व्यासजीकी प्रसादनिष्ठा

buddha monastery sunset

महात्मा हरिराम व्यासजी घर छोड़कर संवत् 1612 में ओरछासे वृन्दावन चले आये थे। उस समय इनकी अवस्था 45 वर्षकी थी। श्रीराधाकृष्णकी लीलाओं में इनका मन रम चुका था। भक्तोंको ये अपने इष्टदेव के समान मानते थे। भगवान् के प्रसादकी पावनता इनकेविचारसे सर्वोपरि थी और वे मानते थे कि-

स्वान प्रसादहि छी गयौ, कौआ गयौ बिटारि ।

दोऊ पावन ब्यास के कह भागौत बिचारि ॥

इनसे इस प्रकारकी बातें सुनकर कुछ लफंगोंने प्रसादके प्रति इनकी उस परम निष्ठाकी परीक्षा लेनेकाविचार किया। एक दिन व्यासजीके निकटसे श्रीठाकुरजीका प्रसाद और संतोंके भोजनका जूँठन लिये हुए एक भंगिन निकली। उसे देखकर उन लोगोंने व्यासजीसे कहा

‘महाराज ! ठाकुरजीका प्रसाद तो इससे लीजिये ।’ यह सुनते ही व्यासजीने उस भंगिनके सामने प्रसादके लिये हाथ फैला दिये। पहले तो वह भंगिन कुछ झिझकी, किंतु जब अन्य लोगोंने व्यासजीको प्रसाद देनेके लिये उसे प्रोत्साहित किया, तब उसने अपनी डलियामेंसे एक पकौड़ी उठाकर व्यासजीकी हथेलीपर रख दी। भगवान्‌के उस प्रसादका बड़ी श्रद्धासे भोग लगाकर व्यासजी गाने लगे

हमारी जीवन मूरि प्रसाद ।

अतुलित महिमा कहत भागवत, मेटत सब प्रतिबाद ॥

जो षटमास ब्रतनि कीनें फल, सो एक सीथ के स्वाद ।

दरसन पाप नसात, खात सुख, परसत मिटत विषाद ॥

|देत-लेत जो करै अनादर, सो नर अधम गवाद।

श्रीगुरु सुकल प्रताप ‘व्यास’ यह रस पायौ अनहाद ॥

यह देखकर सभी लोग दंग रह गये। व्यासजीने उन्हें सुनाया

‘व्यास’ जाति तजि भक्ति कर, कहत भागवत टेरि।

जातिहि भक्तिहि ना बनै, ज्यों केरा ढिंग बेरि ॥

‘व्यास’ कुलीननि कोटि मिलि पंडित लाख पचीस ।

स्वपच भक्त की पानही तुलै न तिन के सीस ॥

‘व्यास’ मिठाई बिप्र की तामें लागै आग।

वृंदावन के स्वपच की जूँठिन खैये माँग ॥

व्यासजीके इस प्रकारके अनेक पुनीत चित्र हैं, जिन्हें देखकर ही महात्मा ध्रुवदासजीने उनके लिये

लिखा था-

प्रेम मगन नहिं गन्यौ कछु बरनाबरन बिचार l

सबन मध्य पायौ प्रगट लै प्रसाद रस-सार ॥

Mahatma Hariram Vyasji left home and went to Vrindavan from Orchha in Samvat 1612. At that time his condition was 45 years old. His mind was engrossed in the pastimes of Shriradhakrishna. He used to consider the devotees as his presiding deity. The sanctity of God’s offerings was paramount to his thoughts and he believed that-
Swan prasadhi chhi gayau, kaua gayau bitari.
Two ran away from the holy Beas poor thing.
Hearing such things from him, some ruffians thought of testing his utmost loyalty towards Prasad. One day, a thief came out from Vyasji’s side carrying Shri Thakurji’s prasad and a bundle of saints’ food. Seeing him, they said to Vyasji
‘King ! At least take Thakurji’s prasad from him.’ On hearing this, Vyas ji spread his hands for Prasad in front of that Bhangin. At first she hesitated a bit, but when others encouraged her to offer Prasad to Vyasji, she picked up a dumpling from her basket and placed it on Vyasji’s palm. Vyas ji started singing after enjoying that Prasad of God with great devotion.
Our life’s Muri Prasad.
Bhagwat says incomparable glory, everything is defeated.
The fruits that are grown in Shatmas utensils, taste like a Sith.
Darsan sin nasat, eats happiness, sadness fades away ॥
|
Shri Guru Sukal Pratap ‘Vyas’ got this juice, Anahad ॥
Everyone was stunned to see this. Vyasji told them
Do devotion to ‘Vyas’ caste, say Bhagwat teri.
Caste does not become devotion, just like banana fruit.
‘Vyas’ Kulinani crore milli Pandit lakh twenty five.
Swapach devotee’s water is not weighed by three sis ॥
Bipra’s ‘Vyas’ sweets caught fire.
Eat the false demands of Vrindavan’s self.
There are many such holy pictures of Vyasji, seeing which Mahatma Dhruvdasji
wrote-
Prem Magan Nahin Ganyu Kuch Barnabaran Bichhar.
In the middle of every week, Pragat La Prasad Ras-Sar ॥

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