ये द्वारिकावासी- ये यादव उनके पिता की निन्दा करते थे, ये गालियाँ देते थे उन्हें, अन्त में इन्होंने उनका वध कर दिया। सत्यभामा को द्वारिका में कोई अपना अपने से सहानुभूति रखने वाला नहीं लगा। उन मनस्विनी ने किसी से कुछ नहीं कहा। उनके जो अपने हैं वे तो हस्तिनापुर चले गये अग्रज के साथ। वे उन्हीं के समीप चल पड़ीं रथ में एकाकी सत्यभामा। वृद्ध पिता के सारथी को लेकर वे रात-दिन यात्रा करके पहुँची थीं। रोते-रोते उनके नेत्र सूज गये थे। केश बिखरे थे। जाकर अपने स्वामी के चरणों पर गिर पड़ीं- ‘हाय वे पितृचरण इस प्रकार मारे गये।’
श्रीकृष्णचन्द्र भी सुनकर रो पड़े। श्रीसंकर्षण ने क्रोध से काँपते हुए कहा- ‘शतधन्वा की आयु पूरी हो चुकी। उसका वध करके ही श्रीकृष्ण श्वसुर की अन्त्येष्टि करेंगे’ -सात्यकि को श्रीकृष्ण ने लाक्षागृह जाकर पाण्डवों की अस्थि-चयन का कार्य सौंपा और उसी समय सत्यभामा को अपने रथ पर बैठाकर द्वारिका चल पड़े। बलराम जी का रथ भी साथ ही चला। शतधन्वा ने आवेश में सत्राजित को मार दिया था किन्तु मणि लेकर घर पहुँचने पर जब प्रातःकाल पता लगा कि सत्यभामा हस्तिनापुर चलीं गयीं, भय ने उसे विमूढ़ बना दिया। उसने सोचा भी नहीं था कि सत्राजित की कन्या इतनी त्वरा करेगी। उसे तो लगता था कि श्रीकृष्ण-बलराम तक सन्देश कुछ महीनों बाद में ही पहुँचेगा। द्वारिका में सत्राजित की निन्दा पहिले हुई थी, उससे कोई सत्राजित की मृत्यु को महत्त्व नहीं देगा, यह वह मान बैठा था। भय के कारण उसे सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे। अपने भवन में छिपा बैठा था। उसमें तो चेतना तब आयी जब सुना कि दोनों भाई द्वारिका आ पहुँचे और सत्यभामा को सत्राजित के भवन में उतारा है वहाँ पर्याप्त सेवक-सेविकायें उसके साथ रखी उन्होंने।
उन्होंने द्वरिका पहुँचते ही पूछा- ‘शतधन्वा है कहाँ? उस नराधम को किसी ने देखा है?’
कुशल थी, कोई नहीं जानता था कि शतधन्वा अपने भवन में ही छिपा बैठा है। अब वह यहाँ सुरक्षित नहीं है। अपनी सौ योजन (सात सौ मील) लगातार दौड़ते जाने में समर्था घोड़ी हृदया पर मणि लेकर वह बैठा और रात्रि के अन्धकार में कृतवर्मा के घर गया- ‘आप मेरी सहायता करें’
‘मैं सर्वसमर्थ जगदीश्वर भगवान वासुदेव और संकर्षण की अवहेलना करके तुम्हारा पक्ष लेने का साहस नहीं कर सकता’ कृतवर्मा ने डांट दिया- ‘मैंने तो नहीं कहा था कि सत्राजित का वध कर दो। उनका अपराध करके कौन सकुशल रह सकता है? तुमने देखा नहीं कि कंस को दोनों भाईयों ने उसके सहायकों और भाइयों के साथ कैसे मार दिया। जरासन्ध जैसा पराक्रमी वीर सत्रह बार हारा इनसे। तुम कृपा करके यहाँ से तत्काल चले जाओ। मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं करूँगा।’
यादव सेनापति कृतवर्मा जैसे वीर ने टके-सा उत्तर दे दिया, अब किससे आशा हो सकती थी किन्तु शतधन्वा अक्रूर के भवन गया।
अक्रूर ने देखते ही कहा- ‘तुमने सत्राजित को मारकर अपनी मृत्यु बुला ली। जो लीलापूर्वक इस विश्व की सृष्टि करते हैं, इसका पालन करते हैं, इसे मिटा देते हैं, उन परम प्रभु के पराक्रम का कौन पार पा सकता है। सात वर्ष की आयु में एक हाथ से पर्वत को छत्राक (बरसाती छत्रे) के समान उखाड़कर जिन्होंने सात दिन उठाये रखा, उन अनन्त, कूटस्थ, जगदात्मा का मैं सेवक हूँ। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। मैंने केवल मणि लेने को तुम्हें कहा था।’
‘अच्छा, आप यह मणि अपने पास रखें’ शतधन्वा ने निराश स्वर में कहा और मणि अक्रूर को दे दी। मणि देकर वह अपनी घोड़ी को दौड़ाने लगा।
द्वारिका समुद्र से घिरा दुर्ग था। द्वार से, सेतु के द्वारा ही उससे बाहर जाया जा सकता था। घोड़ी को दौड़ाते हुए खुले दुर्ग-द्वार से शतधन्वा द्वार रक्षकों के सम्मुख से निकल गया किन्तु द्वार रक्षकों की दृष्टि बचाकर तो नहीं जा सकता था। एक ही रथ में बैठे श्रीकृष्ण-बलराम उसे ढूँढ़ने निकल चुके थे। द्वार रक्षकों ने सूचना दे दी। गरुड़ध्वज रथ शतधन्वा के पीछे दौड़ चला। शतधन्वा कुछ पहिले चला था। पर्याप्त दूर निकल गयी थी उसकी घोड़ी। रथ उसका पीछा करता बढ़ा आ रहा था। घोड़ी सौ योजन दौड़ सकती थी। पशु भी स्वामी का संकट समझते हैं। प्राण पर खेलकर पूरे वेग से वह स्वामिभक्ता पशु दौड़ती चली गयी किन्तु उसकी शक्ति की सीमा थी। सौ योजन दूर मिथिला के वाहयोपवन में पहुँचते-पहुँचते वह गिर पड़ी ठोकर खाकर और गिरते ही उसका श्वास समाप्त हो गया। अत्यधिक श्रम से उसका हृदय फट गया। घोड़ी के गिरते ही शतधन्वा कूदा और पैदल भागा।
श्रीकृष्णचन्द्र ने यह देखा। अग्रज से बोले- ‘आर्य यह रथ के लिये अगम्य संकीर्ण पथ से भाग रहा है। आप यहीं रुकें थोड़े क्षण’ श्रीकृष्णचन्द्र रथ से कूदे और शतधन्वा के पीछे दौड़े। शतधन्वा प्राण बचाने को दौड़ रहा था; किन्तु कहाँ तक दौड़ता?
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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