अयोध्या के राजमहलों से निकल कर श्रीराम ने वन की राह पकड़ ली। तपस्वी सा श्रृंगार और वीरों सा ओज। आगे बढ़ते एक एक पग में दृढ़ता मानों परमात्मा बढ़े चले जा रहे हैं भक्तों की पुकार पर।वो भक्त जो जन्म जन्मान्तरों से प्रभु को पुकार रहे हैं।राम अभी अयोध्या नगरी से कुछ ही दूर आगे निकले हैं और जिनकी पुकार पर वो आये हैं वो ऋषि तपस्वी मुनि सुदूर क्षेत्रों में गहन वनों के बीच प्रभु के ध्यान में समाधिस्थ हैं।मार्ग लम्बा और दुष्कर है… पीछे पीछे दो प्राणी उनका अनुसरण करते हुए बढ़ रहे हैं।
श्री राम का चित्त जुड़ा है उन वनवासी तपस्वियों से जो श्वाँस-श्वाँस में उन्हें पुकार रहे हैं। मार्ग की जटिलताएं पैरों के नीचे हैं और चित्त कानों के अत्यंत निकट अत: पैरों की पीड़ा भक्तों की पुकार के शोर में दब गयी है। उन्हें आभास ही नहीं है कि धरती तप रही है अथवा ठंडी है। कहाँ समतल है और कहाँ उबड़ खाबड़। वो पवन वेग से बढ़े चले जाते हैं मानों अब विलम्ब हुआ तो अनर्थ हो जायेगा किंतु उनके अनुगामी वे दोनों प्राणी सीताजी और सुमित्रानंदन लक्ष्मण…. उनका चित्त श्रीराम के चरणों में ही लगा है।श्री राम के कोमल चरण तपती धरती पर पड़ने से झुलस रहे हैं ये देखकर उनका हृदय दुःख से द्रवित हुआ जाता है।उस मार्ग पर पड़े सारे कांटे कंकड़ मानों जनकनंदिनी सीता और लक्ष्मण के हृदय में गढ़ रहे हैं।
ये भक्त का हृदय है जो भगवान के कष्ट से रोता है और वो जो मार्ग के कष्टों से अनजान बढ़ा चला जा रहा है वो भगवान का हृदय है। दोनों की लगन सच्ची है।दोनों की समाधि पूरी है …दोनों ध्यानमग्न हैं और दोनों जुड़े हैं अपने गन्तव्य से किंतु एकाकार होकर भी निर्विकार होना ये कठिन है। श्री राम निर्विकार हैं और सीता एकाकार।
अचानक एक मोटा काँटा श्री राम के चरणों में लगा और सीता जी कराह उठी। सिसकी सुनकर परमात्मा की समाधि टूटी।उन्हें पीछे आने वालों का स्मरण हो आया और युगल चरणों में समाधिस्थ लक्ष्मण भी व्यग्रता से चौंके मानों मन्दिर में चल रहे कीर्तन में अचानक विक्षेप हुआ हो। श्री राम पलटे और सीता जी के आँसुओं से भरे नेत्रों को देखकर पूछ बैठे- “ क्या हुआ?”
सीताजी की दृष्टि कठोर धरती पर गिरती रक्त की बूँदों पर टिकी है।सीताजी की दृष्टि का पीछा करते हुए श्री राम की दृष्टि पृथ्वी पर पड़े रक्त पर पड़ी और वो बोल उठे- “सीते ! बैठो पैर में काँटा लगा है।”
सीता जी बैठे हुए भी रो रही हैं। श्री राम सीता के चरणों को गोद में लेकर उनमें लगी धूल साफ करते हुए पूछते हैं- “कहाँ है काँटा?”
सीता जी ऊँगली से श्रीराम के चरणों को इंगित करती हुई कहती हैं- “वहाँ “
श्री राम अनजान बनने का अभिनय करते हुए कांटे को खींचकर दूर फेंक देते है,
और लक्ष्मण अलौकिक परमात्मा की ये लौकिक लीला देख कर भाव विभोर हो उठते हैं।
After leaving the palaces of Ayodhya, Shriram took the path of the forest. Makeup like ascetic and energy like heroes. Moving forward with determination in each step, as if God is moving ahead on the call of the devotees. Those devotees who have been calling out to the Lord since births. The sage Tapasvi Muni is in deep meditation in deep forests in remote regions. The path is long and arduous… Two beings are following behind them.
Shri Ram’s mind is attached to those forest-dwelling ascetics who are calling out to him with every breath. The intricacies of the path are below the feet and the mind is very close to the ears, so the pain of the feet is drowned in the noise of the cries of the devotees. They do not even realize whether the earth is heating or cooling. Where it is flat and where it is rough. They go on increasing with the speed of the wind, as if there is a delay now, there will be disaster, but those two creatures following them, Sitaji and Sumitranandan Laxman…. His heart is fixed on the feet of Shri Ram. His heart melts with sorrow seeing the soft feet of Shri Ram falling on the hot earth. All the thorns and pebbles lying on that path are like strongholds in the heart of Janakandini Sita and Lakshman. have been It is the heart of the devotee who weeps for the pain of God and the one who is moving on unaware of the sufferings of the path is the heart of God. The passion of both is true. The samadhi of both is complete. Shri Ram is pure and Sita is lonely.
Suddenly a thick thorn hit Shri Ram’s feet and Sita ji started moaning. Hearing the sob, the samadhi of God was broken. He remembered those who came behind and Lakshman, who was in the samadhi at the couple’s feet, was also startled with anxiety as if there was a sudden deviation in the kirtan going on in the temple. Shri Ram turned around and looking at Sita ji’s eyes full of tears asked – “What happened?”
Sitaji’s vision rests on the drops of blood falling on the hard earth. While following Sitaji’s vision, Shri Ram’s vision fell on the blood lying on the earth and he said- “Sita! Sit, there is a thorn in the leg. Sita ji is crying even while sitting. Shri Ram takes Sita’s feet in his lap and cleans the dust from them and asks – “Where is the thorn?” Pointing to the feet of Shri Ram, Sita ji says- “There”. Shri Ram pretending to be ignorant pulls the thorn away and throws it away. And seeing this cosmic pastime of the supernatural God Lakshman, the feelings get overwhelmed.