दो महान संतों का मिलन भरत जी और हनुमानजी का मिलन

देखा भरत विसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।।

सामान्य जनों की तरह, हनुमानजी को भी प्रभु के लंका-युद्ध में भरत की सहायता न करने को लेकर संशय हुआ था।

लंका में रात्रि-चर्चा में जब प्रभु भरत का गुण गाते थे, तो हनुमानजी को लगता था कि, प्रभु अपने स्वभाव के कारण ही भरतजी की प्रशंसा कर रहे हैं, वैसे भरतजी में अपनी कोई विशेषता नहीं है। वे सोचते कि यदि भरतजी में इतनी विशेषता होती, तो क्या वे सेना लेकर इतने बड़े युद्ध में भाग लेने न आते?

प्रभु अंतर्यामी हैं। वे हनुमानजी के मनोभाव को भाँप लेते हैं और उन्हें लगता है कि इन दो महान भक्तों को मिला देने से ठीक होगा, जिससे वे एक दूसरे से परिचित हो जाँय, और प्रभु यह कार्य तब करते हैं, जब हनुमानजी अपने जीवन का सर्वोच्च कार्य, मूर्च्छित लक्ष्मणजी को स्वस्थ करने हेतु असम्भव को भी सम्भव करने जा रहे थे।

जब हनुमानजी औषध लाने के लिए चल पड़ते हैं, भगवान राम के मन में कौतुक उत्पन्न होता है कि क्यों न इस समय जो सबसे अधिक सक्रिय है, तथा जो सबसे अधिक निष्क्रिय दिखाई दे रहा है, उन दोनों को मिला दिया जाय। हनुमानजी लम्बी यात्रा कर रहे हैं और भरतजी अयोध्या में बैठे हैं।

प्रभु ने सोचा कि हनुमानजी के जाते समय नहीं, बल्कि लौटते समय ही दोनो की भेंट करायेंगे। तथापि जाते समय भी हनुमानजी की भेंट एक संत से कराते हैं। वह है- नकली संत। तो जाते समय नकली संत से मिलाया और लौटते समय असली संत से, और सबसे विचित्र बात यह है कि नकली संत तो कथा सुनाता है और असली संत बाण मार देता है।

भगवान का खेल भी कभी कभी बड़ा उल्टा चला करता है।हनुमानजी के जीवन में ये दो अनुभव देकर, मानो वे यह बता देना चाहते हैं कि बाहर जो दिखाई देता है, वही सदा सत्य नहीं होता, कभी कभी भीतर का सत्य ही बड़ा सत्य होता है। जो कहते हैं कि भरत, सेना लेकर लड़ने नहीं गये, वे केवल बाहर का सत्य देख रहे हैं।

ऐसे लोग ही ‘कालनेमि’ को संत मान लेंगे और आजकल ऐसे ही कालनेमि गली-गली में पूजे जा रहे हैं और ऐसे लोग दूसरी तरफ, भरत को असंत मान लेंगे।

यदि हम भीतर की सच्चाई को जानने की चेष्टा करें, तो पायेंगे कि, बाहर की पवित्र दिखने वाली क्रिया के पीछे कभी कभी अपवित्र उद्देश्य भरा होता है, और जो क्रिया कभी कभी प्रत्यक्ष रूप से समझ में नहीं आती, उसके पीछे पवित्रतम भाव विद्यमान होता है। कालनेमि रूपी संत के वेश में असंत-कथा का विस्तार फिर कभी करेंगे।

कालनेमि को “सिर लंगूर लपेटि पछारा।” के बाद हनुमानजी की भ्रान्ति दूर हुई, तो वे संजीवनी ढ़ूँढ़ने पर्वत पर पहुँचे पर वे औषधि पहचान न पाये-

देखा सैल न औषध चीन्हाँ।

उन्हें लगा कि आज भ्रान्ति का ही दिन है। उन्होंने समूचा पर्वत ही उठा लिया-

सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हाँ।।

सोचा कि बैद्यजी देखकर पहचान लेंगे। हनुमानजी के मन में कुछ गर्व का भाव अवश्य आया कि देखो, मैंने समूचे पर्वत को ही उठा लिया। उनका समय कुछ विपरीत चल रहा था।

जब वे सीताजी की खोज में जा रहे थे तो पहली यात्रा में पर्वत नीचे था औरहनुमानजी ऊपर-

”जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।”

और आज पर्वत ऊपर है और हनुमानजी नीचे। जब वे लौटने लगे, तो अचानक ध्यान आया कि जिन भरतजी की प्रभु इतनी प्रशंसा करते हैं, उन्हें जरा देखते तो चलें। बस वे अयोध्या के ऊपर आ गये।

हनुमानजी तो “हेमशैलाभदेहम्” हैं किन्तु भरत तो- ”देह दिनहुँ दिन दूबरि होई।” के अनुसार क्षीणकाय हैं। अतः हनुमानजी, भरत को नहीं देख पाये, किन्तु भरतजी उन्हें देख लेते हैं।

इसका आध्यात्मिक तात्पर्य यह है कि हनुमानजी की सेवा प्रकट है, पर भरतजी की सेवा अगोचर है, दिखाई नहीं देती। एक आंग्लभाषा का तत्संबंधित वाक्य है-

“Heard melodies are sweat,but those unheard are sweater.”

