“अनोखी गुरुदक्षिणा”

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            महर्षि अगस्त्यजी के शिष्य सुतीक्ष्ण गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। विद्याध्ययन समाप्त होने पर एक दिन गुरूजी ने कहा : “बेटा ! तुम्हारा अध्ययन समाप्त हुआ। अब तुम विदा हो सकते हो।”


            सुतीक्ष्ण ने कहा : “गुरुदेव ! विद्याध्ययन के बाद गुरूजी को गुरुदक्षिणा देनी चाहिए। अत: आप कुछ आज्ञा करें।”


           गुरु बोले : “बेटा ! तुमने मेरी बहुत सेवा की है। सेवा से बढ़कर कोई भी गुरुदक्षिणा नहीं। अत: जाओ, सुखपूर्वक रहो।”


           सुतीक्ष्ण ने आग्रहपूर्वक कहा : गुरुदेव ! बिना गुरुदक्षिणा दिये शिष्य को विद्या फलीभूत नही होती। सेवा तो मेरा धर्म ही है, आप किसी अत्यंत प्रिय वस्तु के लिए आज्ञा अवश्य करें।”
        

   गुरूजी ने देखा कि सुदृढ़ निष्ठावान शिष्य मिला है, तो हो जाय कुछ कसौटी। गुरूजी ने कहा : “अच्छा, देना ही चाहता है, तो गुरुदक्षिणा में सीतारामजी को साक्षात् ला दे।” सुतीक्ष्ण गुरूजी के चरणों में प्रणाम करके जंगल की ओर चल दिया।


          जंगल में जाकर घोर तपस्या करने लगा। वह पूरे मन एवं ह्रदय से गुरुमंत्र के जप, भगवन्नाम के कीर्तन एवं ध्यान में तल्लीन रहने लगा। जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुतीक्ष्ण के धैर्य, समता और गुरु-वचन के प्रति निष्ठा और अडिगता में बढ़ोत्तरी होती गयी। कुछ समय पश्चात भगवान माँ सीतासहित वहाँ पहुँचे जहाँ सुतीक्ष्ण ध्यान में तल्लीन होकर बैठा था।
       

   प्रभु ने आकर उसके शरीर को हिलाया-डुलाया पर उसे कोई होश नहीं था। तब रामजी ने उसके ह्रदय में अपना चतुर्भुजीरूप दिखाया तो उसने झट-से आँखें खोल दीं और श्रीरामजी को दंडवत प्रणाम किया। भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने उसे अविरल भक्ति का वरदान दिया। सुतीक्ष्ण गुरूजी को गुरुदक्षिणा देने हेतु सीतारामजी को लेकर गुरु-आश्रम की ओर निकल पड़ा।


          महर्षि अगस्त्य के आश्रम में जाकर श्रीरामजी एवं सीता माता उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा में बाहर खड़े हो गये। परन्तु सुतीक्ष्ण को तो आज्ञा लेनी नहीं थी, उसने तुरन्त अंदर जाकर गुरुचरणों में साष्टांग दंडवत करके सरल, विनम्र भाव से कहा : “गुरुदेव ! मैं गुरुदक्षिणा देने आया हूँ। सीतारामजी द्वार पर खड़े आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
          अगस्त्यजी का ह्रदय शिष्य के प्रति बरस पड़ा। गुरु की कसौटी में शिष्य उत्तीर्ण हो गया था। गुरु को पूर्ण कृपा बरसाने के लिए पात्र मिल गया था। उन्होंने शिष्य को गले लगाया और अपना पूर्ण गुरुकृपा का अमृतकुम्भ शिष्य के ह्रदय में उड़ेल दिया।
          अगस्त्यजी सुतीक्ष्ण को साथ लेकर बाहर आये और श्रीरामचन्द्रजी व सीता माता का स्वागत-पूजन किया।
         धन्य हैं सुतीक्ष्णजी जिन्होंने गुरुआज्ञा पालन में तत्पर होकर गुरुदक्षिणा में भगवान को ही ला के अपने गुरु के द्वार पर खड़ा कर दिया। जो दृढ़ता, तत्परता और ईमानदारी से गुरुआज्ञा-पालन में लग जाता है, उसके लिए प्रकृति भी अनुकूल बन जाती है; और-तो-और भगवान भी उसके संकल्प को पूरा करने में सहयोगी बन जाते हैं। धन्य हैं ऐसे शिष्य जो धैर्य, तितिक्षा एवं सुदृढ़ गुरुनिष्ठा का परिचय देते हुए तत्परता से गुरुकार्य में लगे रहते हैं, और आखिर गुरु की पूर्ण प्रसन्नता, पूर्ण संतोष एवं पूर्ण कृपा को पाकर जीवन का पूर्ण फल प्राप्त कर लेते हैं।
                      

