राम और लक्ष्मण का दर्शन करते ही राजा जनक का मन प्रेम में मग्न हो गया। उन्होंने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि विश्वामित्र के चरणों में सिर नवाकर गदगद वाणी में कहा-
‘हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ ‘नेति’ कहकर जिनका गान किया है, कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?’
जनकजी आगे कहते हैं- ‘मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप बना हुआ है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर।’
यह एक अद्भुत भाव है, जिसमें जनक जी अपनी वैराग्य की स्थिति को त्यागकर राम और लक्ष्मण के प्रति प्रेम में डूब जाते हैं।
जनक जी को राम लक्ष्मण का परिचय देते हुए मुनि विश्वामित्र जी कहते हैं कि- ‘ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है।’
इस वाक्य में, जनकजी राम और लक्ष्मण के बल, शील और गुणों का वर्णन करते हैं। यह दर्शाता है कि वे न केवल अपने परिवार के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए आदर्श हैं।
जनकजी ने मुनि के चरणों के दर्शन कर अपने पुण्य का बखान किया और कहा- ‘हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता।’
यहां उनकी विनम्रता और श्रद्धा का परिचय मिलता है।
जनकजी राम और लक्ष्मण की आपसी प्रेम को भी शब्द देते हैं-
‘इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती।’
इस वाक्य में प्रेम की गहराई और उसकी अदृश्यता को दर्शाया गया है।
श्री राम और लक्ष्मण के प्रति जनकजी का प्रेम और श्रद्धा इस बात का प्रमाण है कि सच्चे प्रेम में मन, आत्मा और हृदय की गहराई तक पहुँचने की शक्ति होती है। उनका यह भाव हमें यह सिखाता है कि प्रेम और श्रद्धा किसी भी रिश्ते को और भी मजबूत बनाते हैं। राम और लक्ष्मण के रूप में, वे हमारे जीवन में प्रेम, बल और धर्म का प्रतीक बनकर उभरते हैं। ।। जय जय भगवान श्री राम ।।