महाभारतके युद्धका नवम दिन था। आज भीष्मपितामहः पूरी उत्तेजनामें थे। उनका धनुष आज प्रलयकी वर्षा कर रहा था। पाण्डवदलमें क्षण-क्षणपर रथ, अश्व, गज और योधा कट-कटकर गिर रहे थे। हाहाकार मच गया. था पाण्डवदलमें बड़े-बड़े विख्यात महारथी भी भाग रहे थे। व्यूह छिन्न-भिन्न हो चुका था। सैनिकोंको भागनेको स्थान नहीं मिल रहा था। श्रीकृष्णचन्द्रने यह अवस्था देखकर अर्जुनको उत्साहित किया। पितामहपर वाण-वर्षा करनेकी इच्छा अर्जुनमें नहीं थी किंतु अपने परम सखा श्रीकृष्णकी प्रेरणासे वे युद्धके लिये उद्यत हुए। वासुदेवने उनका रथ पितामहके सम्मुख पहुँचाया। पाण्डव सेनाने देखा कि अर्जुन अब पितामहसे युद्ध करेंगे तो उसे कुछ आश्वासन मिला।
अपने सम्मुख अर्जुनके नन्दिघोष रथको देखकर भीष्मका उत्साह और द्विगुणित हो उठा। उनके धनुषकी प्रत्यञ्चाका घोष बढ़ गया और बढ़ गयी उनकी वाण वृष्टि अर्जुनने दो बार उनका धनुष काट दिया; किंतु इससे पितामहका उत्साह शिथिल नहीं हुआ। उनके पैने बाण कवच फोड़कर अर्जुन और श्रीकृष्णके शरीरको विद्ध करते जा रहे थे। दोनोंके शरीरोंसे रक्तके झरने वह रहे थे।
श्रीकृष्णचन्द्रने देखा कि उनका सखा अर्जुन मन लगाकर युद्ध नहीं कर रहा है। उन जनार्दनको अपने जनोंमें प्रमाद सह्य नहीं है। आज अर्जुन पितामहके प्रति पूज्य भाव होनेके कारण युद्धभूमिमें क्षत्रियके उपयुक्त कर्तव्यके प्रति जागरूकताका परिचय नहीं दे रहे थे। वे शिथिल हो रहे थे कर्तव्यके प्रति मधुसूदन यह सह नहीं सके। उन्होंने घोड़ोंकी रश्मि छोड़ दी और चाबुक ही लिये दौड़ पड़े भीष्मको ओर।
रक्त और लोथोंसे पटी युद्धभूमि, स्थान-स्थानपर पड़े बाण, खड्ग, खण्डित धनुष और उसमें दौड़ते जारहे थे कमललोचन आासुदेव। उनके चरण रक्त से सन गये थे। उनके शोरसे रक्त प्रवाहित हो रहा था। उनके नेत्र अरुण हो उठे थे। उनके अधर फड़क रहे थे। उनके उठे हाथमें चाबुको रस्सी घूम रही थी। दौड़े जा रहे थे वे भीष्मको ओर।
युद्धके प्रारम्भ हो दुर्योधनने आचार्य दोष तथा अपने सभी महारथियोंको आदेश दिया था-‘भीष्म शाभिरक्षन्तु भक्तः सर्व एव हि ‘आप सब लोग केवल भीष्मको सावधानीसे रक्षा करें।’
वहाँ द्रोणाचार्य थे अश्वत्थामा थे, शल्य थे, दुःशासनके साथ दुर्योधन था अपने सभी भाइयोंके सङ्ग और उसके पक्षके सभी महारथी थे; किंतु सब हाथ उठाकर स्त्रियोंकी भाँति चला रहे थे भीष्म मारे गये। भीष्म अब मारे गये।”
श्रीकृष्ण-सौकुमार्यको मूर्ति श्रीकृष्ण और उनके पास कोई शस्त्र नहीं। वे चक्र नहीं, केवल चाबुक लेकर दौड़ रहे थे। परंतु जिसका संकल्प कोटि-कोटि ब्रह्माण्डको पलमें ध्वस्त कर देता है, उसके हाथमें चक्र हो या चाबुक, कौरव-पक्षमें ऐसा मूर्ख कोई नहीं था जो आशा करे कि रोषमें भरे मधुसूदनके सम्मुख वह आधे पल रुक सकेगा। कराल काल भी जहाँ काँप उठे, वहाँ मरने कौन कूदे। धरो रही राजाज्ञा, भूल गया शौर्य, पूरा कौरवदल हाथ उठाये पुकार रहा था-‘भीष्म मारे गये। अब मारे गये भीष्म!’
