आगे आगे मुकुंद दास जी और प्रताप सिंह जी ने, राजसी वस्त्रों से सजे, कमरबंद में दो दो तलवारें कटारें बाधें, बड़ी बड़ी आँखों में लाल डोरे सजे हुए, मत्त गजराज की सी चाल, केशरी सी शान से मुस्कराते हुये निशंक भाव से राजसभा में प्रवेश किया।ऐसा लगता था मानों वीरता निर्भयता विनम्रता प्रेम औरबल ने मिलकर काका भतीजे का रूप धारण किया हो।चार प्रथम श्रेणी के उमराव, जो अगवानी के लिए गये थे, उनके आस पास चल रहे थे।सिहाँसन के सम्मुख पहुँच कर भँवर मुकुंद दास थोड़ा झुके और हाथ जोड़कर बोले- ‘खम्माधणी’ उनके साथ ही प्रतापसिंह झुके और बोले- ‘अन्नदाता’- जैसे बारी बारी से दो शेर हल्के गरजे हों।महाराणा विक्रमादित्य दोनों से मिले।दोनों ओर से नजर न्यौछावर हुईं।मेड़ता से आई भेंट नजर गुजारी।जरी का सरोपाव, जड़ाऊ तलवार और पाँच घोड़े।राणाजी ने हाथ छू कर सम्मान बक्शा।प्रताप सिंह अपने स्थान उमरावों की प्रथम पंक्ति में पाँचवे स्थान पर संकेत पाकर बैठ गये।मुकुंद दासजी को अलग आसन मिला।
‘पधारो जवाँई सा, बहुत दिनों पश्चात याद आई ससुराल।’
‘हुजूर कभी स्मरण ही नहीं करते।जब गुरूजन स्मरण नहीं करते तब बालकों को ही चरण वंदना की आड़ लेकर हाजिर हो जाना चाहिए, सो बालक हाजिर है।’- मुकुंद दास ने मुस्करा कर कहा।
‘यह क्या फरमाते हैं? आप तो हमारे माथे के मौर हैं।आपसे ही इस घर की शोभा है।बेटी जवाँई के बिना घर आँगन सूना रहता है’- दीवानजी ने हँसकर कहा- ‘मेड़ते में सब प्रसन्न तो हैं।भुवासा फूफोसा और सब परिवार सकुशल है।’
‘कृपा है चारभुजा नाथ की।आपकी और गुरूजनों की शुभैषा से सब कुशल क्षेम है।कभी कभी पाटघर (जोधपुर) वालों के हाथ में खुजली हो जाती है तो चढ़ आते हैं।मेड़ता न जाने क्यों चुभने लगा है उनकी आँखों में।तब हम लोग थोड़े हाथ पाँव हिलाकर उन्हें वापस उनकीसीमा में छोड़ आते हैं।इसनें हमारे जोड़ों में हथियारों में लगा जंग भी उतर जाता है।बावोसा और कुँवरसा ने कुशलता पुछवाई है।भुवासा हुकुम को पीहर पधारने की आज्ञा हो तो हम उनको लिवा ले जाने के लिए हाजिर हुये हैं।’
‘इसमें भला आज्ञा की क्या बात है? आपकी भुवासा और बावोसा दोनों ही हमारे गुरूजन हैं।उनका हुक्म सिर माथे।बाई श्याम कुँवर को भी ले पधारे होते तो वह भी सबसे मिल लेती।’- महाराणा ने हार्दिक प्रसन्नता से कहा।
‘बीनणी हुकुम भी पधारी हैं’- प्रताप सिंह जी ने कहा।
‘और भाया, आप तो प्रसन्न हैं? भुवासा के दर्शन किए बहुत बरस बीत गये।वे प्रसन्न तो हैं?- महाराणा ने पूछा।
‘हाँ हुकुम, आपकी और चारभुजा नाथ जी की कृपा से सब प्रसन्न हैं।भाभा हुकुम ने हुजूर को बहुत मान के साथ दुलार व्यक्त किया है।’
‘आप चाँणोद कब आबाद कर रहे हैं?’
