*मीरा चरित भाग 3

राव जयमल की तीन रानियां थी। इनमें से दो राजकुमारी और सोलह राजकुमार हुए। पांचवे पुत्र मुकंद दास उनके उत्तराधिकारी हुए। ये खंडेला के निर्वाण राजा केशव दास के दोहित्र थे। इनका विवाह चित्तौड़ के महाराणा और मीराबाई के देवर रतन सिंह की पुत्री श्यामकुँवरी बाईसा से हुआ। इनकी चार रानियां थी। ये ही मेड़तिया राठौड़ की जयमलोत शाखा के पाटवी हुए। मुकुंद दास के पुत्र माधोमनदास उनके पुत्र सांवलदास और सांवलदास के पांचवे पुत्र अमर सिंह को मोड़का निंबाहेड़ा की जागीर मिली।

राजघरानों के रिवाज के अनुसार मीराबाई को अपने ससुर महाराणा सांगा से प्रथम प्रणाम के उपलक्ष में पुर और मांडल परगने की भूमि हाथ खर्च के लिए मिली थी। इनमें से 2000 बीघा सिंचित भूमि उन्होंने अपने मायके से साथ आये श्री गजाधर जोशी को निर्वाह के लिए प्रदान की थी। राजपूत परिवारों में बहू का नाम लेने की प्रथा नहीं थी। उसके मायके की शाखा से उसे संबोधित किया जाता था जैसे मेड़तणी जी, राणावत जी, पुंवार जी, शक्तावत जी, चुंडावत जी, भटियाणी जी आदि।
मीराबाई को भी मेड़तणी जी ही कहा जाता था। उनके भजनों में उनके नाम की छाप लगने के कारण ही उनका नाम प्रसिद्ध हुआ।

मीरा नाम पर अनुस्वार या अर्धचंद्र लगाकर बहुवचन बनाकर आदर युक्त संबोधन किया जाता है जैसे तुलसी को तुलसाँ, महल को महलाँ, गौरी को गोरां, घर को घरां आदि।
*परंपरा के अनुसार किसी भी राज-कन्या के विवाह के पश्चात उसके साथ पीहर से नौकर चाकरों के परिवार, राजपूत परिवार, सैनिक, गाय-भैंस, घोड़े-हाथी और इनसे संबंधित संपूर्ण लवाजमा जाता। ससुराल में बहू को जो महल आवास के लिए मिलता उसकी ड्योढ़ी पर उसके पीहर वालों का ही पहरा रहता था। उस महल में ससुराल की दी हुई कुछ एक दास-दासी रहते। अन्य सब पीहर के लोग ही रहते थे। इनका भरण-पोषण बहू को मिली जागीर से होता।

जन्म और शैशव ………

“अन्नदाता हुक्म का आदेश है कि आज से भागवत जी की कथा आरंभ हो रही है। छोटी बहू से कहना कि मन लगाकर सुने और जो बात समझ में न आए उसे सांझ के समय किसी के द्वारा पूछवा ले।”
एक बूढ़ी दासी ने आकर रतन सिंह जी की पत्नी श्री झाली जी जिनका नाम वीरकुँवरी जी था, उनसे निवेदन किया। मेड़ता के राव दूदा जी जैसे तलवार के धनी थे, वैसे ही वृद्धावस्था में उनमें भक्ति छलकी पडती थी। पुष्कर आने वाले अधिकांश संत मेड़ता आमंत्रित होते और संपूर्ण राज परिवार सत्संग सागर में अवगाहन कर धन्य हो जाता। राज महल में सदा ही कोई ना कोई संत पुराण कथा या प्रवचन करते ही रहते। उस समय भी वृंदावन से एक संत पधारे हुए थे। दुदा जी ने उनसे भागवत प्रवचन करने की प्रार्थना की। संत के स्वीकार कर लेने पर उन्होंने अपनी गर्भवती पुत्रवधू को मन लगाकर सुनने की आज्ञा दी और आग्रह किया।

