍वर को प्रणाम किया. ये रेशमी रिश्ते अब प्यार की गांठ में बंधकर हमेशा मज़बूत रहेंगे.।

🙏जय श्री राम 🙏 जय श्री कृष्ण

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *