श्रीवामनपुराण के माध्यम से अध्यात्मिक प्रसंग
महिषासुर वंश कथा भाग – 1
ऋषी पुलस्त्यजी से नारदजी ने पूछा —-ऋषे ! द्विजोतम ! प्राचीन काल मे ” भगवान शंकर ने कात्यायनी ( माँ दुर्गा ) – की रक्षा के लिए इस महान विष्णु-अज्र-स्तोत्र को उस स्थान पर कहा था, जहाँ उन्होंने महिषासुर, नमर, रक्तबीज एवं अन्यान्य देव-शत्रुओं का नाश किया था । ” नमर, रक्तबीज तथा अन्यान्य सुर-कंटकों का बध करने वाली ये भगवती कात्यायनी कौन है ? तात ! यह महिष कौन हैं ? तथा वह किसके कुल में उत्पन्न हुआ था ? यह रक्तबीज कौन है ? तथा नमर किसका पुत्र हैं ? आप इसका यथार्थ रूप से विस्तार पूर्वक वर्णन करें ।
पुलस्त्यजी बोले— नारदजी ! सुनिये ,मैं उस पाप नाशक कथा को कहता हूँ । मुने ! सब कुछ देने वाली वरदायनी भगवती दुर्गा माँ ही ये कात्यायनी हैं । प्राचीन-काल में संसार मे उथल- पुथल मचानेवाले रम्भ और करम्भ नाम के दो भयंकर और महाबलवान असुर-श्रेष्ठ थे । देवर्षे ! वे दोनों पुत्र हीन थे । उन दोनों देत्यों ने पुत्र के लिये पचन्द के जल में रहकर बहुत वर्षों तक तप किया । मालवट यक्ष के प्रति एकाग्र होकर करम्भ और रम्भ – इन दोनों में से एक जल में स्थित होकर और दूसरा पंचग्रि के मध्य बैठ कर तप कर रहा था ।
इंद्र ने ग्राह का रूप धारण कर इनमे से एक को जल में निम्गर होने पर पैर पकड़ कर इच्छानुसार दूर ले जाकर मार डाला । उसके बाद भाई के नष्ट हो जाने पर क्रोधयुक्त महाबलशाली रम्भ ने अपने सिर को काटकर अग्नि में हवन करना चाहा । वह अपना केश पकड़ कर हाथ में सूर्य के समान चमकने वाली तलवार लेकर अपना सिर काटना ही चाहता था कि अग्नि ने उसे रोक दिया औऱ कहा- दैत्य वर माँगो ! तुम स्वयं अपना नाश मत करो । दूसरे का वध तो पाप होता ही है, आत्महत्या भी भयानक पाप है । वीर तुम जो मांगोगे, तुम्हारी इच्छा के अनुसार वह मैं तुम्हें दूँगा । तुम मरो मत । इस संसार में मृत व्यक्ति की कथा नष्ट हो जाती हैं । इस पर रम्भ ने कहा – यदि आप वर देते हैं तो यह वर दीजिये कि मुझे आप से भी अधिक तेजस्वी त्रैलोक्य विजयी पुत्र उत्पन्न हो । अग्निदेव ! समस्त देवताओं तथा मानवों और दैत्यों से भी वह अजेय हो । वह वायु के समान महावलबान तथा कामरूपी एवं सर्वास्त्रवेता हो । नारदजी ! इस पर अग्निदेव ने उससे कहा – अच्छा, ऐसा ही होगा । जिस स्त्री में तुम्हारा चित लग जायेगा उसी से तुम पुत्र उत्पन्न करोगे ।
अग्निदेव के ऐसा कहने पर रम्भ यक्षों से घिरा हुआ मलबट यक्ष का दर्शन करने गया । वहाँ उन यक्षों का एक पदमा नाम की निधि अनन्य -चित होकर निवास करती थी । वहाँ बहुत से बकरे, भेड़ें, घोड़े, भैसें तथा हाथी और गाय-बैल थे । तपोधन ! दानवराज ने उन्हे देखकर तीस् वर्षों वाली रूपवती एक महिषी में प्रेम प्रकट किया ( अथार्त आसक्त हुआ ) काम परायण होकर वह महिषी शीघ्र दैत्यन्दर के समीप आ गयी तब भवितव्यवता से प्रेरित उसने (रम्भ ने) भी उस महिषी के साथ संगत किया
धूप, दीप, और पुष्प के, संग रखें नैवेद्य।
माता पूजन कीजिए,खुशियाँ मिलें अभेद।।