सच्चिदानंदघन अव्यक्त स्वरुप

प्रकृति के उत्पन्न तीनों गुण आपके व हमारे शरीर से चाहे जितने भी निम्नकोटि के अथवा उच्चकोटि के पाप या पुण्य करवावें किन्तु वे लाख प्रयास करने पर भी हमें स्पर्श भी नहीं कर सकते!

क्यों? क्योंकि हम आप उस सच्चिदानंदघन अव्यक्त स्वरुप निर्गुण निराकार परमब्रह्म के स्व रुप हैं!

जो के इन तीनों गुणों से ही नहीं,वरन इस संपूर्ण सृष्टियों,प्रकृतियों,चौदहों भुवनों,तीनों कालों,तीनों अवस्थाओं,तीनों लोकों,

नवों खण्डोे़ं,नवों छिद्रों अर्थात (ब्लैक होलों) तीनों आयामों,विद्या अविद्या रुपी दोनों माताओं,(माया) चारों अन्त:करणों,अविद्या के आठों भेदों

जैसे धरती,जल,अग्नि,वायु,आकाश और मन,बुद्धी व अहँकार सहित हमारे आपके शरीर ईन्द्रियों से भी परे है!अतीत है!सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है!

अर्थात हम भी एक रुप ईश्वर,दो रुप माया,तीन रुप गुण,काल,लोक,आयाम,चार रुप वेद व अन्त:करण,पाँचों महाँभूत,छ:हों विकारों,सातों ऋषियों,

आठों वशुओं,नवों शक्तियों या द्वारों अर्थात ब्लैक होंलों!दशों दिशाओं,ग्यारहों रुद्रों,बारहों आदित्यों(सुर्यों),तेरहों पितरों,

और चौदहों भुवनों सहित अन्य जितने भी लोक लोकान्तर हैं इस मायिक वैचारिक जगत में उन सभी से परे,अतीत और सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं!

इसलिए हमें कोई अपनी शक्ति से,विद्या से,बल से,एैश्वर्य से या किसी भी प्रलोभन व अस्त्र शस्त्र के प्रभाव से स्पर्श भी नहीं कर सकता!

बस हम यदि स्वयं ही स्वयं को अविद्या माया के आगोश में न डुबायें,तो अविद्या व विद्या माया के संयोग से उत्पन्न,

इस संपूर्ण जड़ चेतन मय प्रकृति एवं सृष्टि में एैसा कोई भी सामर्थ्यवान शक्तिमान नहीं,जो हमें किसी भी प्रकार से दु:ख कष्ट व पीडा़ दे सके!जो हमें स्पर्श भी कर सके!

क्योंकि हमारे आपके अर्थात आत्मतत्व के अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी आप आँखों से देखते हो!कानों से सुनते हो!नासिका से सूँघते हो!

जिह्वा से चखते हो,चर्म से स्पर्श करते हो!बुद्धी से जानते पहचानते हो!अहँकार से करते व भोगते हो!चित्त से स्वीकार या अस्वीकार करते हो!

वह सबकुछ हमारे आपके मन की कल्पना मात्र है!वृत्ति व विचार मात्र है!स्वप्नमात्र है!और इन विचारों,वृत्तियों,कल्पनाओं व स्वप्नों का कारण कौन है?

केवल हमारी व आपकी यह मान्यता के मैं आत्मा परमात्मा से अभिन्न नहीं वरन उनसे भिन्न हुँ!मैं जीव हुँ,मैं शरीर हुँ!मैं जन्मता मरता हुँ आदि

आविद्याजनित आपके हमारे यह विचार ही हमें असत् को सत् व सत् को असत् देखने व मानने पर विवश किये हुए हैं!

क्योंकि जबतक आप स्वयं को सच्चिदानंदघन अव्यक्त ब्रह्मँ से भिन्न देखेंगे,आप स्वयं को आत्मा मानो तब भी सबको भेददृष्टि से देखोगे!

जिससे आपको अनेक आत्माएँ हैं,एैसा दिखेगा!जीव मानो तब भी अनेक जीव हैं एैसा दिखेगा!और शरीर मानो तब भी अनेक शरीर हैं एैसा दिखेगा!