कथा प्रारंभ हो गई। संपूर्ण राजपरिवार अपनी-अपनी सुविधा अनुसार लाभ लेने लगा।
एक दिन वीरकुँवरी जी ने पूछावाया कि “जो पूर्ण काम है उसे एकोSहं बहुस्याम की कामना क्यों कर हुई?”
एक दिन और पूछा “यदि माया भगवान के सामने टिक नहीं सकती तो क्या उसकी सृष्टि किसी और ने की है?”
उनकी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी फिर पूछवाया कि “भगवान पापियों को और पाप को नष्ट करने के लिए धरती पर अवतरित होते हैं यह बात समझ में नहीं आती। पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, अच्छाई-बुराई यही सब मिलकर संसार बना है तब इसमें से किसी भी तत्व को मिटाना ईश्वर का लक्ष्य कैसे हो सकता है? जिसके भ्रू-संकेत से सृष्टि और प्रलय उपस्थित होते हैं उसे इतने छोटे कार्य के लिए आना अनिवार्य हो यह कैसी बात है? एक प्रश्न और कि सुकृति जन तो अपने पुण्य बल से, भक्त अपने भक्ति बल से और ज्ञानी अपने आत्म बल से सुरक्षित है तब ‘धर्मो रक्षति रक्षित:’ क्या असत्य है?”

उन्होंने फिर पूछा “पाप तो प्रभु की पीठ है इसके बिना पुण्य की, धर्म की क्या प्रतिष्ठा, क्या पहचान?”
दशम स्कंध आरंभ होने के पश्चात रनिवास से कोई प्रश्न बाहर नहीं आया। राव दूदा जी ने पूछवाया “अब बीनणी (बहू) को कुछ नहीं पूछना?”
उत्तर में वधू ने अस्वीकृति में सिर हिला दिया मानो सारे प्रश्नों का समाधान हो गया हो। उन्हें लगा कि आने वाला बालक महामनस्वी है। 9 महीने तक कथा चलती रही। दशम मास में संवत 1561 आश्विन शुक्ल पूर्णिमा की दोपहर के समय अंतःपुर की प्रधान दासी आनंदी देवी ने आकर राव दूदा जी को बधाई दी “अन्नदाता हुकम को बधाई अर्ज है। छोटे कुंवरसा के बाईसा का जन्म हुआ है।”
हर्ष के आवेग में दूदा जी ने गले से स्वर्ण श्रृंखला उतारकर दासी की अंजली में रख दी। वीरमदेव, रायमल, रायसल और इनकी पत्नियों ने भी बधाई में आभूषणों मोहरों की वर्षा की। समान तथा कम उम्र वालों ने एकांत में रतन सिंह जी से भी बधाई मांगी। थोड़ा सकुचाते हुये छिपाकर उन्होंने किसी की मांग पूरी की और किसी को दाता के पास जाने का आदेश दिया।
15 दिन तक शहनाई और गाने बजाने से मेड़ता का गढ़ गूंजता रहा ऐसे में रतन सिंह को बड़ी कठिनाई पड़ी। चिर प्रतीक्षित संतान प्राप्ति से मन हर्ष के आवेग से भरा था पर प्रसन्नता व्यक्त करना निरी असभ्यता होती अतः वह इन दिनों अपने एकांत-कक्ष में होते अथवा घोड़े पर बैठकर कहीं घूमने निकल जाते।
क्रमशः

Rao Jaimal had three queens. Of these, two were princesses and sixteen were princes. Fifth son Mukand Das succeeded him. He was the twin of Nirvana Raja Keshav Das of Khandela. He was married to Shyamkunwari Baisa, daughter of Ratan Singh, the Maharana of Chittor and Mirabai’s brother-in-law. He had four queens. He became the Patavi of the Jayamlot branch of Medatiya Rathore. Mukund Das’s son Madhomandas, his son Savaldas and Savaldas’s fifth son Amar Singh got the jagir of Modka Nimbahera.

