मीरा चरित भाग-87

‘दीवानजी तुमसे इतने रूष्ट क्यों हैं बीनणी? नित्य प्रति तुम्हें मारने के लिए कोईन कोई प्रयास करते ही रहते हैं। किसी दिन सचमुच ही कर गुजरेंगे। सुन-सुन करके जी जलता है, पर क्या करूँ? रानी हाँडी जी के अतिरिक्त तो यहाँ हमारी किसी की चलती नहीं। न हो, तुम पीहर चली जाओ’- राजमाता ने कहा।
‘हम कहीं जायें, कुछ भी करें, अपना प्रारब्ध तो भोगना ही पड़ेगा हुकम, दु:ख देनेवाले को ही पहले दुख सताता है, क्रोध करने वाले को ही पहले क्रोध जलाता है, क्योंकि वह जो कुछ दूसरे को देना चाहता है, उसके अपने भीतर मन अथवा हृदय में पहले आता है।जितनी पीड़ा वह दूसरे को देना चाहता है, उतनी वही पीड़ा पहले उसे स्वयं को भोगनी पड़ती है।उस व्यक्ति ने जिसे वह दे रहा है, उसने यदि वह पीड़ा या क्रोध स्वीकार नहीं किया तो?’- मीरा हँस पड़ी – ‘मुझे दीवानजी पर तनिक भी रोष नहीं है। आप चिंता न करें। प्रभु की इच्छा के बिना कोई भी कुछ नहीं कर सकता और प्रभु की प्रसन्नता में मैं प्रसन्न हूँ।’
‘इतना विश्वास, इतना धैर्य तुममें कहाँ से आया बीनणी?’
‘इसमें मेरा कुछ भी नहीं है हुकम ! यह तो संतों की कृपा है। सत्संग ने ही मुझे सिखाया है कि प्रभु ही जीव के सबसे निकट और घनिष्ट आत्मीय है। वही सबसे बड़ी सत्ता हैं। तब भय अपने आप भाग गया। संतों की चरण रज में, उनकी वाणी और कृपा में बहुत शक्ति है हुकम’

‘तुम सत्य कहती हो बीनणी,तभी तुम इतने दु:ख झेलकर भी सत्संग नहीं छोड़तीं किंतु एक बात मुझे समझ नहीं आती, भगवान के घर में यह कैसा अंधेर है कि निरपराध मनुष्य तो अन्याय की घानी में पिलते रहते हैं और अपराधी लोग मौज करते हैं। तुम नहीं जानती कि यह हाँडीजी जब से ब्याह कर आई हैं उसी दिन से हम सौतौं के पैरों तले अंगारे बिछाये हैं।इन्हें केवल अपनी और अपनी ही सूझती रही है।ये राजनीति में पटु हैं।हमें तो अपनी बात भी ठीक से कहने नहीं आता।इसी से श्री जी सदा इन्हीं की बात सुनते और रखते थे।वे केसरी नाहर थे पर इनके आगे वे भी जैसे बेबस हो जाते।अब स्वयं का बेटा दीवान है फिर भी…… ।दीवानजी इन्हीं के कहने में तो होगें।क्यों तुम्हारे पीछे पड़े हैं ये?’
‘आप चिन्ता न करें हुकम, बीती बातों को याद करके दु:खी होने में क्या लाभ है? वे तो चली गईं, अब तो लौटेंगी नहीं। आने वाली भी अपने बस में नहीं, फिर उन्हें सोचकर क्यों चिन्तित होना? अभी जो समय है, उसी का क्यों न उचित ढंग से उपयोग करें। दूसरों के दोषों से हमें क्या? उनका घड़ा भरेगा तो फूट भी जायेगा। न्याय किसी का सगा नहीं है हुकम, भगवान अंधे बहरे नहीं हैं। समय पाकर ही खेती फल देती है और कर्म पकते हैं। अपने दु:ख, अपने ही कर्मों के फल हैं। दु:ख-सुख कोई वस्तु नहीं जो हमें कोई दे सके। सभी अपनी ही कमाई खाते हैं, दूसरे तो केवल निमित्त हैं।’- मीरा ने सासूजी के आँसू पोंछ, उन्हें खिला पिला कर ससम्मान विदा किया।

