श्रीमद्भगवद्गीता में प्रभु ने कहा

FB IMG

श्रीमद्भगवद्गीता में प्रभु ने कहा है “वृष्णिनां वासुदेवोऽस्मि” यादवों में मैं वासुदेव हूँ |
ॐ कृष्णऺ वंदे जगद्गुरूम् ॐ
“कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ” हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता |
👳🏻‍♀️ जैसे सगुण उपासकके लिए तीन शर्तें है, जिसका अभ्यास करनेका हमने प्रयास किया, वैसेही निर्गुण उपासनाके लिए भी तीन शर्तें है :
१) ‘सन्नियम्येन्द्रियग्रामं’ – पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच कर्मेंन्द्रिय और सभी इन्द्रियोंका नेता और नियामक – यह सब मिलकर जो बनता है, वह ‘इन्द्रियग्राम’ कहलाता है | इन्द्रियग्राम अर्थात् ‘इन्द्रियोंका गाँव’ , ‘इन्द्रियोंका समुदाय’ | यहाँ पर एक -दो नहीं, परंतु सम्पूर्ण इन्द्रियोंके समुदायको संयममें, काबूमें रखना है | कहनेका तात्पर्य यह है कि साधकको पहले ‘उत्तम यति’ बनना है | उत्तम यति बने बगैर कोई साधना करता है, तो उसकी श्रद्धा कितनी भी प्रबल हो, तो भी वह पथभ्रष्ट, योगभ्रष्ट हो सकता है | उसका ज्वलंत उदाहरण है – रावण | शिवजीका श्रेष्ठ भक्त होनेके बाद भी वह पथभ्रष्ट हो गया था |
२) ‘सर्वत्र समबुद्धयः’ – संसारमें प्रत्येकके लिए समान भाव रखनेवाला अर्थात् प्रत्येक जीवमें परमात्मा हृदयस्थ है, उन सभी जीवोंमें और जड़ – चेतन सृष्टिमें नित्य समान भाव रखनेवाला |
३) ‘सर्वभूतहिते रताः’ – उत्तम यति बनकर साधकको क्या करना है? क्या आंखें बंद करके चौबीस घंटे तक केवल उपास्यका ध्यान धारण करना है? नहीं! सम्पूर्ण सृष्टिमें उपास्य देव बिराजमान है, इसलिए सृष्टिके कल्याणके लिए, सृष्टिकी सेवा करना है |
ॐ इदं न मम, श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॐ
(क्रमशः)
जय श्रीकृष्ण



In Srimad Bhagavad Gita, the Lord has said “I am Vasudeva among the Vrishnis” I am Vasudeva among the Yadavas Om Krishnaksh Vande Jagadgurum Om “Kaunteya, promise Me that My devotee will not perish ” O Arjuna! Know thou the truth with certainty that My devotee is not destroyed 👳🏻 ♀️ Just as there are three conditions for the virtuous worshipper, which we have tried to practice, so there are three conditions for the virtuous worshipper: 1) ‘Sanniyamyendriyagramam’ – the five senses of perception, the five senses of action and the leader and regulator of all the senses – what all these together form is called ‘Indriyagram’ Indriyagram means ‘village of the senses’ , ‘community of the senses’ | Here not one or two, but the whole community of senses is to be kept in restraint, under control This means that the seeker must first become an ‘uttama yati’ If one performs sadhana without becoming an excellent Yati, no matter how strong his faith may be, he may become astray, astray from Yoga A vivid example of that is Ravana Even after being the best devotee of Shiva, he had gone astray 2) ‘Sarvatra samabuddhayah’ – having the same feeling for everyone in the world, that is, having the same feeling for everyone in every living being, in all those beings and in the root – conscious creation, always having the same feeling 3) ‘Sarvabhutahite ratah’ – What is the seeker to do by becoming the best Yati? Is it to hold the meditation of the worshiper alone for twenty-four hours with the eyes closed? No! The worshipable God resides in the entire creation, therefore for the welfare of the creation, one has to serve the creation Om This is not mine, may it be offered to Sri Krishna Om (respectively) Jai Shri Krishna

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *