कर्मण्येवाधिकारस्ते

pews church altar

गांधीजी

उड़ीसा यात्रा

‘हाँ, अब मुझे ठीक तौरपर प्रणाम करो तुम जानते हो कि मेरा रक्तका दबाव 195 है?’

महात्माजीने डॉक्टरके छोटे बच्चेके सोनेके बटन झपटकर हँसते हुए कहा और तत्पश्चात् डॉक्टरसे भी अनेक मजाक किये। डॉक्टर बेचारे अत्यन्त चिन्तित थे। यन्त्र लगाकर उन्होंने हालमें ही देखा था। वे सोच रहे थे कि यह क्या हुआ बापूने कोई बदपरहेजी तो नहीं की? सबेरे तो रक्तका दबाव कुल जमा 182 ही था, शामको एक साथ इतना क्यों बढ़ गया ? कारण, आखिर क्या हुआ ? कारणका व्योरा स्व0 महादेव भाईके शब्दों में सुन लीजिये

अपनी उड़ीसाकी यात्रामें गांधीजीको बेशुमार मेहनत करनी पड़ती थी । यद्यपि सब लोग उनसे यही प्रार्थना करते थे कि आप कुछ आराम कर लें, इतना कठोर श्रम न करें, फिर भी वे किसीकी क्यों सुनने लगे। उन्हें ज्ञात हुआ कि एक कार्यकर्ताने उनके भाषणको गलत समझा है। उन्होंने उससे तथा उसके साथियोंसे गरमागरम बहस की और उन्हें अपना दृष्टिकोण समझानेकी भरपूर कोशिश की। डॉक्टरने बापूको कह रखा था कि वे अधिक बात न करें; पर वे कहते थे ‘उड़ीसा आनेके बाद मेरा यह फर्ज हो जाता है कि मैं अपना सर्वोत्तम समय और पूर्ण शक्ति यहाँके कार्यकर्ताओंको अर्पित कर दूँ। भला, ऐसा किये बिना मैं यहाँसे कैसे लौट सकता हूँ।’ बापूने उन लोगोंको एक बार वक्त दिया, दुबारा वक्त दिया औरअन्तिम दिन तिबारा समय दिया। वे अत्यन्त थके हुए थे। उन्हें ज्ञात था कि इस जगहपर कुष्ठाश्रम है, जहाँ वे दो वर्ष पहले गये थे। बापूने उस आश्रमके मित्रोंको कलकत्तेसे आये हुए फूल भेंटस्वरूप भेजे। आश्रमके सुपरिंटेंडेंटकी स्वभावतः यह इच्छा हुई कि बापू एक बार फिर कुष्ठाश्रममें पधारें। गांधीजी अबकी बार नारंगियोंकी टोकरी लेकर वहाँ गये। अध्यक्ष महोदयके प्रार्थनानुसार उन्हें आश्रमका निरीक्षण भी करना पड़ा। आध घंटे धूपमें इधर-उधर घूमना पड़ा, यद्यपि स्वास्थ्यकी वर्तमान दशामें उनके लिये यह असहा था। निवास स्थानपर लौटे तो अत्यन्त थके हुए। डॉक्टर साहब शामको आये तो उन्हें कार्यकर्ताओंसे बातचीत करते हुए पाया।’

डॉक्टर साहबने कहा-‘महात्माजी! आप भी ज्यादती कर रहे हैं- दूसरे मरीजोंकी तरह।’

महादेव भाईने लिखा था – ‘बापू अपने अट्टहास्यमें मानो अपने घोर कष्टको डुबो देना चाहते थे। कठोर परिश्रम करना उन्होंने अपना स्वभाव ही बना लिया था।’

