
भरत जी और हनुमान जी की भक्ति दास्य भाव
भरत जी का कितना अथाह प्रेम था जिसको शब्दों में परिणत करना असंभव सा है । दासत्व भाव में कितना

भरत जी का कितना अथाह प्रेम था जिसको शब्दों में परिणत करना असंभव सा है । दासत्व भाव में कितना

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥आनन रहित सकल रस भोगी।बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ अर्थ

यह कहानी सीता माता कहती थी और श्रीराम इसे सुना करते थे। एक दिन श्रीराम भगवान को किसी काम के

ऐसी बात नहीं है कि अवधपुरी में राजा दशरथ के घर श्रीराम अवतरित हुए तब से ही लोग श्रीराम का

भरत जी श्रीराम की चरण-पादुकाओं को लेकर अयोध्या लौट आए। राम वन में रहे और भरत राजमहल में सुख भोगें,

दोहा-बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान।। भावार्थ-देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे।आकाश में डंके

।। कलियुग की व्याख्या ।।(श्रीरामचरितमानस से) कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते

अपना जीवन दूसरों के हित के लिये होइसलिये क्या करना चाहिये ? बस भगवान् का भजन करना चाहिऐ…|राम नाम रटते

माँगी नाव ना केवट आना।कहइ तुम्हार मरम मैं जाना।। चरन-कमल रज कहुँ सबु कहई।मानुष करनि मुरि कछु अहई।। इस चौपाई

श्री रामाय नमः आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्।वैधिहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।बालिनिर्दलानं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्।पश्चाद रावण कुंभकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।। भावार्थ-श्रीराम