ब्रज भाव

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यहाँ प्रवेश करते ही आत्मा की सुप्त-बैटरी स्वत: ही चार्ज होने लगती है। सिग्नल मिलने लगते हैं;

यदि यंत्र ठीक है तो !
दो दिनों के बाद प्राण-वायु मिली हो जैसे। भर लेना चाहता हूँ आकंठ ! निर्जीव देह में मानो पुन: प्राणों का संचार होने लगा हो जैसे।
अहा ब्रज-रज ! मस्तक पर धारण करूँ वा लोक-लाज त्यागकर लोट लगाऊँ ! वृक्ष, लता-पताओं से लिपट जाऊँ ! उनसे प्रेम-रस की भिक्षा माँग स्वयं को धन्य करुँ।
ब्रज-रसिकन की चरण-धूलि से अपनी देह को पवित्र करूँ।


हाथ जोड़कर, नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे, ब्रज-रज में आपाद-मस्तक सराबोर श्रीधाम की कुन्ज-गलियों में नृत्य करूँ। श्रवण करूँ उस रस-माधुरी का जो श्रीलालजी के होठों पर लगी बाँसुरी से श्रीराधा नाम के रुप में नि:सृत हो रहा है और जिसके श्रवण से देवाधिदेव परम वैष्णव गोपेश्वर महादेव परमानन्द में डूबकर बरबस नृत्य करने लगते हैं।


हे श्यामाजू ! हे प्रियाजू ! हे लाड़लीजू ! शरण, शरण, शरण।
ब्रज की रज में लोटकर श्रीयमुना जल कर पान।
राधा-राधा रटत ही या तन सों निकलें प्राण॥
जय जय श्री राधे !

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