‘प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति । ‘ वर्धा

बापूने रातको नौ बजेसे आध घंटेका समय बातचीतके लिये मुझे दिया था। बापू खूब हँसते और हँसाते रहे, फिर गम्भीरतापूर्वक बोले-‘अब साढ़े नौ बज चुके। मैं रातके डेढ़ बजेका उठा हुआ हूँ और दोपहरको सिर्फ पचीस मिनटके लिये आराम किया है।’ रातके डेढ़ बजेसे लेकर रातके साढ़े नौ बजेतकपूरे बीस घंटे ! मैं चकित रह गया। मद्रासके भाई हरिहर शर्मासे, जो उन दिनों वहीं थे, दूसरे दिन मैंने पूछा ‘बापू इतनी मेहनत क्यों करते हैं ?’ उन्होंने तुरंत ही उत्तर दिया- ‘प्रायश्चित्तस्वरूप ! हम सब लोग आलसी हैं, उसीका तो प्रायश्चित्त बापू कर रहे हैं।’

काशी

2 अक्टूबर। ‘आज तो महात्माजी ! आपने और भी अधिक काम किया।’ श्री श्रीप्रकाशजीने कहा । ‘भाई, आज मेरी वर्षगाँठ है न ?’ बापूने उत्तर दिया।

हरिजन – आश्रम, दिल्ली

‘महात्माजी ! क्या आपकी घड़ी बंद गयी थी ? आप तो ढाई बजे रातसे ही काम कर रहे हैं !’ श्रीवियोगी हरिजीने पूछा। महात्माजीने उत्तर दिया ‘घड़ी तो मेरी बिलकुल ठीक चल रही है। मेरी नींद पूरी हो चुकी थी सो अपनी डाक निपटानेमें लग गया। अब साढ़े पाँच बच चुके हैं। ‘ –

विश्ववन्द्य महात्मा गांधीजीके जीवनकी ऐसी सैकड़ों ही घटनाएँ लिखी जा सकती हैं। वे अपने क्षण-क्षणका हिसाब रखते थे। उनकी तपस्या अद्वितीय थी।

लेनिन

और वैसी ही साधना की थी एक अन्य तपस्वीने । सन् 1919 की बात । मास्को कजान रेलवे कई जगह पर टूटी पड़ी थी। रूसी मजदूरोंने उस वक्त अपनी शनिवारकी छुट्टीको, जो कानूनन उन्हें मिलती थी, स्वेच्छापूर्वक राष्ट्रके अर्पित कर दिया था। उस दिनभी वे कामपर आते थे। लेनिनने उस समय कहा था—’मजदूरोंका यह त्याग इतिहासमें अनेक साम्राज्यवादी युद्धोंकी अपेक्षा अधिक उल्लेखयोग्य तथा महत्त्वपूर्ण घटना है।’

यद्यपि लेनिनके गलेमें तकलीफ थी, एक गुमराह साम्यवादी लड़कीने उनपर छर्रेभरी पिस्तौल चला दी थी। कुछ छर्रे अभी भी गलेमें रह गये थे और वे कष्ट देते थे, फिर भी नवयुवक सिपाहियोंका साथ देनेके लिये लेनिन खुद अपने कंधोंपर लट्टे उठाकर सबेरेसे शामतक काममें जुटे रहते थे। लोग मना करते कि आप कोई हलका काम ले लें; पर वे नहीं मानते थे। जब सालभरतक इसी प्रकार अपने शनिवारोंको बिना किसी इनाम या मजदूरीके उन श्रमजीवियोंने व्यय किया और इस ‘यज्ञ’ की वर्षगाँठ मनायी गयी, तब लेनिनने कहा था

‘साम्यवादियोंका श्रम समाजके निर्माणके लिये | होता है – वह किसी इनाम या पुरस्कारकी इच्छासे नहीं, बल्कि ‘बहुजनहिताय’ अर्पित किया जाता है। स्वस्थ शरीरके लिये श्रम तो एक अनिवार्य वस्तु है।’

श्रमकी महिमाके उपर्युक्त दो दृष्टान्त क्या हमारे लिये पर्याप्त प्रेरणाप्रद नहीं हैं? 195 रक्तके दबावमें धूपमें आध घंटे चलना और बीस-बीस घंटे मेहनत करना – यह थी बापूकी साधना; और गलेमें पिस्तौलका छर्रा लिये हुए सबेरेसे शामतक सिपाहियोंके साथ कंधेपर लट्ठे उठाना