श्रावणी मास में झुलन लीला

वर्षा की झड़ी में मीरा आंगन में भीग रहा है। दासियों ने बहुत प्रयत्न किया कि वे महल में पधार जाये, किन्तु भाव तरंगो पर बहती हुई वह प्रलाप करने लगीं- सखी ! मैं अपनी सखियों से संदेश पाकर श्यामसुंदर को ढूँढते हुये वन की ओर निकल गयी। जानती हो, वहाँ क्या देखा? एक हाथ में वंशी और दूसरे हाथ से सघन तमाल की शाखा थामें हुये श्यामसुन्दर खड़े हैं। अहा… कैसी छटा है…क्या कहूँ … ऊपर गगन में श्याम मेघ उमड़ रहे हैं। उनमें रह-रहकर दामिनी दमक जाती थी।यहाँ तमाल तले घनश्याम मानों किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे।पवन वेग से पीताम्बर फहरा रहा था।सखी ! उस रूप का कैसे वर्णन करूँ? कहाँ से आरम्भ करूँ? शिखीपिच्छ (मोर के पंख) से या चारू चरण से? वह प्रलम्ब बाहु (घुटनों तक लम्बी भुजाएँ), वह विशाल वक्ष, वह कम्बु कंठ, वह बिम्बाधर, वह नाहर सी कटि (शेर सी कटि), दृष्टि जहाँ जाती है वहीं उलझ कर रह जाती है।वे सघन घुँघराले केश पवन के वेग से दौड़ दौड़ करके कुण्डलों में उलझ जाते है।आज एक और आश्चर्य देखा, मानों घन-दामिनी तीन ठौर पर साथ खेल रहे हों। गगन में बादल और बिजली, धरा पर घनश्याम और पीताम्बर तथा प्रियतम के मुख मण्डल में घनकृष्ण कुंतल (घुँघराली अलकावलि) और स्वर्ण कुण्डल।यह विशेष आश्चर्य मैं खोई खोई सी देख रही थी कि उनके अधरों पर मुस्कान आयी। इधर-उधर देखते हुए उनके कमल की पंखुड़ी से दीर्घ दृगों की दृष्टि मुझ पर आ ठहरी। रक्तिम डोरों से सजे वे नयन, वह चितवन, क्या कहूँ? कौन है सृष्टि में ऐसी कुमारी कि आपा न भूल जाये।मुझे वर्णन करना नहीं आता सखी।कितना भी प्रयत्न करूँ पर वर्णन संभव नहीं।भाषा तो अंततः वही गिने चने अक्षरों की सीमा में सिमटी बँधी है।इससे इस रस सागर का वर्णन कैसे किया जाये? मुझे लगा कि कि हृदय में कुछ स्थान च्युत हो गया है।इधर दुरन्त लज्जा ने कौन जाने कब का बैर याद किया कि नेत्रों में जल भर आया, पलकें मन-मन भर की होकर झुक आयीं। मैं अभी अपने को सँभाल भी नहीं पाई थी कि एक ओर से नुपूर, कंकण और करघनी की मधुर झंकार सुनाई दी।मैं हड़बड़ा गई।अहो, कैसी अज्ञ हूँ मैं ? मैं तो श्री जू का संदेश लेकर आई थी।मैं तो श्यामसुन्दर को झूलने के लिये बुलाने आई थी, पर यहाँ अपने ही झमेले में ही फँस गई। एकाएक मैं गा उठी धीमे स्वर में ……

श्रावणी फुहार में झूलनानंद……

म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी, हिरदै नेह हिलोर जी।
बरसाने रा हरिया बाँगा, हरियाली चहुँ ओर जी।
हरिया सावन हरिया भदवा बिजली बादल घोर जी।
कोयल मोर पपीहा बोले नाचे वन रा मोर जी।
राधे जी रो चुड़लो चमके दमके चूनड़ छोर जी।
पिव दरसन कूँ जिवड़ो उमड़यो राधा नैन चकोर जी।
बाँगा ऊभी सखियाँ थारी मन ना भोत मरोर जी।
बाट जोवती कद आसी जी, कद आसी चितचोर जी।

क्यों री ! कबकी खड़ी इधर-उधर ताके जा रही है और अब जाकर तुझे स्मरण आया है कि- ‘म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी’।
क्रमशः

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