तो जब भरतजी ने देखा कि कोई विशालकाय आकाश मार्ग से जा रहा है, तो प्रभु ने कौतुक किया, उन्होंने भरतजी के अंतःकरण में बिचार उठाया कि यह कोई निशाचर है-

देखा भरत विसाल अति निसिचर मन अनुमानि।

जब भरत मारने चले, तो प्रभु ने मानो संकेत किया- भरत! यह निशाचर नहीं, सन्त है, इसमें अपने प्रति महत्त्व-बुद्धि के कारण जो थोड़ी देर के लिए निशाचरत्त्व आ गया है, उसकी चिकित्सा कराने मैंने इसे तुम्हारे पास भेजा है। निशाचर को मारना मेरे लिए सरल है, पर जहाँ सन्त में निशाचरत्त्व हो, उसकी चिकित्सा मेरे लिए कठिन है।

जहाँ पाप को पूरी तरह से काटना हो, वहाँ पापी को काटकर मैं चिकित्सा कर दे सकता हूँ, पर दोषी को बचाकर, दोष की चिकित्सा करना मेरे लिए कठिन हो जाता है। इसकी दवा मेरे पास नहीं है, इसलिए मैंने इसे तुम्हारे पास भेजा है, जिससे रोग मर जाये और रोगी बच जाये।

हनुमानजी बाण खाकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं। इस छोटी सी घटना में प्रभु ने हनुमानजी को दिखा दिया कि कुछ न करने वाला कितना कर सकता है।

हनुमानजी ने सारी लंका जला दी थी और प्रभु ने प्रशस्ति की थी कि दोनों सेनाओं में तुम्हारे समान कोई बीर नहीं और आज उसी लंका बिजेता को भरत ने बिना फल के बाण से गिरा दिया, मानो हनुमानजी को बता दिया कि देखो दुर्बल शरीर में कितनी शक्ति है।

फिर भरतजी, ऐसी कुशलता से बाण मारते हैं कि हनुमानजी तो धरती पर गिर पड़ते हैं, पर पर्वत आकाश में टँगा रहता है, क्योंकि भरतजी सोचते हैं कि यदि यह निशाचर पर्वत को पटक देगा, तो सारी अयोध्या नष्ट हो जाएगी।

प्रभु ने इसके द्वारा दूसरा संकेत दे दिया कि हनुमान, तुम समझते थे कि, तुमने पर्वत को उठाकर रखा है, देखो पर्वत उठाने वाला तो गिर पड़ा है और पर्वत ऊपर ही रखा हुआ है।

इससे संत के बाण का चमत्कार प्रकट है। इससे यह प्रकट है कि जो भार उठाए दिख रहा है, वास्तव में वह भार कोई दूसरा ही उठाए हुए है।

फिर एक तीसरी बात भी इस घटना से प्रकट होती है। हनुमानजी मूर्च्छा दूर करने वाली दवा, अपने साथ लिए हुए हैं, और स्वयं मूर्च्छित हो गये हैं दूसरों की मूर्च्छा दूर करने के लिए दवा ले जा रहे हैं, पर अपनी मूर्च्छा दूर नहीं कर पा रहे हैं। प्रभु ने हनुमानजी को भरतजी की विशेषता दिखा दी।

हनुमानजी की महानता यह थी कि वे लंका से वैद्य को ले आए, औषध को उठा ले आए, और समय के भीतर ले आए।

उनकी महानता भी कम नहीं है।लंका में वैद्य अलग था, औषध अलग थी, और समय की सीमा भी भिन्न थी पर अयोध्या में वैद्य, औषध और समय, ये तीनों भरत के ब्यक्तित्त्व में ही समाहित हैं, क्योंकि हनुमानजी की मूर्च्छा दूर करने के लिए भरत न तो वैद्य लाते हैं, न दवा।