भीष्म तो अपने रथ में बैठे स्तुति कर रहे थे ‘पधारो मधुसूदन! अपने हाथों मारकर भीष्मको आज कृतार्थ कर दो माधव! परंतु अर्जुन कूद पड़े अपने रथसे दौड़कर पोछेसे उन्होंने अपने सखाके चरण पकड़ लिये और कहा- ‘मुझे क्षमा करो वासुदेव! मैं अब प्रमाद नहीं करूँगा। तुम अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़ो।’
महाभारतके युद्धका नवम दिन था। आज भीष्मपितामहः पूरी उत्तेजनामें थे। उनका धनुष आज प्रलयकी वर्षा कर रहा था। पाण्डवदलमें क्षण-क्षणपर रथ, अश्व, गज और योधा कट-कटकर गिर रहे थे। हाहाकार मच गया. था पाण्डवदलमें बड़े-बड़े विख्यात महारथी भी भाग रहे थे। व्यूह छिन्न-भिन्न हो चुका था। सैनिकोंको भागनेको स्थान नहीं मिल रहा था। श्रीकृष्णचन्द्रने यह अवस्था देखकर अर्जुनको उत्साहित किया। पितामहपर वाण-वर्षा करनेकी इच्छा अर्जुनमें नहीं थी किंतु अपने परम सखा श्रीकृष्णकी प्रेरणासे वे युद्धके लिये उद्यत हुए। वासुदेवने उनका रथ पितामहके सम्मुख पहुँचाया। पाण्डव सेनाने देखा कि अर्जुन अब पितामहसे युद्ध करेंगे तो उसे कुछ आश्वासन मिला।
अपने सम्मुख अर्जुनके नन्दिघोष रथको देखकर भीष्मका उत्साह और द्विगुणित हो उठा। उनके धनुषकी प्रत्यञ्चाका घोष बढ़ गया और बढ़ गयी उनकी वाण वृष्टि अर्जुनने दो बार उनका धनुष काट दिया; किंतु इससे पितामहका उत्साह शिथिल नहीं हुआ। उनके पैने बाण कवच फोड़कर अर्जुन और श्रीकृष्णके शरीरको विद्ध करते जा रहे थे। दोनोंके शरीरोंसे रक्तके झरने वह रहे थे।
श्रीकृष्णचन्द्रने देखा कि उनका सखा अर्जुन मन लगाकर युद्ध नहीं कर रहा है। उन जनार्दनको अपने जनोंमें प्रमाद सह्य नहीं है। आज अर्जुन पितामहके प्रति पूज्य भाव होनेके कारण युद्धभूमिमें क्षत्रियके उपयुक्त कर्तव्यके प्रति जागरूकताका परिचय नहीं दे रहे थे। वे शिथिल हो रहे थे कर्तव्यके प्रति मधुसूदन यह सह नहीं सके। उन्होंने घोड़ोंकी रश्मि छोड़ दी और चाबुक ही लिये दौड़ पड़े भीष्मको ओर।
रक्त और लोथोंसे पटी युद्धभूमि, स्थान-स्थानपर पड़े बाण, खड्ग, खण्डित धनुष और उसमें दौड़ते जारहे थे कमललोचन आासुदेव। उनके चरण रक्त से सन गये थे। उनके शोरसे रक्त प्रवाहित हो रहा था। उनके नेत्र अरुण हो उठे थे। उनके अधर फड़क रहे थे। उनके उठे हाथमें चाबुको रस्सी घूम रही थी। दौड़े जा रहे थे वे भीष्मको ओर।
युद्धके प्रारम्भ हो दुर्योधनने आचार्य दोष तथा अपने सभी महारथियोंको आदेश दिया था-‘भीष्म शाभिरक्षन्तु भक्तः सर्व एव हि ‘आप सब लोग केवल भीष्मको सावधानीसे रक्षा करें।’
वहाँ द्रोणाचार्य थे अश्वत्थामा थे, शल्य थे, दुःशासनके साथ दुर्योधन था अपने सभी भाइयोंके सङ्ग और उसके पक्षके सभी महारथी थे; किंतु सब हाथ उठाकर स्त्रियोंकी भाँति चला रहे थे भीष्म मारे गये। भीष्म अब मारे गये।”
श्रीकृष्ण-सौकुमार्यको मूर्ति श्रीकृष्ण और उनके पास कोई शस्त्र नहीं। वे चक्र नहीं, केवल चाबुक लेकर दौड़ रहे थे। परंतु जिसका संकल्प कोटि-कोटि ब्रह्माण्डको पलमें ध्वस्त कर देता है, उसके हाथमें चक्र हो या चाबुक, कौरव-पक्षमें ऐसा मूर्ख कोई नहीं था जो आशा करे कि रोषमें भरे मधुसूदनके सम्मुख वह आधे पल रुक सकेगा। कराल काल भी जहाँ काँप उठे, वहाँ मरने कौन कूदे। धरो रही राजाज्ञा, भूल गया शौर्य, पूरा कौरवदल हाथ उठाये पुकार रहा था-‘भीष्म मारे गये। अब मारे गये भीष्म!’
भीष्म तो अपने रथ में बैठे स्तुति कर रहे थे ‘पधारो मधुसूदन! अपने हाथों मारकर भीष्मको आज कृतार्थ कर दो माधव! परंतु अर्जुन कूद पड़े अपने रथसे दौड़कर पोछेसे उन्होंने अपने सखाके चरण पकड़ लिये और कहा- ‘मुझे क्षमा करो वासुदेव! मैं अब प्रमाद नहीं करूँगा। तुम अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़ो।’