जिसमें वैराग्य नहीं वह साधक कैसा

जब बालक जन्मता है, तब वह माँ-बाप, भाई-बहन आदि किसीको भी नहीं पहचानता । उसका किसीके साथ भी सम्बन्ध नहीं होता। वह थोड़ा बड़ा होता है तो माँका संस्कार पड़ता है कि यह माँ है। फिर धीरे-धीरे वह पिता, भाई, बहन, चाचा, ताऊ आदिके साथ सम्बन्ध जोड़ता है। जब वह देखता है कि पैसा देनेसे खिलौना आ जाता है तो उसके मनमें यह बात जँच जाती है कि पैसा बड़ा कीमती है! जब विवाह होता है, तब स्त्रीके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। फिर सास-ससुर, साला आदिके सम्बन्ध जुड़ जाता है। इस तरह अनेक सम्बन्ध जुड़ते जाते हैं। परन्तु मरते ही सब सम्बन्ध छूट जाते हैं! ऐसे छूट जाते हैं कि याद ही नहीं रहते !

तात्पर्य है कि सभी सम्बन्ध ऊपरसे चिपकाये हुए हैं, वास्तवमें हैं नहीं। सब सम्बन्ध माने हुए हैं और नहीं माननेसे मिट जाते हैं- यह सबके अनुभवकी बात है। इसलिये साधकमें वैराग्य होना चाहिये । जिसमें वैराग्य नहीं है, वह साधक कैसा ! थोड़े वैराग्यसे भी काम चल जायगा !

राम ! राम !! राम !!!

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