*रावण रथी विरथ रघुवीरा, देखि विभीषण भयहु अधीरा*
*अधिक प्रीति मन भा सन्देहा, देखि विभीषण भयहु अधीरा*
*अधिक प्रीति मन भा सन्देहा, वंदी चरण कहि सहित सनेहा*
*नाथ न रथ नही तन पद त्राणा, केहि विधि जितब वीर बलवाना*
लँका के रणांगन में युद्ध के लगभग अंतिम दिन विभीषण के मन में सन्देह उतपन्न हो गया पूछा भगवान से कि हे नाथ ये रावण अधर्म मोह इतने साजो सामान के साथ आया है और आप जिनके न चरणों में कोई खड़ाऊ है न कोई कवच है न कोई सुसज्जित रथ है आप कैसे जीतोगे इस युद्ध को प्रभु। मुझे सन्देह हो रहा है कृपा करके मेरा ये संदेह आप दूर कीजिये और वास्तव में यही संदेह हम सबको भी है क्योंकि जब हम देखते है कि अधर्म अपनी चरम सीमा पर है तो हम डर जाते है कि हम धर्म के साथ रहकर कैसे जीत सकेंगे अधर्म से ? और कुछ लोग इसी डर से कई बार धर्म का साथ छोड़ देते है घबरा कर इसी संदेह को डर को दूर करने हेतु यह धर्म रथ प्रसंग प्रभु ने विभीषण के साथ हम सभी के लिए भी कहा है कृपा करके ♀️爐 अतः प्रत्येक साधक को इसका चिन्तन मनन अवश्य करते रहना चाहिए भगवान कहते हैं ♀️ विभीषण ये जो संसार है यह रिपु है और महाजय है इसे जीतने वाला वीर होता है *महाजय संसार रिपु, जीत सके सो वीर* जगत रिपु नही है क्योंकि जगत जगदीश का बनाया हुआ है और संसार मनुष्य के मन ने बनाया है इसीलिए यह संसार मनुष्य का रिपु अर्थात दुश्मन है दृश्यमान सृष्टि जो माथे की आंखों से दिखती है वह सुंदर है अलौकिक है आनंदमयी है क्योंकि इसका रचनाकार परमात्मा स्वयं सुंदर अलौकिक आनंद स्वरूप है चीनी कभी कोई कड़वी वस्तु निर्माण नही करती कर ही नही सकती महा खट्टी आम्बी में भी यदि चीनी डाल दो तो भी मिठास आएगी क्योंकि चीनी का गुणधर्म ही मीठा है वह चाह कर भी कुछ खट्टा कड़वा नही बना सकती यहां तक कि यदि चीनी को बर्तन में निकालो तब भी उसकी मिठास मुख में आ जाती है ठीक ऐसे ही ठीक ऐसे ही परमात्मा के पास न तो दुख है न कोई कष्ट है जो वो किसी को दे ये दुख कष्ट मनुष्य ने स्वयं से बनाये है जो दीखता नहीं वह संसार दुखदायी है मोह कहाँ दिखता है ममता कहाँ दिखता है लोभ कहाँ नजर आता है ये सब छुपे रहते है लेकिन मारते बहुत है रुलाते बहुत है कष्ट बहुत देते है ये सब अपने भीतर ही होते है इन्ही अपनो से मनुष्य को युद्ध करना है और जीतना भी है तब कोई अधर्म हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता और इसी विजय के लिए जो रथ चाहिए उसका नाम धर्म रथ है विभीषण और ये युद्ध मन के भीतर हो रहा है सो यह रथ भी हृदय से धारण करना है इस पर बैठना नही इसे बिठाना है अपने भीतर। इसी धर्म रथ से अधर्म पर जीत हासिल होगी जिसकी चर्चा हम पिछले कई दिनों से कर रहे है।
धर्म रथ के घोड़ो का चिंतन हमने किया *बल विवेक दम परहित घोरे* बल ज्ञान का भाव का संकल्प का वैराग्य का विवेक व्यवहार की समझ दम अर्थात संयम इंद्रियों पर जिसका अर्थ जाग्रति है यहां तक हम पहुँच गए। भगवान कहते है जाग्रति कब जीवन मे आती है जब कोई सन्त जीवन के द्वार पर आ जाते हैं तब जीवन मे जाग्रति आती है समझ आती है चेत आती है जैसे विभीषन कब जागे थे ? जब श्री हनुमानजी उनके द्वार पर पहुँचे थे
*केहि समय, बोले तेहि समय विभीषन जागा*
सन्त जन कहते हैं वास्तव में जानकी जी कहा है ये राम जी को पता था क्योंकि गीधराज जटायु ने सब बता दिया था उन्हें हनुमानजी जानकी जी को खोजने गए यह तो बहाना था एक तरह से वास्तव में जगाना विभीषण को था क्योंकि ये सो रहा था रावण यानि मोह के राज्य में चद्दर तान कर। पूजा राम की करता था सेवा रावण की करता था जिन लक्ष्मी नारायण का इसने मन्दिर बनाया हुआ था वही लक्ष्मियो की भी लक्ष्मी भक्ति महारानी सीता जी इसके भाई की कैद में थी एक दिन ये मिलने नही गया उनसे। क्यों? क्योंकि ये सत्ता का लोभी था धर्म इसकी चर्चा में तो था चर्या में नही था।
इसीलिए सन्त जन कहते हैं कि वास्तव में विभीषण हम जैसे संसार प्रिय लोगो का ताऊ लगता है क्योंकि हम सब भी यही करते है कहीं न कहीं पूजा भगवान की करेंगे सेवा भोगों की करेंगे कही सत्ता न छूट जाए इसको जगाने के लिए हनुमानजी आये लेकिन विभीषण के साथ हम सभी भी ऐसे ही ढीठ है।
हनुमानजी आये कथा सुनाई सत्संग किया लेकिन हनुमानजी के जाते ही फिर सो गए सन्त जन विनोद में कहते हैं ये विभीषण भी पट्ठा इतना ढीठ कि एक कान से सुना दूसरे से निकाला और फिर सो गया विभिक्षण को रावण की लात पड़ी मोह की चादर टुट गई सीधा राम जी के चरणों में मस्तक टेका। भगवान राम कहते हैं कोई भक्ति के पथ पर चल कर देखो मै अपने आप भक्त को अपनी शरण देता हूं। उसके जन्म जन्मानतर का कल्याण हो जाता है जय श्री राम