प्रेम और परमात्मा …?

कितने आश्चर्य की बात है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को पाना तो चाहता है,परन्तु उसको जानना बिलकुल भी नहीं चाहता |परमात्मा एक व्यक्ति के रूप में आपके पास आये और आपके गले लग जाये या आपको गले लगा ले,क्या ऐसा होना संभव है ?इस संसार में असंभव कुछ भी नहीं है |जो इस संसार का सूत्रधार है वह कहीं न कहीं तो होगा ही
और अगर ऐसा है तो फिर उसको प्राप्त करना हो भी सकता है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरे भक्त के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है |आवश्यकता है,एक प्रेमी भक्त बनने की,ज्ञानी भक्त बनने की |
संसार की प्रत्येक भौतिक वस्तु आपको प्राप्त हो सकती है-अपनी मेहनत से,अपनी चालबाजी से,चोरी से ,छीनाझपटी से ,असत्य बोलकर,लालच देकर,किसी को धोखा देकर आदि आदि विभिन्न प्रकार के प्रयासों से |परन्तु आप परमात्मा को इनमे से किसी भी तरीके से प्राप्त नहीं कर सकते |अगर इन तरीकों से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता तो ऐसे सभी प्रयास तो कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले दुर्योधन ने आजमाए ही थे |

फिर भी कृष्ण को अपने वश में नहीं कर सका था |
फिर परमात्मा में ऐसा क्या है कि उनको उपरोक्त वर्णित सब प्रयासों से भी जाल में फंसाया नहीं जा सकता ?

इसके लिए परमात्मा की प्रकृति को जानना आवश्यक है |जब शिशु इस संसार में आता है तब वह परमात्मा स्वरुप ही होता है |उसकी प्रकृति और परमात्मा की प्रकृति में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है |इसी कारण से हमें शिशु की हरकतें मोहक लगती है |

उसका मन इतना निर्मल होता है कि हमें उसी में परमात्म-दर्शन होते हैं |ज्यों ज्यों शिशु बड़ा होता है ,सांसारिक गतिविधियां उस पर हावी होती जाती है,और वह अपने बाल-सुलभ स्वभाव से दूर होता चला जाता है |यही विकृति उसे परमात्मा से दूर करती चली जाती है |

निर्मल मन प्रेम का अथाह भंडार होता है |इसी कारण से शिशु सबको प्रिय होता है और शिशु को भी सभी प्रिय लगते हैं |तभी तो शिशु का संसार से अपना पहला संबंध मुस्कान के साथ ही स्थापित करता है |हमारी भाषा में इसे सामाजिक मुस्कान (Social smile)कहा जाता है |

शिशु इस अवस्था में न तो यह जानता है कि दिल से उसको कौन प्रेम करता है और कौन उसके पास वैमनस्य भाव से आया है |वह तो सबका स्वागत अपनी प्यारी सी मुस्कान से करता है |इससे अधिक प्रेम परिपूर्णता का दूसरा उदहारण इस भौतिक संसार में हो ही नहीं सकता |एकदम यही स्वभाव ,यही प्रकृति परमात्मा की होती है |

परमात्मा भी सबको समान दृष्टि से देखता है |हाँ,यह बात जरूर है कि उसे प्रेम से पूर्ण व्यक्ति सबसे प्रिय होते हैं|और प्रेम से परिपूर्ण होने वाले व्यक्ति ही परमात्मा के मित्र हो सकते हैं |अर्जुन इसी कारण से कृष्ण को मित्र रूप में पा सके थे |

प्रेम से परिपूर्ण होने के लिए आपको सिर्फ इतना ही करना होगा कि बालसुलभ स्वभाव बनाये रखें ,मन में किसीभी प्रकार की सांसारिक विकृति को प्रवेश न करने दें|जब आपका मन निर्मल हो जायेगा ,संसार में सभी समान नज़र आने लगेंगे तब आप सबमे परमात्मा के ही दर्शन करेंगे |

आपमें उपस्थित प्रेम ही परमात्मा है ,इसके लिए आपको कहीं भी प्रेम पाने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा,कही भी परमात्मा को ढूँढने नहीं जाना होगा |स्वामी रामसुख दास जी कहा करते थे-

बात बड़ी है अटपटी,झटपट लखे न कोय |
ज्यों मन की खटपट मिटे,तो चटपट दर्शन होय ||
मन कि खटपट यह”
,
ईर्ष्या,वैमनस्य,लालच,आकांक्षाये,कामनाये आदि विकार ही है |ज्यों ही ये सब मन से बाहर कर दिए जायेंगे फिर जो शेष बचेगा वह है-प्रेम |और प्रेम ही परमात्मा हैवी |गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं-
” हरि व्यापक सर्वत्र समाना |प्रेम से प्रकट होइ मैं जाना ||”

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