दुष्टों का विनाश करना और साधुओं का परित्राण करना तो उनके अवतार काल का गौण कार्य होता है।जिसके भ्रू- संकेत से सृष्टि और प्रलय उपस्थित होते हैं, उनके लिए यह कौन बड़ा काम है।उनके साधारण सेवक भी इतने शक्ति सम्पन्न हैं कि कोई भी यह काम कर देगा।उन्हें इतनी सी बात के लिए क्यों पधारना पड़े? पाप प्रभु की पीठ कहलाता है, उसी से धर्म के धणी की पूछ है।प्रभु तो दोनों के आधार हैं।वे तो पधारते हैं उनके लिए जिन्होंने पाप का आश्रय लेकर साधना की है।उनका प्रभु के अतिरिक्त कहीं कोई ठिकाना दिखता है आपको? बैकुंठ ब्रह्मलोक स्वर्ग को छोड़िए, कोई इन्हें नरक में भी घुसने देगा? और तो अवकाश ही कहाँ है? ये किसके गले लगें? इन्हीं की धारण सबल करने के लिए पधारते हैं।जैसे वे असाधारण हैं वैसी ही असाधारण गति उन्हें देने पधारते हैं।जिन्हें सुनकर, जानकर जगत्ताप से तपते हुये दु:ख का हलाहल पान करके तड़फते हुये मानव के प्राण शीतल हों, जिससे भक्तों को आधार मिले और लोगों को भक्ति पथ पर आरूढ़ होने की प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले।सुकृतिजन भक्त हों कि ज्ञानी, वे अपनी ही शक्ति से सम्पन्न हैं।वे कहीं भी जाना चाहें, सर्वत्र उनका स्वागत है।अखिल ब्रह्माण्ड नायक जिनका अपना है, वे कहाँ विपन्न हैं?’
‘तब ये शास्त्र संत कहते हैं कि पीड़ितों की पुकार पर प्रभु दौड़े आते हैं, सो?’- रतनसिंह न् पूछा।
‘वे सब सत्य ही कहते है लालजी सा, युग के धर्म के अनुसार यदि पाप बढ़ जाये तो यग धर्म पीड़ित नष्ट होता है, उसे बचाने के लिए कृपा करके प्रभु पधारते हैं।इसी के साथ न जाने कितनों के वरदान और शाप सार्थक करने के लिए भी।वह तो मैनें अपनी समझ की बात कही थी।वैसे भी देखिये न, कलियुग में कितने रावण कंस हिरण्यकशिपु रहते हैं, कोई सीमा है? पर कहाँ पधारते हैं प्रभु? क्योंकि अभी युग धर्म आक्रांत नहीं हुआ। कलि स्वयं ही पाप का अवतार है। जब अति होती है तभी अविष्कार होता है।’
‘अरे देखिए न, हम तो बातों में लगे रहे और छोटे लालजी सा को ऊँघ आने लगी।’- मीरा ने हँस कर विक्रमादित्य से कहा- ‘आप तो कुछ आरोगो ही नहीं’
‘अभी नहीं भूख नहीं है’ – विक्रम ने कहा।
‘क्यों घर में कोई लाज करता है भला? लाज तो ससुराल में करियेगा।’- उन्होंने रतनसिंह की ओर देखा- ‘बड़े कुंवरसा ( वीरमदेवजी) ने भी यहाँ लाज की थी, तब भूख के मारे घोड़ों की रातिब खानी पड़ी।वहाँ पधार कर सबको खूब हँसाया।सीमा से अधिक लाज तो ससुराल में भी दु:खदायी होती है’ – विक्रमादित्य की ओर देख कर पूछा- ‘क्या सीख रहे हो इन दिनों?’
‘कुश्ती तलवार तीर चलाना और घुड़सवारी’- विक्रम ने संकोचपूर्वक कहा।
‘पढ़ना लिखना भी तो सीख रहे हैं आप’ रतनसिंह ने बताया।
‘वाह एक साथ बहुत कुछ सीख रहे हैं आप। जब सीख जायें तब एक दिन मुझे भी दिखाईयेगा कि कैसे निशाने पर तीर लगाते हैं आप।बतायेगें?’