According to the custom of the royal families, Meerabai had received the land of Pur and Mandal pargana from her father-in-law Maharana Sanga for the first pranam. Out of this, he had provided 2000 bighas of irrigated land to Mr. Gajadhar Joshi, who had come with him from his maternal home, for subsistence. It was not a practice in Rajput families to take the daughter-in-law’s name. He was addressed from the branch of his mother’s house like Medtani ji, Ranawat ji, Punwar ji, Shaktawat ji, Chundawat ji, Bhatiyani ji etc.
Mirabai was also called Medtaniji. His name became famous only because of the impression of his name in his hymns.

By applying Anuswar or Ardhachandra to Meera’s name and making it plural, respectful address is made like Tulsi to Tulsa, Mahal to Mahalan, Gauri to Goran, Ghar to Gharan etc.
*According to the tradition, after the marriage of any royal girl, the family of servants, Rajput family, soldiers, cow-buffalo, horse-elephant and the entire lavajma related to these go with her. The palace that the daughter-in-law got for her residence in her in-laws house was guarded only by her family members. In that palace lived a few male and female slaves given by the in-laws. The people of all the other pehrs used to live there. Their maintenance would have been from the jagir given to the daughter-in-law.

Birth and childhood

“The food giver orders that the story of Bhagwat ji is starting from today. Tell the younger daughter-in-law to listen attentively and ask someone about what she does not understand in the evening.”
An old maid came and requested Ratan Singh ji’s wife Shri Jhali ji whose name was Veerkunwari ji. Like Rao Duda ji of Merta was rich in sword, in the same way in his old age devotion overflowed in him. Most of the saints coming to Pushkar would have been invited to Medta and the entire royal family would have been blessed by attending Satsang Sagar. One or the other saint always used to recite Puranic stories or discourses in the Raj Mahal. At that time also a saint had come from Vrindavan. Duda ji requested him to deliver Bhagwat discourse. On the saint’s acceptance, he ordered and urged his pregnant daughter-in-law to listen attentively.

The story has started. The entire royal family started taking benefits according to their convenience.
One day Veerkunwari ji asked that “Why did the one who has completed the work wish for EkoSham Bahusyam?”
One more day asked “If Maya cannot stand in front of God then has someone else created it?”
His curiosity was increasing, then he asked that “God incarnates on the earth to destroy the sinners and sins. This thing is not understood. Sin-virtue, religion-unrighteousness, good-evil all these together have made the world.” How can it be the aim of God to eliminate any of these elements? How is it necessary for such a small work to come for the one whose brow-signs are present? Since, the devotee is protected by his devotional power and the jnani is protected by his self-power, then ‘dharma rakshati rakshitah’ is not true?”

He again asked “Sin is the back of the Lord, without virtue of virtue, what is the prestige of religion, what is the identity?”
After the commencement of the tenth canto, no question came out of Ranivas. Rao Duda ji asked, “Now don’t you want to ask Binani (daughter-in-law) anything?”
In reply the bride shook her head in disapproval as if all the questions had been resolved. They felt that the coming child is great minded. The story continued for 9 months. In the tenth month of Samvat 1561, Ashwin Shukla Purnima, in the afternoon, Anandi Devi, the head maid of Antahpur, came and congratulated Rao Duda ji, “Congratulations to Annadata Hukam. Chhote Kunvarsa’s Baisa is born.”
In a fit of joy, Duda ji took off the golden chain from his neck and put it in the maid’s hand. Veeramdev, Raimal, Raisal and their wives also showered ornaments and stamps in congratulation. People of equal and younger age also sought congratulations from Ratan Singh ji in solitude. Hiding a little hesitatingly, he fulfilled someone’s demand and ordered someone to go to the donor.
For 15 days, the fort of Merta kept resounding with the playing of shehnai and songs, in such a situation, Ratan Singh had to face a lot of difficulty. The heart was full of joy due to the long-awaited child, but expressing happiness would have been pure rudeness, so these days he would have been in his secluded room or would have gone for a ride on a horse.
respectively

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