‘वह तो आबाद ही है सरकार’- प्रताप सिंह हँसे।
‘हमारे लिए तो आप वहाँ बसेगें तभी आबाद होगा।अभी मेड़ता का मोह छूट नहीं पा रहा है, क्यों?’
‘आना तोहै ही’- प्रताप सिंह ने थोड़ा हँसकर कहा- ‘दाता हुकुम भी फरमाते हैं किंतु कुछ तो जन्मभूमि का मोह,भतीजों और माता-पिता परिजनों का मोह औरसबसे बड़ी बात जोधपुर की हवस मेरे पैरों में श्रृंखला डाल देती है।’
‘और जो कोई चित्तौड़ पर पाण पटकैं तो?(यदि कोई चित्तौड़ पर अपनी बहादुरी दिखाये तो।)’
‘सरकार आधी रात को भी याद फरमायें’- मुकुंद दास बीच में ही जोश में भरकर बोले- ‘मेड़तियों के जाये सिर हथेली पर रखकर दौड़े आयेगें।रक्त की होली खेलकर तलवार की नोंक से इतिहास के पन्नों को रंग जायेगें।’
हर्ष से मेवाड़ के सरकार जय जयकार कर उठे।
‘अभी जो युद्ध हुआ और बहादुर शाह से संधि हुई, यह बात बाबोसा को तनिक भी पसंद नहीं आई।अरे हिंदूपति को संधि करने की आवश्यकता ही क्या है? जब तक मेवाड़ के भूखे व्याघ्र समान उमराव मौजूद है तब तक मेड़तिया राठौरों का एक भी जाया नरवीर उपस्थित हैं’- मुकुंद दास का मुख आरक्त हो उठा।उन्होंने अपनी तेजपूर्ण दृष्टि सम्पूर्ण दरबार पर फेरी।
‘हुजूर की बात और अपनत्व देख सुनकर हमारा उत्साह और प्रेम दुगना हो गया’- सादड़ी के झाला सामन्त बोले- ‘किंतु आप अभी बालक हैं सरकार, राजनीति में संधि का महत्व रण से कम नहीं है।परिस्थिति विपरीत होने के कारण संधि करनी पड़ी।प्रथम तो हमारे सिरमौर श्री जी अभी बालक हैं और दूसरे खानवा के युद्ध में जो धन जन की हानि हुई, उसकी पूर्ति अभी तक नहीं हो पाई।ऐसे और भी कई कारण हैं, जिन्होंने संधि के लिए मजबूर किया।कल समय अनुकूल आयातो हम स्वयं आक्रमण करके सारी हानि की पूर्ति कर लेगें।’
‘बात तो सच है बावजी’- प्रताप सिंहने भतीजे का जोश ठंडा करने के लिहाजसे कहा- ‘समय से बढ़ कर कोई शासक नहीं है।प्रतिकूल परिस्थितियों में बड़े से बड़े बुद्धिमान और महावीर परवश हो जाते हैं और अनुकूल समय कायर को वीर तथा मूर्ख को पंडित की उपाधि दिलवा देता है।हमें समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए।’
‘मेरी समझ में शौर्य और बुद्धि सहायक हों तो कर्तव्य के अग्नि पथ पर चल कर मनुष्य नियति का मुख फेर देता है’- मुकुंद दासने कहा।
‘आहा, भाणेज बना(प्रताप सिंह) ने तो सचमुच रंगरूप ही नहीं, मन बुद्धि भी अपने मामोसा (राणासाँगा) की पाई है, जो बात इन्होंने आज फरमाई वही बात मैनें कभी श्री जी के मुख से भी सुनी थी’- सलुम्बर रावतजी बोले।
‘और जवाँई सा? इन्होंने मानों अपने परदादा को प्रत्यक्ष कर दिया’- करम चँद पुँवार ने कहा।
इसी प्रकार हँसी ख़ुशी की बातें होते होते आखेट की रूपरेखा तय हो गई।पुरोहित जी ने सबको इत्र व पान देकर विदा किया।
विक्रमादित्य का प्रीति प्रदर्शन…..