बालक ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
‘अब सीख (विदा) अर्ज करूँ’- रतनसिंह ने खड़े होकर हाथ जोड़े, उनके साथ विक्रम भी खड़े हो गये।
‘पधारें, फिर दर्शन दीजिएगा’
‘यह न फरमाईये भाभीसा हुकुम, हम तो आपके बालक हैं।जब आदेश हो हाजिर हो जायेगें।’
भावावेश की अद्भुत दशा……
अचानक मीरा चीख सुनकर भोजराज की नींद उचट गई। वे हड़बड़ाकर अपने पलंग से उठे और भीतरी कक्ष की और दौड़े जहाँ मीरा सोई थी।
‘क्या हुआ? क्या हुआ?’ – कहते-कहते वे भीतर गये।उन्होंने मन में सोचा- ‘आज इनकी वर्षगाँठ और महारास का दिन होने से दो-दो उत्सव थे। मीरा हर्ष उफना पड़ता था। आधी रात के पश्चात तो सब सोये। अचानक क्या हो गया यह?’
पलंग पर औंधी पड़ी मीरा पानी में से निकाली मछली की भाँति तड़फड़ा रही थी। हिल्कियाँ ले लेकर वह रो रही थी। बड़ी-बड़ी आँखे मोतियों की माला पिरो रहीं हों जैसे उनकी आकुल व्याकुल दृष्टि किसी को ढूँढ रही थी। झरोखे की जाली से छन छन करके चन्द्रमा की किरणें उनके रूप को स्नान करा रहीं थीं।सिरहाने का ओर पड़ी हुई चौरी पर भोजराज बैठ गये।कक्ष में घूमती हुई उनकी दृष्टि अपने सामने भीत में लगी बड़ी आरसी पर पड़ी।उसमें अपने प्रतिबिंब को देखकर वे स्वयं चकित हुये।श्वेत धोती और अगरखे में लिपटी सुडौल देह, अलसाये नयनों में रक्तिम डोरे, छोटी छोटी मूँछे मानों क्रुद्ध वृशचिक डंक उठाये युद्ध सन्नद्ध हो।तीखी नाक चौड़ा ललाट और पवन से अटखेलियाँ करते काले काले घुघँराले केश, मानों कामदेव स्वयं राजपूत वेश में आ बैठे हों।उनकी छाती से गहरा निःश्वास छूटा- सेमर का फूल देव सेवा के काम में नहीं आता बावरे।रूप होने से ही भाग्य नहीं बन जाता।
मीरा उठकर बैठ गई।एक पीठ की ओर टेककर और दूसरा हाथ सामने फैला कर वे रोते हुए गा उठीं ….
पिया कहाँ गयो नेहड़ा लगाय।
छाड़ि गयो अब कौन बिसासी, प्रेम की बाती बलाय।
बिरह समँद में छाँड़ि गयौ हो, नेह की नाव चलाय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे, तुम बिन रह्यो न जाय।
दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर वे फफक-फफक कर रोने लगीं।भोजराज समझ नहीं पाये कि क्या करें, कैसे धीरज बँधाये, क्या कहें? तभी मीरा पुन: गा उठीं-
नींदलड़ी नहिं आवै सारी रात, किस विधि होइ परभात।
चमक उठी सुपने सुध भूली, चन्द्रकला न सोहात।
तलफ तलफ जिव जाय हमारो, कबरे मिले दीनानाथ।
भइहूँ दिवानी तन सुध भूली, कोई न जानी म्हाँरी बात।
मीरा कहै बीती सोइ जानै, मरण जीवण उण हाथ।
वह पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ीं। भोजराज घबराकर उन्हें उठाने के लिए बढ़े, नीचे झुके परन्तु ठिठक गये।कक्ष से बाहर जाकर उन्होंने मिथुला को पुकारा। उसने आकर अपनी स्वामिनी को संभाला।
ग्रीष्म की रात्र, छत पर बैठे अपने अपने पलँगों पर भोजराज और मेतड़णीसा पौढ़े हुए बातें कर रहे थे।कुछ ही देर में भोजराज का अनुभव हुआ कि उनकी बात का उत्तर देने के बदले मीरा लम्बी लम्बी श्वाँस ले रही है।
‘क्या हुआ? कहीं पीड़ा है?’ उन्होंने उठ कर बैठते हुए पूछा। तभी पपीहा बोल उठा, लगा जैसे बारूद में चिन्गारी पड़ गई हो। वे उठकर छत की ओट के पास चली गईं।उस पर सिर टिकाते हुये रूँधे हुये गले से कहने लगी…
पपइया रे कद को बैर चितारयो।
मैं सूती छी भवन आपने पिय पिय करत पुकारयो।
क्रमशः