[14]हनुमान की आत्मकथा जी

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आज  के  विचार

(समुद्र को जब मैंने लाँघा – हनुमान)
भाग-14

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना,
एही भाँति चलेउ हनुमाना !
(रामचरितमानस)

भरत भैया !   सौ योजन सागर पार छलाँग लगाने के लिए… कोई सुदृढ़ आधार तो चाहिए ना  !

पर मेरे साथ एक दिक्कत हो रही थी… मैं जिस पहाड़ पर अपने पैर रख रहा था…वो पहाड़ ही  भरभरा के गिर रहे थे…

मैंने बहुत पर्वतों में अपने पैर जमा के देख लिए पर सारे के सारे पर्वत धँस जाते थे सागर में ही  ।

मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं करूँ क्या  ?

तब जामवन्त ने जोर से कहा जोर से इसलिए भरत भैया ! कि मेरे उस विशाल देह के कारण…आँधी तेज़ी से चल पड़ी थी ।

जामवन्त की आवाज मुझ तक पहुंची… अपने शरीर को कुछ कम कीजिये पवनसुत !         हाँ… तब मैंने संकल्प शक्ति से अपने शरीर को कुछ कम किया था ।

एक पर्वत था मन्दराचल पर्वत… समुद्र में… मैं  उस पर चढ़ गया…पर ये क्या मेरे चढ़ते ही… मेरे भार को वह विशाल मन्दराचल भी सह नही पा रहा था वो समुद्र में धँसने लगा ।

मैंने दोनों हाथों को ऊपर उठाया… ताकि आकाश से उड़ने में आसानी हो… मन्दराचल पर्वत धँस रहा था… मैंने आँखें बन्द कीं और प्रभु श्री राम को याद किया… मेरे हृदय में विराजमान प्रभु श्रीराम भद्र ने मुझे आशीर्वाद दिया… मैंने मन ही मन में कहा- आपका मैं बाण हूँ ।

आपको किंचित भी अहंकार नही आया ? इतना कठिन कार्य आपसे ही सम्भव हो रहा था… फिर भी आपको अहंकार नही… ये कैसे सम्भव हो गया ?    भरत जी ने हनुमान जी से पूछा ।

हनुमान जी ने हँसते हुए कहा… धनुष से बाण छूटता है… और वह बाण दुष्कर कार्य करके  आ जाये… तो क्या बाण को अभिमान होता है भरत भैया ?

बाण को क्यों अभिमान होना चाहिये ? अभिमान हो तो  बाण को धनुष में रख कर चलाने वाले को हो तो हो…भरत भैया !  मैं तो रघुवीर का बाण हूँ… उन्होंने ही मुझे चलाया है इसमें मेरे अहंकार का कोई अर्थ ही नही है… हनुमान जी ने भरत जी से कहा ।

हनुमान जी !   मन्दराचल पर्वत डूब रहा है…  छलाँग लगाइये !

अंगद ने चिल्लाकर कहा ।

मैंने नीचे देखा मन्दराचल धँस चुका था समुद्र में… मैंने जोर से  पुकारा…  “श्री राम जय राम जय जय राम”

और मैं कूद गया ।

जब मैं कूदा था मेरा वेग इतना तीव्र था कि… जड़ के सहित वृक्ष उखड़ रहे थे…नहीं नहीं  भरत भैया ! उखड़ ही नही रहे थे… वो भी मेरे पीछे कुछ दूरी तक उड़ते थे… फिर समुद्र में जाकर गिर रहे थे ।

अरे ! वृक्ष ही क्या… बड़ी-बड़ी चट्टानें भी उड़ कर समुद्र में गिर रही थीं… भरत भैया !  मैंने  एक बार अपने पीछे  मुड़ कर देखा था तो तूफ़ान उठा  हुआ था मेरे पीछे तो… ।

हनुमान जी सहजता में बोल रहे थे… भरत भैया !    जब मैं लंका से लौटकर आया ना तब वानरों ने मुझे दिखाया था… कि मेरे उड़ने के कारण… मेरे उड़ने की तीव्रता के कारण… जंगल के जंगल…  उस जंगल में रहने वाले बड़े-बड़े हिंसक प्राणी भी  समुद्र में गिर गए थे ।

भरत भैया !   जामवन्त ने हिसाब लगाया था  सबसे तेज़ गति होती है वायु की… पर वायु से भी तेज़ गति होती है प्रकाश की… पर प्रकाश से भी तेज़ गति होती है मन की… पर मन से भी तेज़ गति होती है… भगवान नारायण के वाहन गरुण की… पर जामवन्त ने मुझे लौटने पर कहा था गरुण से भी तेज़ गति थी हे पवनसुत ! आपकी   ।

मैं आकाश में उड़ गया था…

पर ये क्या सागर से एक गम्भीर आवाज मुझे सुनाई दी ।

हे रामदूत !  हे पवनपुत्र !  हे अंजनी नन्दन !
हमारा स्वागत सत्कार स्वीकार करो ।

मैंने पहले तो सागर से उठ रहे इन शब्दों की  उपेक्षा की…

पर उपेक्षा करना उचित नही होगा ऐसा विचार करके मैंने जब ध्यान से देखा… तो  मुझे भी आश्चर्य हुआ था ।

एक विशाल पर्वत समुद्र से ऊपर की ओर धीरे-धीरे आ रहा था, उस पर्वत ने अपना नाम बताया… “मैनाक”  !

भरत भैया !    उस पर्वत के अधिदेवता भी मेरे सामने प्रकट हो गए थे ।

एक हाथ में  मणि माणिक्य लिए हुए… दूसरे हाथ में फल-फूल इत्यादि लेकर मेरे सामने प्रस्तुत थे… “पर्वत मैनाक” ।

आप विश्राम करें हे पवन पुत्र !   आप कुछ  आहार स्वीकार करें ।

मैनाक ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की ।

भरत भैया !   राम काज में कहाँ थकान है ?

मैंने मैनाक पर्वत को कहा भी राम के कार्य को जब तक मैं पूरा नही करूँगा… तब तक मैं विश्राम कैसे करूँ  !

सावधान था मैं भरत भैया !… मैंने मना तो कर दिया पर्वत के इतने बड़े वैभव को… पर अब मेरे मन में अहंकार आ सकता है… और ये अहंकार कि… मैंने  त्यागा !  मैंने  मना कर दिया… कितने मणि माणिक्य थे उस मैनाक पर्वत के पास… पर मैंने त्याग दिया…।

भरत भैया !  अहंकार बहुत सूक्ष्म है…

मैं सवधान हुआ… और मैंने  तुरन्त अपना दाहिना हाथ मैनाक पर्वत के ऊपर रख कर आगे के लिए बढ़ गया था ।

मैंने आगे बढ़ते हुए हाथ जोड़कर प्रणाम भी किया था मैनाक पर्वत को ।

तभी समुद्र में से नाना प्रकार के रत्न प्रकट होने लगे थे… आकाश से नन्हीं-नन्हीं  बूँदे पड़ने लगीं थीं… मेरी तेज़ गति के कारण पुष्पों के वृक्ष उड़ते हुए मेरे ऊपर ही आकर बरस रहे थे… मानो ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति ही मेरे स्वागत को  उत्सुक है  ।

************************************

हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा… 

कौन है तू  ?  मैं तुझे छोडूंगी नही… बोल कौन है तू ?

बहुत दिनों के बाद आज मुझे आहार मिला है… मैं तुझे खाऊँगी ।

सुरसा ये नागों की माता हैं…

हनुमान जी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया… और बड़े प्रेम से कहा माते !  मुझे अभी जाने दो मैं प्रभु श्री राम का कार्य करने जा रहा हूँ… बस “रामकाज” करके  मैं लौट आऊँ… फिर आपको मुझे खाना हो… खा लेना  ।

सुरसा सोच में पड़ गयी… 

फिर बोली –  ए बन्दर !   तुझे क्या पता नही है… मैं सर्पों की माता हूँ… भूख लगती है मुझे तो मैं अपने बच्चों को भी नही छोड़ती… फिर तुझे कैसे छोड़ दूंगी ।

भरत भैया !  वो मुझे खाने के लिए आगे बढ़ी…

उसने एक योजन का अपना मुख बना लिया था… भरत भैया ! मैंने भी उससे दुगुना अपना शरीर बढ़ा लिया ।

उसने सोलह योजन किया अपना मुख… मैंने  बत्तीस योजन बढ़ा कर लिया अपना शरीर…।

वो बढ़ती जा रही थी वो सुरसा अपने मुख को निरन्तर बढ़ाये जा रही थी  मुझे खाने के लिये… पर मैं उससे दुगुना ही अपना रूप बना रहा था ।

अब तो सुरसा ने सौ योजन का मुख फैला लिया… भरत जी ने पूछा…  सौ योजन तो सागर है ?

हाँ भरत भैया !  सुरसा ने समुद्र के इस छोर से… उस छोर तक का अपना मुख बनाया…।

भरत जी  सुन रहे हैं… आपने दो सौ योजन बढ़ा लिया होगा अपना शरीर ?  भरत जी की बातें सुनकर  हनुमान जी ने कहा- नहीं भरत भैया !      उसने जैसे ही सौ योजन मुख का विस्तार किया… मैं तुरन्त ही छोटा हो गया ।

बहुत छोटा और इतना छोटा बनकर सुरसा के मुख से प्रवेश करके… उसके भीतर पूरा घूम कर वापस नाक से होकर निकल भी गया बाहर…।

और हाथ जोड़कर बोला… हे माँ ! आपके पेट में जाकर आ गया हूँ… आपने मुझे खा लिया है…  अब बताइये आप क्या चाहती हैं ।

हे पवनपुत्र !  मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुमसे… जाओ वत्स !  राम कार्य में सफल रहो… जाओ !  

इतना कहते हुए  सुरसा ने मुझे शुभ कामना दी…  और मैं आगे की ओर बढ़ गया ।

भरत भैया !   कभी-कभी कोई-कोई काम बड़े बनने से नही होते… वहाँ छोटा बनना ही पड़ेगा ।

हर जगह में संघर्ष से काम नही चलता कहीं-कहीं नम्रता  आवश्यक है…  ।

हाँ  हनुमान जी ! इस बात को आपसे ज्यादा और कौन जान सकता है !

इतने बड़े पराक्रमी होकर भी महावीर होकर भी आपमें कितनी सहजता और सरलता है… नम्रता विनम्रता की साक्षात् मूर्ति हैं आप तो भरत जी ने  हनुमान जी से कहा  ।

साष्टांग प्रणाम कर रहे थे हनुमान जी भरत जी को और क्या सुंदर दृश्य था उस अवध के उपवन का… भरत जी हनुमान जी को प्रणाम कर रहे थे।

शेष चर्चा कल… 

रघुपति प्रिय भक्तम् वातजातं नमामि… 

Harisharan



thoughts of the day

(When I crossed the ocean – Hanuman) Part-14

Jimi Amogha Raghupati Kar Bana, This is how you walked, Hanuman! (Ramacharitmanas)

Brother Bharat! To jump across a hundred yojan ocean… a strong base is needed, isn’t it?

But there was a problem with me… the mountain on which I was keeping my feet… those mountains were falling in full swing…

I tried to set my feet in many mountains, but all the mountains used to sink in the ocean itself.

I could not understand what should I do?

Then Jamwant said loudly that’s why brother Bharat! That because of that huge body of mine…the storm was blowing fast.

Jamwant’s voice reached me… reduce your body a bit Pawansut! Yes… Then I reduced my body a bit with the power of will.

There was a mountain Mandarachal mountain… in the sea… I climbed on it… but what is this as soon as I climbed… even that huge Mandarachal was not able to bear my weight, it started sinking in the sea.

I raised both my hands up…so that it would be easy to fly through the sky…Mandarachal mountain was collapsing…I closed my eyes and remembered Lord Shri Ram…Lord Shriram Bhadra, seated in my heart, blessed me…I I said in my mind – I am your arrow.

Don’t you have even a bit of arrogance? Such a difficult task was possible only because of you… still you don’t have ego… how did it become possible? Bharat ji asked Hanuman ji.

Hanuman ji laughingly said… The arrow is released from the bow… and that arrow comes after doing a bad thing… So does the arrow have pride, brother Bharat?

Why should Baan be proud? If there is pride, then the one who keeps the arrow in the bow and shoots it, then yes… Bharat Bhaiya! I am Raghuveer’s arrow… He has made me run, there is no meaning of my ego in this… Hanuman ji said to Bharat ji.

Hanuman ! Mandarachal mountain is sinking… take a jump!

Angad shouted.

I looked down, Mandarachal had sunk into the sea… I called out loudly… “Shri Ram Jai Ram Jai Jai Ram”

And I jumped.