जिस दिन से मेड़ते के सम्बंधी पधारे, उसी दिन से महाराणा का स्नेह जैसे अपनी भाभी पर बेतरह उमड़ पड़ा।प्रताप सिंह के साथ वे दूसरे दिन मीरा के महल में पधारे तो ठाकुरजी के दर्शन किए, प्रणाम किया और प्रसन्नतापूर्वक भाभीसा को अभिवादन किया।इधर उधर की बातें करते हुये आँखों में आँसू भरकर बोले- ‘मुझे माफ कर दो भाभी म्हाँरा, लोगों केकहने में आकर मैनें आपको बहुत कष्ट दिया।’
‘ऐसा क्यों फरमाते हैं लालजी सा, मेरे मन में तो आप पर तनिक भी रोष नहीं है’- मीरा ने हँस कर कहा- ‘कौन किसी को दुःख सुख दे सकता है? अपने अपने कर्मों के फल के अनुसार दु:ख सबको भोगना पड़ता है।वह सब तो मेरे प्रारब्ध का फल था।
क्रमशः
Mira Charit
Part- 92
आगे आगे मुकुंद दास जी और प्रताप सिंह जी ने, राजसी वस्त्रों से सजे, कमरबंद में दो दो तलवारें कटारें बाधें, बड़ी बड़ी आँखों में लाल डोरे सजे हुए, मत्त गजराज की सी चाल, केशरी सी शान से मुस्कराते हुये निशंक भाव से राजसभा में प्रवेश किया।ऐसा लगता था मानों वीरता निर्भयता विनम्रता प्रेम औरबल ने मिलकर काका भतीजे का रूप धारण किया हो।चार प्रथम श्रेणी के उमराव, जो अगवानी के लिए गये थे, उनके आस पास चल रहे थे।सिहाँसन के सम्मुख पहुँच कर भँवर मुकुंद दास थोड़ा झुके और हाथ जोड़कर बोले- ‘खम्माधणी’ उनके साथ ही प्रतापसिंह झुके और बोले- ‘अन्नदाता’- जैसे बारी बारी से दो शेर हल्के गरजे हों।महाराणा विक्रमादित्य दोनों से मिले।दोनों ओर से नजर न्यौछावर हुईं।मेड़ता से आई भेंट नजर गुजारी।जरी का सरोपाव, जड़ाऊ तलवार और पाँच घोड़े।राणाजी ने हाथ छू कर सम्मान बक्शा।प्रताप सिंह अपने स्थान उमरावों की प्रथम पंक्ति में पाँचवे स्थान पर संकेत पाकर बैठ गये।मुकुंद दासजी को अलग आसन मिला।
‘पधारो जवाँई सा, बहुत दिनों पश्चात याद आई ससुराल।’
‘हुजूर कभी स्मरण ही नहीं करते।जब गुरूजन स्मरण नहीं करते तब बालकों को ही चरण वंदना की आड़ लेकर हाजिर हो जाना चाहिए, सो बालक हाजिर है।’- मुकुंद दास ने मुस्करा कर कहा।
‘यह क्या फरमाते हैं? आप तो हमारे माथे के मौर हैं।आपसे ही इस घर की शोभा है।बेटी जवाँई के बिना घर आँगन सूना रहता है’- दीवानजी ने हँसकर कहा- ‘मेड़ते में सब प्रसन्न तो हैं।भुवासा फूफोसा और सब परिवार सकुशल है।’
‘कृपा है चारभुजा नाथ की।आपकी और गुरूजनों की शुभैषा से सब कुशल क्षेम है।कभी कभी पाटघर (जोधपुर) वालों के हाथ में खुजली हो जाती है तो चढ़ आते हैं।मेड़ता न जाने क्यों चुभने लगा है उनकी आँखों में।तब हम लोग थोड़े हाथ पाँव हिलाकर उन्हें वापस उनकीसीमा में छोड़ आते हैं।इसनें हमारे जोड़ों में हथियारों में लगा जंग भी उतर जाता है।बावोसा और कुँवरसा ने कुशलता पुछवाई है।भुवासा हुकुम को पीहर पधारने की आज्ञा हो तो हम उनको लिवा ले जाने के लिए हाजिर हुये हैं।’
‘इसमें भला आज्ञा की क्या बात है? आपकी भुवासा और बावोसा दोनों ही हमारे गुरूजन हैं।उनका हुक्म सिर माथे।बाई श्याम कुँवर को भी ले पधारे होते तो वह भी सबसे मिल लेती।’- महाराणा ने हार्दिक प्रसन्नता से कहा।
‘बीनणी हुकुम भी पधारी हैं’- प्रताप सिंह जी ने कहा।
‘और भाया, आप तो प्रसन्न हैं? भुवासा के दर्शन किए बहुत बरस बीत गये।वे प्रसन्न तो हैं?- महाराणा ने पूछा।
‘हाँ हुकुम, आपकी और चारभुजा नाथ जी की कृपा से सब प्रसन्न हैं।भाभा हुकुम ने हुजूर को बहुत मान के साथ दुलार व्यक्त किया है।’
‘आप चाँणोद कब आबाद कर रहे हैं?’
‘वह तो आबाद ही है सरकार’- प्रताप सिंह हँसे।
‘हमारे लिए तो आप वहाँ बसेगें तभी आबाद होगा।अभी मेड़ता का मोह छूट नहीं पा रहा है, क्यों?’
‘आना तोहै ही’- प्रताप सिंह ने थोड़ा हँसकर कहा- ‘दाता हुकुम भी फरमाते हैं किंतु कुछ तो जन्मभूमि का मोह,भतीजों और माता-पिता परिजनों का मोह औरसबसे बड़ी बात जोधपुर की हवस मेरे पैरों में श्रृंखला डाल देती है।’
‘और जो कोई चित्तौड़ पर पाण पटकैं तो?(यदि कोई चित्तौड़ पर अपनी बहादुरी दिखाये तो।)’
‘सरकार आधी रात को भी याद फरमायें’- मुकुंद दास बीच में ही जोश में भरकर बोले- ‘मेड़तियों के जाये सिर हथेली पर रखकर दौड़े आयेगें।रक्त की होली खेलकर तलवार की नोंक से इतिहास के पन्नों को रंग जायेगें।’
The government of Mewar woke up with joy.
Babosa didn’t like the war that just happened and the treaty with Bahadur Shah. What is the need of a Hindupati to make a treaty? As long as Umrao, like the hungry tiger of Mewar, is present, till then even one of the Medatiya Rathores, Narveer, is present’ – Mukund Das’s face lit up. He turned his sharp gaze to the entire court.
‘Our enthusiasm and love doubled after seeing Huzur’s talk and affinity’ – Jhala Samant of Saadi said – ‘But you are still a child, government, the importance of treaty in politics is no less than the battle. Because of the opposite situation, treaty had to be done Firstly, our Sirmour Shri ji is still a child and secondly, the loss of money and people in the war of Khanwa has not yet been recovered. We will make up for all the loss by attacking ourselves.’
‘It is true Bavji’ – Pratap Singh said in order to cool his nephew’s enthusiasm – ‘There is no ruler greater than time. In adverse circumstances, even the wisest and bravest of heroes get defeated and in favorable times, cowards become brave and fools. Gets the title of Pandit. We should wait for the time.
‘In my understanding, if bravery and intelligence are helpful, then walking on the fire path of duty, a man turns his face to destiny’- said Mukund Das.
‘Aha, Bhanej Bana (Pratap Singh) has really not only got the beauty, but also the mind and intellect of his mother (Ranasanga), what he said today, I had heard the same thing from the mouth of Shriji’- Salumbar Rawatji said. .
‘And young? It is as if he has revealed his great-grandfather’ – said Karam Chand Poonwar.
In the same way, the outline of the hunt was fixed while there were talks of laughter and happiness. Purohit ji bid farewell to everyone by giving them perfume and paan.
Vikramaditya’s love performance…..
From the day Medte’s relatives arrived, Maharana’s affection for his sister-in-law was overwhelming. When he came to Meera’s palace the next day with Pratap Singh, he saw Thakurji, bowed down and happily greeted Bhabhisa. While talking there, he said with tears in his eyes – ‘Forgive me sister-in-law Mhanra, I caused you a lot of trouble by coming to people’s side.’
‘Why do you say like this, Lalji Sa, I don’t have even an iota of anger on you’- Meera said laughing- ‘Who can give someone happiness and sorrow? Everyone has to suffer according to the result of their own deeds. All that was the result of my destiny.
respectively