और सब आत्मा जीव व शरीर आदि भिन्न भिन्न हैं यह भी दिखेगा!और जबतक आपके अतिरिक्त अन्य किसी की भी सत्ता अर्थात अस्तित्व आपसे भिन्न बना रहेगा,

तबतक संपूर्ण दु:खों से,कष्टों से और पीडा़ओं से आप मुक्त नहीं हो सकते!क्योंकि दूसरे का अस्तित्व व सत्ता ही हमारे अज्ञान का मूल कारण है!

हमने स्वयं को सत्य से भिन्न माना इसलिए हम असत्य के जाल में उलझ गये!और इतना विराट जगत निर्मित करने पर भी हम इसे सत्य के समान स्थाई व अपरिवर्तनशील नहीं बना सके!

क्यों?क्योंकि हमारी इस मायिक,स्वप्नवत एवं वैचारिक सृष्टि का जो मूलाधार है!वह अविद्या है!असत् है!अन्धकार है!अज्ञान है!इसलिए यह जगत सदैव अस्थाई व परिवर्तनशील बना रहता है!

यह जगत हमारे आपके अविद्या से निर्मित हुआ है और हमारी आपकी विद्या से ही इसके मिथ्यात्व का वास्तविक रुप दृष्टिगोचर भी होता है!

जिससे हमें अपने वास्तविक मूल स्वरुप का, जिसे सच्चिदानंदघन ब्रह्म या विष्णु भी कहते हैं,परमधाम भी कहते हैं!वैकुण्ठलोक,सत्यलोक, अमरलोक आदि भी कहते हैं!

उसका स्मरण आ जाता है!और स्मरण आ जाने पर हम स्पष्ट देखते हैं के हम इस सृष्टि में वैसे ही नहीं हैं,जैसे रेडियों में बोलने वाला उस रेडियों के भीतर होता नहीं है!

वैसे ही इस शरीर रुपी रेडियों द्वारा विभिन्न प्रकार के कर्म व व्यवहार करने पर भी हम इसमें हैं नहीं!ना ही हम कोई कर्म व व्यवहार करते हैं!

क्योंकि संपूर्ण अनतानंत ब्रह्माँण्डी़य कर्म व व्यवहार,हमारी ही त्रिगुणात्मक प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण करते हैं!जिसे अविद्या माया के वशीभूत मनुष्य हमारा आपका किया धरा मानता है!

क्योंकि मिट्टी का एक पुतला यह मनुष्य ये रहस्य नहीं जानता,के यह सृष्टि हमारे आपके मन की केवल और केवल एक अद्वितीय कल्पना मात्र है!

इस प्रकृति या सृष्टि से हम नहीं जन्मे या हम नहीं निर्मित हुए हैं!वरन यही हमसे निर्मित अर्थात उत्पन्न हुई है!यही हमारे मन से जन्मी है!

हम ही अपनी संकल्प शक्ति से एैसे दिख रहे हैं,जैसा मनुष्य हमें या एकदूसरे को या इस जगत को देखना चाहता है!

इसलिए अपनी महिमा को जानों व पहचानों प्रिय आत्मीयजनों!आपके अतिरिक्त आपके शरीर में ही नहीं वरन इस संपूर्ण अनंतकोटि ब्रह्माँण्ड़ में भी,

अन्य किसी की भी वास्तविक व स्थाई सत्ता कहीं विद्यमान ही नहीं है!अर्थात एकमात्र आपके अतिरिक्त,अन्य किसी का भी अजर अमर,अविनाशी,

अखण्ड़,अनंत,अभेद,अव्यक्त,अगोचर,सत्य सनातन,पुरातन,शाश्वत एवं अपरिवर्तन शील सत्ता(अस्तित्व) कहीं है ही नहीं!इतने महाँन हो आप!जागो!होंश में आओ!ध्यान दो अपनी महिमा पर!ऊँ नमो नारायणाय

No matter how many low or high sins or virtues the three qualities generated by nature cause your and our bodies to commit, they cannot even touch us despite their best efforts.

Why? Because we ourselves are the true form of that Sachchidananddhaan unexpressed form of the nirgun formless Supreme Brahma!

Which is not only from these three qualities, but also from the entire creations, natures, fourteen worlds, three times, three states, three worlds,

Nine divisions, nine holes i.e. (black holes) the three dimensions, two mothers of knowledge and ignorance, (Maya) the four antahkarans, eight types of ignorance.

Just as our bodies including earth, water, fire, air, sky and mind, intellect and ego are beyond the senses!

That is, we too have one form of God, two forms of Maya, three forms of Gunas, Kaal, Loka, Aayam, four forms of Vedas and Anthakaran, five Mahabhutas, six vices, seven sages,

The eight Vashus, the nine Shaktis or gates i.e. the Black Holes, the ten Dishas, ​​the eleven Rudras, the twelve Adityas (Suns), the thirteen Pitras,

And all the other worlds including the fourteen Bhuvans are beyond them in this worldly conceptual world, past and microscopic!

Therefore, no one can touch us with his power, knowledge, strength, wealth or by the influence of any temptation or weapon.

If we ourselves do not immerse ourselves in the lap of Avidya Maya, then what will arise due to the combination of Avidya and Vidya Maya,

There is no such powerful being in this entire inanimate animate nature and creation, who can give us sorrow, suffering and pain in any way! Who can even touch us!

Because apart from our own self, whatever else you see with your eyes, hear with your ears, and smell with your nose!

You taste with your tongue, you touch with your skin, you know with your intellect, you recognize with your intellect, you do and enjoy with your ego, you accept or reject with your mind.

All that is just the imagination of our minds! It is just an attitude and thought! It is just a dream! And who is the reason for these thoughts, attitudes, imaginations and dreams?

It is only because of our and your belief that I, the soul, am not separate from God but am different from Him. I am a living being, I am a body, I am born and die etc.

These thoughts of yours and ours, generated by Avidya, are forcing us to see and accept untruth as truth and truth as untruth.

Because as long as you see yourself as different from the Sachchidanandaghan unmanifested Brahman, you consider yourself a soul, still you will see everyone with discrimination!

Due to which it will appear to you that there are many souls! Even if you think of a living being, there are many living beings, it will still appear like this! And even if you think of a body, it will still appear like there are many bodies!

And it will also be seen that all the souls, creatures and bodies etc. are different! And as long as anyone else’s existence other than you remains separate from you,

Till then you cannot be free from all the sorrows, troubles and pains! Because the existence and power of others is the root cause of our ignorance.

We considered ourselves different from the truth, hence we got entangled in the web of untruth! And even after creating such a vast world, we could not make it as permanent and unchangeable as the truth!

Why? Because the basis of this worldly, dreamy and ideological creation of ours is ignorance! It is untruth! It is darkness! It is ignorance! That is why this world always remains temporary and changing!

This world has been created by our ignorance and it is only through our education that the true form of its falsehood becomes visible.

Due to which we get to know our true original form, which is also called Sachchidanandghan Brahma or Vishnu, which is also called Paramdham! It is also called Vaikunthalok, Satyalok, Amarlok etc.

We remember it! And when we remember, we clearly see that we are not present in this world, just as the person speaking on the radio is not inside that radio.

Similarly, even though various types of actions and behavior are performed by the rays of this body, we are not in it! Nor do we do any action or behavior.

Because the entire infinite cosmic action and behavior is done by the three gunas arising from our own triple nature! Which the man under the influence of ignorance and Maya considers as our doing!

Because this human being, just an effigy of clay, does not know the secret that this creation is just a unique imagination of our minds.

We are not born or created from this nature or creation. Rather, it is created from us, that is, it is born from our mind.

We are the ones with the power of our will to see ourselves the way humans want to see us or each other or this world.

Therefore, know and recognize your glory, dear loved ones! Not only in your body but also in this entire infinite universe,

No one else’s real and permanent existence exists anywhere! That is, apart from you alone, no one else’s existence is immortal, indestructible,

There is no unbroken, infinite, indistinct, unmanifested, imperceptible, true, eternal, ancient, eternal and unchanging existence anywhere! You are so great! Wake up! Come to your senses! Meditate on your glory! Om Namo Narayana.

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *