‘ये चतुर्भुज हैं। चार वृषभों को श्रृंग पकड़कर रोक ले सकते हैं, किन्तु सात……!’
सेवकों, सभासदों के हृदय धड़कने लगे लेकिन अर्जुन और द्वारिका के लोगों को श्रीकृष्ण के स्वरूप का पता है। इन जगदीश्वर के लिये भी कुछ अशक्य है, यह वे स्वप्न में भी नहीं सोच सकते।
वृषभों के घेरे के चारों ओर सब खड़े हो गये। श्रीकृष्ण ने लम्बी नासिका में डालने की रज्जु उठायी। पटुका कटि में कसा और वृषभों के घेरे द्वार के भीतर चल पड़े। महाराज नग्नजित के सेवक जो वृषभाहतों के उठाने पर नियुक्त थे, अत्यन्त सतर्क सावधान खड़े हो गये। आहत को उठा ले जाने के उपकरण, उपचार सामग्री, चिकित्सक सदा की भाँति आगत को सूचना दिये बिना प्रस्तुत कर ली गयी थी। इनकी सूचना एवं प्रदर्शन से किसी को आतंकित करने का प्रयत्न तो पहिले भी नहीं किया गया था।
किसी को रज्जु उठाकर द्वार के समीप आते देखते ही वीरपुरुष की गन्ध से उत्तेजित होकर हुंकार करने वाले, नासिका से फुत्कार छोड़ते उग्र हो जाने वाले वृषभ- ये तो द्वार खुलने से पूर्व पृथ्वी खुरों से खोदने लगते थे- सिर झुकाकर टूट पड़ने को प्रस्तुत हो जाते थे और आज इनमें से एक ने भी तो गर्जना नहीं की। सब शान्त जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो। ये धर्म वृषभ अपने स्वामी को ये नहीं पहिचानेंगे? ये तो पूँछ उठाये खड़े हो गये थे, जैसे इनसे मिलने को ही उत्सुक हों।
‘श्रीकृष्ण कहाँ हैं किस वृषभ के समीप हैं?’ सेवकों ने सभी दर्शकों ने आश्चर्य से देखा। जिस वृषभ पर दृष्टि गयी, वहीं उसी के सम्मुख श्रीकृष्ण और दूसरे वृषभ की ओर देखने का समय भी कहाँ मिला। कोई कैसे समझे कि सर्वरूप ने इस समय अपने सात रूप बना लिये थे। सातों वृषभों को पकड़कर एकत्र कर लिया और उनकी नासिका में छिद्र करते, रज्जु डालते चले गये।
श्रीकृष्णचन्द्र ने सातों वृषभ एक रज्जु में नाथ दिये। वे उनकी नासिका में ग्रथित रज्जु को पकड़े इधर से उधर उन्हें घुमाने लगे, मानो वे छोटे बछड़े हों।वृषभों ने तो पूँछें उठा रखी हैं। वे स्नेह भरी हुंकार कर रहे हैं और स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र के साथ दौड़ रहे हैं। उन्हें खींचना कहाँ पड़ रहा है। उनकी नासिका में पड़ी रज्जु तो सीधी नहीं हो पाती। श्रीकृष्ण जिधर हटते हैं, वृषभ उनके साथ चलते हैं। ऐसा लगता है जैसे सदा से इनसे परिचित, इनके द्वारा ही पालित हों।
महाराज नग्नजित के संकेत पर शंख गूँजने लगे हैं। ब्राह्मणों ने स्वस्ति पाठ प्रारम्भ कर दिया। सेवक दौड़ने लगे हैं। वैवाहिक पद्धति प्रारम्भ हो चुकी है।
‘महाराज अब ये सदा के लिये सीधे हो गये’ श्रीकृष्णचन्द्र सातों वृषभों को रज्जु में नाथे बाहर लिये चले आये- ‘अब ये किसी पर आघात नहीं करेंगे।’
‘ये सदा आपके हैं। आपके ही रहें। महाराज ने प्रथमोपहार बना दिया उन वृषभों को।’
विवाह की पहिले से कोई प्रस्तुति नहीं थी। कोई मुहूर्त देखा नहीं गया था। उत्तम मुहूर्त में, पूरी तैयारी करके ही महाराज को कन्या दान करना था। पहिला विवाह श्रीकृष्णचन्द्र का था द्वारिका से बाहर ससुराल में। सबको रुकना पड़ा- अत्यन्त आदर से सब रखे गये।
इस विलम्ब का एक दूसरा परिणाम भी हुआ। जो राजकुमार दक्षिण कौसल पहिले वृषभ-निग्रह करने आ चुके थे और अंग-भंग होकर निराश लौट गये थे, उन्हें समाचार मिल गया। उन्हें सेना सज्जित करके मार्गावरोध का समय मिल गया। वे सेना लेकर मार्ग में रोककर बारात को राजकन्या छीन लेने के अभिप्राय से अपने-अपने राज्यों से चले और एक ही के विरुद्ध थे सब, अतः एक साथ मिलकर उन्होंने उपयुक्त स्थान ढूँढ़ा। सघन अरण्य, दोनों ओर गिरिशिखर और मध्य में संकीर्ण मार्ग। वे शिखरों पर और वन में भी छिपकर प्रतीक्षा करने लगे।
बहुत धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ। महाराज नग्नजित ने अपार उपहार दिये अपनी दुहिता को। बारात विदा हुई तो अर्जुन अकेले रथ पर बैठे। श्रीकृष्णचन्द्र के साथ उनके रथ पर उनकी नववधू बैठीं तो पार्थ को पृथक रथ पर बैठना ही चाहिये था।
‘तुम मुझे साथ लाये हो तो मार्ग में रक्षा का दायित्व मेरा है’ अर्जुन ने वहीं गाण्डीव ज्या सज्ज कर लिया- ‘अब अपने सैनिकों को कह दो कि वे मेरे नियन्त्रण में हैं और उन्हें शान्त बाराती बने रहना है।’
‘जैसी आपकी आज्ञा’ श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अर्जुन की बात स्वीकार कर ली।
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