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महर्षि अगस्त्यजी के शिष्य सुतीक्ष्ण गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। विद्याध्ययन समाप्त होने पर एक दिन गुरूजी ने कहा : “बेटा ! तुम्हारा अध्ययन समाप्त हुआ। अब तुम विदा हो सकते हो।”
सुतीक्ष्ण ने कहा : “गुरुदेव ! विद्याध्ययन के बाद गुरूजी को गुरुदक्षिणा देनी चाहिए। अत: आप कुछ आज्ञा करें।”
गुरु बोले : “बेटा ! तुमने मेरी बहुत सेवा की है। सेवा से बढ़कर कोई भी गुरुदक्षिणा नहीं। अत: जाओ, सुखपूर्वक रहो।”
सुतीक्ष्ण ने आग्रहपूर्वक कहा : गुरुदेव ! बिना गुरुदक्षिणा दिये शिष्य को विद्या फलीभूत नही होती। सेवा तो मेरा धर्म ही है, आप किसी अत्यंत प्रिय वस्तु के लिए आज्ञा अवश्य करें।”
गुरूजी ने देखा कि सुदृढ़ निष्ठावान शिष्य मिला है, तो हो जाय कुछ कसौटी। गुरूजी ने कहा : “अच्छा, देना ही चाहता है, तो गुरुदक्षिणा में सीतारामजी को साक्षात् ला दे।” सुतीक्ष्ण गुरूजी के चरणों में प्रणाम करके जंगल की ओर चल दिया।
जंगल में जाकर घोर तपस्या करने लगा। वह पूरे मन एवं ह्रदय से गुरुमंत्र के जप, भगवन्नाम के कीर्तन एवं ध्यान में तल्लीन रहने लगा। जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुतीक्ष्ण के धैर्य, समता और गुरु-वचन के प्रति निष्ठा और अडिगता में बढ़ोत्तरी होती गयी। कुछ समय पश्चात भगवान माँ सीतासहित वहाँ पहुँचे जहाँ सुतीक्ष्ण ध्यान में तल्लीन होकर बैठा था।
प्रभु ने आकर उसके शरीर को हिलाया-डुलाया पर उसे कोई होश नहीं था। तब रामजी ने उसके ह्रदय में अपना चतुर्भुजीरूप दिखाया तो उसने झट-से आँखें खोल दीं और श्रीरामजी को दंडवत प्रणाम किया। भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने उसे अविरल भक्ति का वरदान दिया। सुतीक्ष्ण गुरूजी को गुरुदक्षिणा देने हेतु सीतारामजी को लेकर गुरु-आश्रम की ओर निकल पड़ा।
महर्षि अगस्त्य के आश्रम में जाकर श्रीरामजी एवं सीता माता उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा में बाहर खड़े हो गये। परन्तु सुतीक्ष्ण को तो आज्ञा लेनी नहीं थी, उसने तुरन्त अंदर जाकर गुरुचरणों में साष्टांग दंडवत करके सरल, विनम्र भाव से कहा : “गुरुदेव ! मैं गुरुदक्षिणा देने आया हूँ। सीतारामजी द्वार पर खड़े आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
अगस्त्यजी का ह्रदय शिष्य के प्रति बरस पड़ा। गुरु की कसौटी में शिष्य उत्तीर्ण हो गया था। गुरु को पूर्ण कृपा बरसाने के लिए पात्र मिल गया था। उन्होंने शिष्य को गले लगाया और अपना पूर्ण गुरुकृपा का अमृतकुम्भ शिष्य के ह्रदय में उड़ेल दिया।
अगस्त्यजी सुतीक्ष्ण को साथ लेकर बाहर आये और श्रीरामचन्द्रजी व सीता माता का स्वागत-पूजन किया।
धन्य हैं सुतीक्ष्णजी जिन्होंने गुरुआज्ञा पालन में तत्पर होकर गुरुदक्षिणा में भगवान को ही ला के अपने गुरु के द्वार पर खड़ा कर दिया। जो दृढ़ता, तत्परता और ईमानदारी से गुरुआज्ञा-पालन में लग जाता है, उसके लिए प्रकृति भी अनुकूल बन जाती है; और-तो-और भगवान भी उसके संकल्प को पूरा करने में सहयोगी बन जाते हैं। धन्य हैं ऐसे शिष्य जो धैर्य, तितिक्षा एवं सुदृढ़ गुरुनिष्ठा का परिचय देते हुए तत्परता से गुरुकार्य में लगे रहते हैं, और आखिर गुरु की पूर्ण प्रसन्नता, पूर्ण संतोष एवं पूर्ण कृपा को पाकर जीवन का पूर्ण फल प्राप्त कर लेते हैं।

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