– यह था लेनिनका तप ।

गांधीजी
उड़ीसा यात्रा
‘हाँ, अब मुझे ठीक तौरपर प्रणाम करो तुम जानते हो कि मेरा रक्तका दबाव 195 है?’
महात्माजीने डॉक्टरके छोटे बच्चेके सोनेके बटन झपटकर हँसते हुए कहा और तत्पश्चात् डॉक्टरसे भी अनेक मजाक किये। डॉक्टर बेचारे अत्यन्त चिन्तित थे। यन्त्र लगाकर उन्होंने हालमें ही देखा था। वे सोच रहे थे कि यह क्या हुआ बापूने कोई बदपरहेजी तो नहीं की? सबेरे तो रक्तका दबाव कुल जमा 182 ही था, शामको एक साथ इतना क्यों बढ़ गया ? कारण, आखिर क्या हुआ ? कारणका व्योरा स्व0 महादेव भाईके शब्दों में सुन लीजिये
अपनी उड़ीसाकी यात्रामें गांधीजीको बेशुमार मेहनत करनी पड़ती थी । यद्यपि सब लोग उनसे यही प्रार्थना करते थे कि आप कुछ आराम कर लें, इतना कठोर श्रम न करें, फिर भी वे किसीकी क्यों सुनने लगे। उन्हें ज्ञात हुआ कि एक कार्यकर्ताने उनके भाषणको गलत समझा है। उन्होंने उससे तथा उसके साथियोंसे गरमागरम बहस की और उन्हें अपना दृष्टिकोण समझानेकी भरपूर कोशिश की। डॉक्टरने बापूको कह रखा था कि वे अधिक बात न करें; पर वे कहते थे ‘उड़ीसा आनेके बाद मेरा यह फर्ज हो जाता है कि मैं अपना सर्वोत्तम समय और पूर्ण शक्ति यहाँके कार्यकर्ताओंको अर्पित कर दूँ। भला, ऐसा किये बिना मैं यहाँसे कैसे लौट सकता हूँ।’ बापूने उन लोगोंको एक बार वक्त दिया, दुबारा वक्त दिया औरअन्तिम दिन तिबारा समय दिया। वे अत्यन्त थके हुए थे। उन्हें ज्ञात था कि इस जगहपर कुष्ठाश्रम है, जहाँ वे दो वर्ष पहले गये थे। बापूने उस आश्रमके मित्रोंको कलकत्तेसे आये हुए फूल भेंटस्वरूप भेजे। आश्रमके सुपरिंटेंडेंटकी स्वभावतः यह इच्छा हुई कि बापू एक बार फिर कुष्ठाश्रममें पधारें। गांधीजी अबकी बार नारंगियोंकी टोकरी लेकर वहाँ गये। अध्यक्ष महोदयके प्रार्थनानुसार उन्हें आश्रमका निरीक्षण भी करना पड़ा। आध घंटे धूपमें इधर-उधर घूमना पड़ा, यद्यपि स्वास्थ्यकी वर्तमान दशामें उनके लिये यह असहा था। निवास स्थानपर लौटे तो अत्यन्त थके हुए। डॉक्टर साहब शामको आये तो उन्हें कार्यकर्ताओंसे बातचीत करते हुए पाया।’
डॉक्टर साहबने कहा-‘महात्माजी! आप भी ज्यादती कर रहे हैं- दूसरे मरीजोंकी तरह।’
महादेव भाईने लिखा था – ‘बापू अपने अट्टहास्यमें मानो अपने घोर कष्टको डुबो देना चाहते थे। कठोर परिश्रम करना उन्होंने अपना स्वभाव ही बना लिया था।’
‘प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति । ‘ वर्धा
बापूने रातको नौ बजेसे आध घंटेका समय बातचीतके लिये मुझे दिया था। बापू खूब हँसते और हँसाते रहे, फिर गम्भीरतापूर्वक बोले-‘अब साढ़े नौ बज चुके। मैं रातके डेढ़ बजेका उठा हुआ हूँ और दोपहरको सिर्फ पचीस मिनटके लिये आराम किया है।’ रातके डेढ़ बजेसे लेकर रातके साढ़े नौ बजेतकपूरे बीस घंटे ! मैं चकित रह गया। मद्रासके भाई हरिहर शर्मासे, जो उन दिनों वहीं थे, दूसरे दिन मैंने पूछा ‘बापू इतनी मेहनत क्यों करते हैं ?’ उन्होंने तुरंत ही उत्तर दिया- ‘प्रायश्चित्तस्वरूप ! हम सब लोग आलसी हैं, उसीका तो प्रायश्चित्त बापू कर रहे हैं।’
काशी
2 अक्टूबर। ‘आज तो महात्माजी ! आपने और भी अधिक काम किया।’ श्री श्रीप्रकाशजीने कहा । ‘भाई, आज मेरी वर्षगाँठ है न ?’ बापूने उत्तर दिया।
हरिजन – आश्रम, दिल्ली
‘महात्माजी ! क्या आपकी घड़ी बंद गयी थी ? आप तो ढाई बजे रातसे ही काम कर रहे हैं !’ श्रीवियोगी हरिजीने पूछा। महात्माजीने उत्तर दिया ‘घड़ी तो मेरी बिलकुल ठीक चल रही है। मेरी नींद पूरी हो चुकी थी सो अपनी डाक निपटानेमें लग गया। अब साढ़े पाँच बच चुके हैं। ‘ –
विश्ववन्द्य महात्मा गांधीजीके जीवनकी ऐसी सैकड़ों ही घटनाएँ लिखी जा सकती हैं। वे अपने क्षण-क्षणका हिसाब रखते थे। उनकी तपस्या अद्वितीय थी।
लेनिन
और वैसी ही साधना की थी एक अन्य तपस्वीने । सन् 1919 की बात । मास्को कजान रेलवे कई जगह पर टूटी पड़ी थी। रूसी मजदूरोंने उस वक्त अपनी शनिवारकी छुट्टीको, जो कानूनन उन्हें मिलती थी, स्वेच्छापूर्वक राष्ट्रके अर्पित कर दिया था। उस दिनभी वे कामपर आते थे। लेनिनने उस समय कहा था—’मजदूरोंका यह त्याग इतिहासमें अनेक साम्राज्यवादी युद्धोंकी अपेक्षा अधिक उल्लेखयोग्य तथा महत्त्वपूर्ण घटना है।’
यद्यपि लेनिनके गलेमें तकलीफ थी, एक गुमराह साम्यवादी लड़कीने उनपर छर्रेभरी पिस्तौल चला दी थी। कुछ छर्रे अभी भी गलेमें रह गये थे और वे कष्ट देते थे, फिर भी नवयुवक सिपाहियोंका साथ देनेके लिये लेनिन खुद अपने कंधोंपर लट्टे उठाकर सबेरेसे शामतक काममें जुटे रहते थे। लोग मना करते कि आप कोई हलका काम ले लें; पर वे नहीं मानते थे। जब सालभरतक इसी प्रकार अपने शनिवारोंको बिना किसी इनाम या मजदूरीके उन श्रमजीवियोंने व्यय किया और इस ‘यज्ञ’ की वर्षगाँठ मनायी गयी, तब लेनिनने कहा था
‘साम्यवादियोंका श्रम समाजके निर्माणके लिये | होता है – वह किसी इनाम या पुरस्कारकी इच्छासे नहीं, बल्कि ‘बहुजनहिताय’ अर्पित किया जाता है। स्वस्थ शरीरके लिये श्रम तो एक अनिवार्य वस्तु है।’
श्रमकी महिमाके उपर्युक्त दो दृष्टान्त क्या हमारे लिये पर्याप्त प्रेरणाप्रद नहीं हैं? 195 रक्तके दबावमें धूपमें आध घंटे चलना और बीस-बीस घंटे मेहनत करना – यह थी बापूकी साधना; और गलेमें पिस्तौलका छर्रा लिये हुए सबेरेसे शामतक सिपाहियोंके साथ कंधेपर लट्ठे उठाना
– यह था लेनिनका तप ।

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