🔸गुरु की कृपा ही शिष्य का परम मंगल कर सकती है, दूसरा कोई भी नहीं कर सकता है यह प्रमाण वचन है। प्रमाण वचन को जो पकड़ता है वह तरता है।
🔸बिना विवेक और वैराग्य के तुम्हें ब्रह्माजी का उपदेश भी काम न आयेगा !
जो मौत की यात्रा के साक्षी बन जाते हैं उनके लिये यात्रा यात्रा रह जाती है, साक्षी उससे परे हो जाता है ।
🔸मौत के बाद अपने सब पराये हो गये । तुम्हारा शरीर भी पराया हो गया । लेकिन तुम्हारी आत्मा आज तक परायी नहीं हुई ।
हजारों मित्रों ने तुमको छोड़ दिया, लाखों कुटुम्बियों ने तुमको छोड़ दिया, करोड़ों-करोड़ों शरीरों ने तुमको छोड़ दिया, अरबों-अरबों कर्मों ने तुमको छोड़ दिया लेकिन तुम्हारा आत्मदेव तुमको कभी नहीं छोड़ता ।
🔸शरीर की स्मशानयात्रा हो गयी लेकिन तुम उससे अलग साक्षी चैतन्य हो । तुमने अब जान लिया कि:‘मैं इस शरीर की अंतिम यात्रा के बाद भी बचता हूँ, अर्थी के बाद भी बचता हूँ, जन्म से पहले भी बचता हूँ और मौत के बाद भी बचता हूँ । मैं चिदाकाश … ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ । मैंने छोड़ दिया मोह ममता को । तोड़ दिया सब प्रपंच ।’
🔸इस अभ्यास को बढ़ाते रहना । शरीर की अहंता और ममता, जो आखिरी विघ्न है, उसे इस प्रकार तोड़ते रहना । मौका मिले तो स्मशान में जाना । दिखाना अपने को वह दृश्य 🔸। अपने मन को कि, ‘देख ! तेरी हालत भी ऐसी होगी ।’
स्मशान में विवेक और वैराग्य होता है । बिना विवेक और वैराग्य के तुम्हें ब्रह्माजी का उपदेश भी काम न आयेगा । बिना विवेक और वैराग्य के तुम्हें साक्षात्कारी पूर्ण सदगुरु मिल जायँ फिर भी तुम्हें इतनी गति न करवा पायेंगे 🔸। तुम्हारा विवेक और वैराग्य न जगा हो तो गुरु भी क्या करें ? विवेक और वैराग्य जगाने के लिए कभी कभी स्मशान में जाते रहना । कभी घर में बैठे ही मन को स्मशान की यात्रा करवा लेना ।
🔸मरो मरो सब कोई कहे मरना न जाने कोय ।
एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होय ॥
🔸ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो । शरीर की ममता टूटेगी तो अन्य नाते रिश्ते सब भीतर से ढीले हो जायेंगे । अहंता ममता टूटने पर तुम्हारा व्यवहार प्रभु का व्यवहार हो जाएगा । तुम्हारा बोलना प्रभु का बोलना हो जाएगा । तुम्हारा देखना प्रभु का देखना हो जाएगा । तुम्हारा जीना प्रभु का जीना हो जाएगा । केवल भीतर की अहंता तोड़ देना । बाहर की ममता में तो रखा भी क्या है ?
🔸देह छ्तां जेनी दशा वर्ते देहातीत ।
ते ज्ञानीना चरणमां हो वन्दन अगणित ॥
🔸भीतर ही भीतर अपने आपसे पूछो कि: ‘मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि देह होते हुए भी मैं अपने को देह से पृथक् अनुभव करुँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि एकांत में बैठा बैठा मैं अपने मन बुद्धि को पृथक् देखते-देखते अपनी आत्मा में तृप्त होऊँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं आत्मानन्द में मस्त रहकर संसार के व्यवहार में निश्चिन्त रहूँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि शत्रु और मित्र के व्यवहार को मैं खेल समझूँगा ?’
🔸 ऐसा न सोचो कि वे दिन कब आयेंगे कि मेरा प्रमोशन हो जाएगा… मैं प्रेसिडेन्ट हो जाऊँगा … मैं प्राइम मिनिस्टर हो जाऊँगा ?
आग लगे ऐसे पदों की वासना को ! ऐसा सोचो कि मैं कब आत्मपद पाऊँगा ? कब प्रभु के साथ एक होऊँगा ?