वे अपने ब्यक्तित्त्व से ही वैद्य और दवा प्रकट करते हैं। उनके मुख से निकलता है-

जौं मोरे मन बच अरु काया।
प्रीति राम पद कमल अमाया।।

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला।।

भरतजी के मुख से इतना निकलना था कि, हनुमानजी उठ बैठते हैं। प्रभु मानो संकेत करते हैं कि हनुमान, यह दवा तो तुम्हारे पास भी थी, तुम्हारे मन में भी तो हमारे लिए इतना प्रेम है, पर तुम हो कि दवा लाने इतनी दूर चले गये और भरत है कि यहीं बैठे बैठे, उसने दवा की ब्यवस्था कर दी।

भरत, निष्क्रिय क्यों दिखाई देता है? इसलिए कि न तो उसे वैद्य लाने जाना है, न दवा लाने। सब कुछ उसके ब्यक्तित्त्व में ही है।

दोनों संतों में एक और अन्तर है।हनुमानजी को कहा गया- ”राम काज लगि तव अवतारा।” सुरसा से उन्होंने स्वयं कहा- ”राम काज करि फिर मैं आवँउँ।”

पर भरत अपनी सेवा को गुप्त रखते हैं। यहाँ पर उनकी एक बड़ी विजय है। इतनी महान सेवा करने के बाद भी जब भरत ने लक्ष्मणजी की मूर्च्छा का समाचार सुना, तो उनके मुख से निकल पड़ा-

अहह दैव मैं कत जग जायउँ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ।।

हा दैव मैं क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। उनके मन में यह बात नहीं आई कि मैंने हनुमानजी की मूर्च्छा ठीक कर दी है, न ही उनका निरहंकारी ब्यक्तित्त्व इस बात की कल्पना कर सका कि उन्होंने हनुमानजी को शिक्षा दी। वे तो अपनी असमर्थता और दोषों का बखान करते हैं, अपने को कोसते हैं कि मेरा जन्म तो बस प्रभु-भक्तों पर प्रहार करने के लिए हुआ है, नहीं तो क्या मैं इतने बड़े संत को निशाचर समझ कर उसपर प्रहार किया

भरतजी यह सोच सोच कर ब्याकुल हो जाते हैं कि उनके मुख से एक वाक्य निकल पड़ता है। प्रभु भी चाहते हैं कि भरत ब्याकुल हो, जिससे उसके मुख से वह वाक्य निकले।भरतजी, हनुमान जी से कहते हैं-

चढ़ु मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहिं जहँ कृपानिकेता।।

यह सुनकर हनुमानजी बार बार भरतजी की ओर देखने लगे। हड्डी हड्डी दिखाई पड़ रही है और प्रस्ताव कर रहे हैं कि पर्वत सहित बैठ जाओ-

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।
मोरें भार चलिहिं किमि बाना।।

हनुमानजी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा?

“गीतावली रामायण” में वर्णन है कि हनुमानजी, पर्वत सहित बाण पर बैठे और श्रीभरत ने बाण चढ़ाया फिर हनुमानजी बाण पर से कूद पड़े और भरत जी के चरणों में गिर पड़े।बोले- महाराज! मेरे मन की भ्रान्ति मिट गयी, मैं धन्य हुआ।

प्रभु मानो संकेत देते हैं, हनुमान!मेरा बाण तो मारने के लिए है, जबकि भरत का बाण भ्रान्ति मिटाने के लिए। हनुमानजी ने राम-रावण युद्ध में अनेक चमत्कारी बाण देखे, पर ऐसा विलक्षण बाण तो आज तक नहीं देखा, जो उनको गिरा दे।

हनुमानजी ने जब प्रभु से पूछा कि आप भरतजी जैसे संत को अपने पास क्यों नहीं रखते?भगवान बोले- हनुमान! तुम तो मेरी सेवा में हो ही, पर जो लोग मुझसे दूर हैं, मुझ तक पहुँच नहीं सकते, उनको भी मेरे पास पहुँचाने वाला तो कोई संत चाहिए।

इसलिए मैंने भरत को दूर बिठा रक्खा है कि जो मेरे पास पहुँचने लायक नहीं है, उन्हें भी पहुँचा दें। तो ऐसे हैं श्रीभरत!! यदि वे राम के धनुष हैं, तो हनुमानजी हैं बाण। धनुष, स्थिर दिखाई देता है, तो बाण चलता हुआ पर बाण धनुष की शक्ति से ही चलता है।

यदि धनुष, अपनी डोरी को खींच, बाण को शक्ति न दे तो वह कैसे चलेगा? तो, भगवान राम, हनुमानजी को मानो यह बता देना चाहते हैं कि हनुमान, हम जो लड़ाई लंका में लड़ रहे हैं, उसके पीछे भरत की साधना, उसका प्रेम, उसका चरित्र, उसका तप कार्य कर रहा है। और हम जो विजय प्राप्त करेंगे, वह भरत के तप और प्रेम की विजय होगी।

।। जय श्री राम जय भरत महान जय श्रीरामभक्त हनुमान ।।

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