When I jumped, my speed was so fast that… trees along with the roots were uprooted… No no Bharat Bhaiya! They were not uprooted at all… they also used to fly behind me for some distance… then they were falling in the sea.

Hey ! What about trees… Big rocks were also flying and falling into the sea… Brother Bharat! Once I looked behind me and saw that the storm was raging behind me.

Hanuman ji was speaking easily… Bharat Bhaiya! When I came back from Lanka, the monkeys had shown me… that because of my flying… because of the intensity of my flying… the jungle of the jungle… even the big predatory creatures living in that jungle fell into the sea. Were .

Brother Bharat! Jamwant had calculated that the fastest speed is the wind… but the speed of light is faster than air… but the speed of mind is faster than light… but the speed of mind is faster than… Lord Narayan’s vehicle Garun’s… but Jamwant told me on his return that he was faster than Garun, O son of wind! Yours .

I flew in the sky…

But what is this, I heard a serious voice from the ocean.

Hey Ramdoot! Oh son of wind! Hey Anjani Nandan! Please accept our hospitality.

At first I ignored these words rising from the ocean…

But when I looked carefully thinking that it would not be appropriate to ignore… I was also surprised.

A huge mountain was slowly coming upwards from the sea, that mountain told its name… “Mainak”!

Brother Bharat! The presiding deities of that mountain also appeared before me.

In one hand he was carrying a gem, in the other hand he was presented in front of me with fruits and flowers… “Mountain Mainak”.

You rest O son of wind! You accept some diet.

Mainak prayed with folded hands.

Brother Bharat! Where is the tiredness in Ram’s work?

I told Mainak mountain too, until I complete the work of Ram… how can I rest till then!

I was careful Bharat Bhaiya!… I refused such a great splendor of the mountain… but now I can have ego… and this ego… I left it! I refused… There were so many gems near that Mainak mountain… But I gave up…

Brother Bharat! Ego is very subtle…

I became alert… and immediately I moved forward by placing my right hand on the top of Mount Mainak.

While moving forward, I also bowed down to Mount Mainak with folded hands.

That’s why different types of gems started appearing from the ocean… Small drops started falling from the sky… Due to my fast speed, the trees of flowers were flying and raining on me… It seemed as if It was as if nature itself was eager to welcome me.

************************************

Ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha…

who are you ? I will not leave you… Tell me who are you?

Today I have got food after many days… I will eat you.

Sursa is the mother of snakes.

Hanuman ji bowed down with folded hands… and said with great love, Mother! Let me go now, I am going to do the work of Lord Shri Ram… I will return after doing “Ram Kaj”… then you have to eat me… eat it.

Sursa got thinking…

Then said – O monkey! What don’t you know… I am the mother of snakes… When I feel hungry, I don’t even leave my children… Then how will I leave you?

Brother Bharat! She proceeded to eat me…

He had made a plan his face… Bharat Bhaiya! I also increased my body double than that.

He increased his mouth by sixteen yojanas… I increased my body by thirty-two yojanas….

She was increasing, that Sursa was continuously increasing her mouth to eat me… but I was making my form twice that.

Now Sursa has spread the mouth of a hundred schemes… Bharat ji asked… Is the ocean a hundred schemes?

Yes brother Bharat! Sursa made his mouth from this end of the ocean to that end.

Bharat ji is listening… You must have increased your body by two hundred schemes? After listening to Bharat ji’s words, Hanuman ji said – No brother Bharat! As soon as he expanded his mouth to a hundred yojanas… I became small immediately.

Entering through the mouth of Sursa after becoming very small and so small… after turning around completely inside it, came back out through the nose….

And folded hands and said… Oh mother! I have come in your stomach… You have eaten me… Now tell me what you want.

Oh son of wind! I am very happy with you… Go Vats! Be successful in Ram’s work… Go!

Saying this, Sursa wished me good luck… and I moved on.

Brother Bharat! Sometimes some work is not done by being big… there one has to become small.

Struggle does not work everywhere, humility is necessary at some places….

Yes Hanuman ji! Who else can know this thing more than you!

Despite being such a mighty warrior, how much ease and simplicity do you have… Bharat ji told Hanuman ji that you are the embodiment of humility.

Hanuman ji was prostrating to Bharat ji and what a beautiful sight it was in that garden of Awadh… Bharat ji was saluting Hanuman ji.

Rest of the discussion tomorrow…

I bow to the dear devotee of Raghupati, born of the wind.

Harisharan

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