उलटा नाम जपत जग जाना।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।
दोस्तों! तुलसी दास जी लिखते हैँ राम चरित मानस मे कि वाल्मीकि जी ने प्रभु के नाम को उलटा जपा ओर ब्रह्मत्व प्राप्त किया, ये उलटा नाम जपना क्या है?
आइये! समझते हैँ।
भगवान श्री कृष्ण गीता जी मे कहते हैँ कि जो अंत समय मे मुझको भजता है, वहीं मुझे प्राप्त होता है, यानि मोक्ष की प्राप्ति उसे ही होती है।
अब अंत समय मे तो हर मानव जानता है कि जीभ अकड़ जाती है, कान से सुनाई नहीं देता, फिर भगवान के नाम का जप कैसे हो सकता है?
फिर भगवान के हजारों नाम हैँ, किस का जप करें कि अकड़ी जीभ रहने पर भी हम उसको भज सकें?
आप भी सोचें कि क्या वह जीभ से लेने वाले नाम हो सकते हैँ, थ्योरी के अनुसार तो नहीं हो सकते।
फिर कौन सी क्रिया करें?
तुलसी दास जी उत्तर कांड मे कहते हैँ
सोहमस्मि इति वृति अखंडा।।
अर्थात जो वह है यानि ब्रह्म वहीं मै भी हूं, यही अखंड वृति रहनी चाहिए।
मेरी समझ में इसी चोपाई में वह नाम भी छुपा है जो चाहे उलटा जपो या सीधा, परिणाम एक ही रहता है,
ज़ब हम स्वान्स लेते हैँ तो सो की ध्वनि सांस में आती प्रतीत होती है ओर ज़ब सांस छोड़ते हैँ तो हं की ध्वनि आती प्रतीत होती है, इस तरह सोहं ही वह नाम हो सकता है जो सांस के द्वारा अंत समय भी लिया जा सकता है।
क्योंकि मानस मे ही लिखा हैं जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं।।
अर्थात बड़े बड़े ऋषि मुनि हो लिये और वो मोक्ष के लिये पुरुषार्थ और साधन करते रहे कि अंत समय मुख से राम का नाम ले लिया जाय, लेकिन ऐसा हो ही नहीं पाया।अनेक जन्म बिता देने पर भी मोक्ष सम्भव न हुआ।
फिर क्या किया जाय?
ऊपर कहे अनुसार,अपने प्रभु की छवि हृदय मे बसाते हुए बस हर शवांस उनके समर्पित कर देना ही सच्चा नाम जप है, जीभ हिलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
वैसे ये भी कहा गया हैं कि नाम के बिना अक्ष हृदय मे आ ही नहीं सकता, इसलिए शुरुआत अपने इष्ट के नाम जप से ही करनी चाहिए, ऐसा मेरा मानना हैं।
प्राण ही ईश्वर है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती।
इसलिए अपने प्राणों को आयाम देते हुए यानि प्राणायाम का अभ्यास करते हुए, हम अगर जिंदगी गुजारते हैँ तो निश्चित रूप से हम प्रभु का साक्षात् कर सकते हैँ।
वैसे भी ये आप सभी का अनुभव भी होगा कि ज़ब हम किसी भी पूजा पाठ जप आदि में बैठते हैँ तो सांसारिक काम उसी समय हमें और भी अधिक घेरने लगते हैँ, याद आने लगते हैँ कि यार अमुक काम इस जप आदि के बाद करूंगा यानि ध्यान में भटकाव आता ही है।
समाधान यही है कि हम हर समय कार्य करते हुए भी उस परम शक्ति का चिंतन करते हुए अपने कार्य में लगे रहें।
केवल समय निकाल कर संध्या व सूर्य उदय से पूर्व, संध्या करें व अपने प्राणों की साधना करें।
वाल्मीकि जी भी शायद ज़ब कुकर्मों से हट कर सदमार्ग की ओर आये तो उन्हें हरी स्मरण करते समय अपने पूर्व के किये दुष्कर्म याद आते होंगे जो याद आने स्वाभाविक ही हैँ, ऐसे में उन्हें ऋषियों द्वारा सलाह दी गई होंगी कि आप सद कर्मों में जुटीये तब आप भगवान को समझ पाएंगे।
और यही निर्देश पाकर उन्होंने रामायण लिखना शुरू किया होगा, औरउसके लिखने में इतने मग्न रहने लगे कि अब उनके मन में पूर्व me किये गए कर्मों का विचार आना सम्भव ही नहीं था।
और ये सभी का अनुभव भी होगा कि ज़ब हम किसी भी काम मे मग्न होते हैँ तब हमारे नजदीक चाहे कोई अन्य जन अपनी बात चीत कर रहे हों तो हमें कुछ भी पता नहीं चलता कि उनकी किस विषय पर बात हो रही थी।
उलटा नाम जपने का अर्थ मेरी समझ मे तो यही आया है न कि मरा मरा जपा गया।
इसी बात को स्वर विज्ञानं से भी समझा जा सकता है।
हमारे शरीर से ज़ब हम सांस लेते हैँ,कभी दायां यानि सूर्य स्वर निकलता है कभी बायां जिसे चंद्र स्वर कहा जाता है।
स्वर विज्ञान ये कहता है कि ज़ब बायां स्वर चले तो उसमें नाम जप की महिमा अधिक है क्योंकि ज़ब बुद्धि सात्विक रहती है तब ही बायां स्वर चलता है, क्रोध और उदवेग के समय दायां स्वर आमतौर पर चलता है।
अब कोई तामसिक प्रवृति का व्यक्ति यदि मन बनाये कि चाहे जो हो मै संध्या आदि करना शुरू करूंगा ही।
तब वह ज़ब भी शुरू करेगा तो दाएं स्वर की ही संभावना रहेगी लेकिन ये भी तय है कि ज़ब वह कुछ देर ऐसा करेगा तो उसका बायां स्वर कुछ मिंटो मे स्वत : चालू हो जायेगा।ज्योंही साधक का मन और बुद्धि सात्विक व स्थिर होने लगेगी।
इसे bhi उलटा नाम जपना कहा जा सकता है।ज्ञानी पंडित लोग इसे भली भांति जानते ही हैँ।
ये मेरे निजी अनुभव के अनुसार, विचार हैँ जो सर्व मान्य नहीं हो सकते, आप अपनी टिप्पणी दे सकते हैँ।।