अभिमन्यु संयोगवश नहीं मरा था,

कृष्ण के आसपास संयोग नहीं घटित होते थे। वे होने नहीं देते थे।
रणनीति के महापंडित कृष्ण खूब समझते थे कि एक तरफ चक्रव्यूह बना कर, दूसरी तरफ त्रिगर्त देश के दुर्धर्ष योद्धाओं का संशप्तक व्रत ले कर अर्जुन को ललकारना कोई संयोग नहीं था।
वे चाहते तो चुनौती को अगले दिन के लिए टाल सकते थे, चुनौती स्वीकार करना वांछनीय था, दिन का निर्णय वो करता, जिसे चुनौती स्वीकार करनी होती, किंतु चुनौती सुनते ही उनका मस्तिष्क काम करने लगा था।

वे जानते थे कि पिता की अनुपस्थिति में महावीर अभिमन्यु शत्रु की ललकार सुन कर चुप नहीं बैठेगा।
वो जायेगा, लेकिन लौट कर नहीं आ सकेगा और अभी तक आधे मन से लड़ता अर्जुन, पुत्र शोक से पगलाया, शत्रु दल पर बिजली की तरह गिरेगा।

अब जरा, कृष्ण और अभिमन्यु के संबंध को समझ लें। वे मामा भांजा थे, गुरु शिष्य थे, मित्र और सहचर थे, एक अखाड़े में लड़ते दो मल्ल थे। कृष्ण ने अपना हर कातिल दांव सिखाया था भांजे को, शिष्य को।
कृष्ण के पसीने में अभिमन्यु का पसीना मिला था।

अर्जुन तो कृष्ण का महज आध्यात्मिक शिष्य था, अभिमन्यु में उन्होंने अपनी सारी युद्ध कला डाल दी थी। अभिमन्यु उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति था, जैसे द्रोणाचार्य के लिए अर्जुन।

हर व्यक्ति चाहता है कि अपनी सारी योग्यता की पूंजी पुत्र या शिष्य को सौंप दे। किसी ऐसे को,जो उसका नाम चला सके।
कृष्ण को ऐसा योग्य उत्तराधिकारी मिल गया था। उन्होंने अपना समूचा युद्ध ज्ञान उसको सौंप दिया था।

जिस व्यक्ति ने सोलह साल की उम्र में मथुरा राजदरबार के सर्वश्रेष्ठ मल्ल को नंगे हाथों मार डाला था, और फिर श्रांत,क्लांत उसी किशोर ने राजदरबारियों, योद्धाओं की पलटन के बीच एक अबाध्य, तानाशाह राजा को उसके सिंहासन से खींच बीच दरबार पटक कर हलाक किया था, उसे अपना उत्तराधिकारी भी ऐसा ही चाहिए था और ईश्वर कृपा से मिला।
अभिमन्यु! महाबल अभिमन्यु! कृष्ण का पट्ट शिष्य!

और शिष्य ने गुरु को गौरवान्वित किया था। सिर्फ अपने बूते अभिमन्यु ने चक्रव्यूह ध्वस्त कर दिया था।
उस अकेले किशोर ने सात महारथियों को पानी पिला दिया था और मरते मरते भी रणगर्जना की थी कि, ” दो शस्त्र मेरे हाथ में, फिर दिखाऊं वीरता/हो सात क्या, सौ भी रहो, रण में रुलाऊं मैं तुम्हें/ कर पूर्ण रणलिप्सा अभी, क्षण में सुलाऊं मैं तुम्हें।”

दिखा दिया था अभिमन्यु ने कि कृष्ण का शिष्य कैसा होता है।

एक कलाकार ने अपनी ऐसी सर्वश्रेष्ठ कृति नष्ट होने के लिए दांव पर लगा दी थी।
निर्मोही,छलिया ने अपना प्रियतम शिष्य, अपना मानस पुत्र भेंट चढ़ा दिया था।

धर्म की स्थापना के लिए, सत्य की विजय के लिए कृष्ण ने अपनी सारी पूंजी दे दी थी, और बिना कुछ कहे।

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