ऐसी बात सोच कर आप तनिक भी दु:खी न हों।हम सभी एक ही प्रभु की संतान हैं और उन्हें हमारे भीतर बाहर का सबकुछ पता है।’
उसी दिनसे महाराणा मीरा के यहाँ कुछ न कुछ भेजने लगे।कभी ठाकुरजी के लिए मिठाई, कभी फूल, कभी गहने, कभी जरी के बागे, कभी सोने चाँदी के पूजापात्र।
ऐसा लगता था मानों महाराणा अपनी पिछली भूलों का प्रायश्चित करने पर तुल गये हों।तीसरे चौथे दिन वे अभिवादन करने, ठाकुरजी का दर्शन करने आते और अपनी भूलों के लिए बारम्बार क्षमा माँगते।
‘भगवान ने लालजी सा को भले देरसे ही दी, पर सुमति दी, यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है’- मीरा कहती- ‘इसी प्रकार ये उमरावों और प्रजा को प्रसन्न रखें।बस ध्यानपूर्वक राजकाज चलायें और क्या चाहिए?’
सरल हृदय मीरा के विचार भले ऐसे हों किन्तु उनकी दासियों को तनिक भी विश्वास नहीं था।जैसेही महाराणा के सेवक कोई वस्तु लेकर आते, उनका कलेजा भय से दहल जाता।
मीरा की बात सुनकर गोमती बोली- ‘भले व्यक्ति को सब भले ही नजर आते हैं हुकुम।पण काँदा ने बारा(प्याज को बारह) बरस घी के गागर में रखें और फिर निकाल कर सूँघें तो उसमें से काँदे की ही दुर्गंध आयेगी।टाट्या री टाट परी जावै पण मिनख री टेब नी जावै (गंजे की गंज जा सकती है पर मनुष्य का स्वभाव नहीं बदल सकता)।
मुझे तो इन नित्य आने वाले उपहारों में और मेड़तिये पाहुनों की घड़ी घड़ी मँहगी करने में कोई गुप्त साज़िश दिखाई देती है।’
‘भले को सब भले और बुरे को सब बुरे दिखाई देते हैं न।यह तो बता तूने कब से बुराई पर कमर कसी है’- मीरा ने हँसकर कहा।
‘इन चरणों की चाकर के समीम आने से पूर्व ही बुराई काँपने लगता है, किंतु आजकल अन्नदाता हुकुम नित्य पधारने लगे हैं।कहीं उनकी छाया पड़ी होगी मुझ पर, इसी से उनकी असलियत मुझे नजर आने लगी है’- गोमती कहते हुये हँसी।
उसकी स्वामिनी को भी हँसी आगई- ‘छोरी घणी कीवेगी, चित्तौड़ रो पानी लग गयो (लड़की बहुत चतुर हो गई है, चित्तौड़ का पानी लग गया)।’
उनकी बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस पड़े।
मीरा के महल में रँगीली होली…..
‘मैनें तो सुना था कि काकोसा आपको बहुत सताते हैं, यहाँ आकर तो मैं कुछ और ही देख रही हूँ’- श्याम कुँवर बाईसा ने कहा।
‘इन बातों को जाने दो बेटा, चार दिन के लिए पीहर आई हूँ, इन्हें हँसी ख़ुशी में गुजार दो’- मीरा ने कहा।
‘यह सबतो बाईसा हुकुम, मेड़ते के मेहमानों को दिखाने वाला रूप है, अन्यथा तो हमारी छाती जानती है’- चम्पा ने कहा।
‘होली के दिन हैं बेटा, कल उत्सव होगा।तुम भी उसकी तैयारी करो कुछ’- माँ ने बेटी को समझाया।मीरा ने श्याम कुंवर की मनोधारा मोड़ देकर दूसरी ओर लगा दी। उत्सव की तैयारी हुई।उत्सव आरम्भ भी हुआ।मीरा गाने लगी।श्याम कुंवर बाईसा गिरधर बनीं और राधा बनीं वे स्वयं और दासियाँ सखियों के रूप में थीं ही।
ए जी मुरारी सुणो गिधारी झपट्यो म्हाँरो चीर मुरारी।
सिर की गगरिया झपट लई मानत नहीं गिरधरी।
रेशम बंद बदन को छूट्यो झल रही कोर किनारी।
देख सब लोग अनाड़ी।
थोड़ी देर में सब उस रंग में रंग गई…..
साँवरो होली खेल न जाँणे। खेल न जाणे खेलाये न जाँणे।
बन से आवै धूम मचावे,भली बुरी नहीं जाँणे।
गोरस के मिस सब रस चाखे, भोर ही आँण जगावै।
ऐसी रीत पर घर म्हाँणे,साँवरो होली खेल न जाँणे।
कर कंकण कनक पिचकारी भर पिचकारी ताँणे।
होरी को खलैया द्वारे ही ठाड़ो अंग सो अंग भिड़ावै।
दरद दिल को नहीं जाणे,साँवरो होली खेल न जाँणे।
छैल छबीलो महाराज साँवरिया, दुहाई नंद की न माँणे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,तट यमुना के टाँणे।
मेरो मन न रह गयो ठिकाँणे,साँवर होली खेल न जाँणे।
होली खेलते खेलते मीरा के अंग शिथिल हुये और नयन स्थिर हो गये- वह बरसाना जा रही है।आज होरी है।श्याम संग होरी खेलने के लिए सखियों ने बुलाया है।शीघ्रता से पद बढ़ाये जा रही है। श्यामजू सखाओं के साथ आयेगें बरसाना ….. उनसे कहीं बीच राह में भेंट न हो जाए …..
मैं अकेली हूँ और वे बहुत से। कैसे पार पड़ेगी? मैया से कह दीनी कि मैं आज किशोरीजू के साथ ही रहूँगी, कल काऊ के संग आय जाँऊगी।
तू चिंता मत करियो।तभी डफ की ध्वनि के साथ कई कण्ठों से समवेत स्वर सुनाई दियो – ‘होरी खेलन को आयो री नागर नन्द कुमार।’ मैं चौंक कर एक झाड़ी की ओट में हो गई और सब तो वहीं थे पर एक श्याम न हते।दाऊ दादा के हाथ की डफ बज रही थी।
विशाल दादा के सिर पर रंग को घड़ा और सबके कंधों पर अबीर गुलाल की झोरी। एक स्वर में सब गा रहे थे और कोई कोई तो नाचते से फिरकी लेते। सबके सब पीठ पै ढाल बाँधे थे। वे आगे चले गये तो मैंने संतोष की सांस ली और जैसे ही चलने को उद्यत हुई, किसी ने पीछे से आकर मुख पर गुलाल मल दी। मैं चौंक कर खीजते हुई बोली, ‘अरे, कौन है लंगर (ढीठ)?’
मुझे सचमुच खीज लगी थी।पहुँचने की जल्दी थी, रंगा रंगीं जो होनी हो वह किशोरीजू और कान्हा जू के हाथ से हो।यह बीच में कौन मूसरचंद बन बैठो।एकदम पल्टी मैं।
श्यामजू दोनों हाथों में गुलाल लिए हँसते खड़े थे- ‘सो लंगर मैं हूँ सखी ! मन न भरा हो तो एक-दो गाली और दे दे।’ उनको देख कर एकबार तो लाज के मारे पलकें झुक गईं। फिर होरी में लाज को क्या काज है, सोचकर मैनें नजर उठाई- ‘मैं हूँ लगाये दूँ ?’
मेरी बात पर वे ठठाकर हँस पड़े- ‘अरे होली में कोई पूछकर रंग लगाता है भला? यह होरी तो बरजोरी का त्यौहार है। जो मैं कह दूँ नहीं लगाना तो? मान जायेगी क्या?’
‘तो….तो …..’- मैंने एक ही क्षण सोचा और झपटकर उन्हीं की झोली से दोनों मुट्ठियों में अबीर और गुलाल भर ली।वे पीछे हटें इससे पहले ही उनके मुख गले और वक्ष पर दोनों हाथ मल दिये।वक्ष पर दृष्टि और हाथ जाते जाते तो दोनों हाथ उन्होंने पकड़ लिये- ‘ठहर, अब मेरी बारी है।’
क्रमशः