
करम प्रधान बिस्व करि राखा
करम प्रधान बिस्व करि राखा’ श्रीरामचन्द्रजीको वनमें गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथको
करम प्रधान बिस्व करि राखा’ श्रीरामचन्द्रजीको वनमें गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथको
संतका मौन बहुत बड़ा और दिव्य भूषण है। वाणीके मौनसे संतोंने आश्चर्यजनक बड़े-बड़े कार्योंका सम्पादन किया है। ग्यारहवीं शताब्दीके दूसरे
आत्मविश्वास जिम कॉर्बेट एक महान शिकारी ही नहीं, बल्कि एक जीवट भरे इंसान भी थे। एक बार वे हैजेसे पीड़ित
राजा जनकने पञ्चशिख मुनिसे वृद्धावस्था और मृत्युसे बचनेका उपाय पूछा। तब पञ्चशिखने कहा- ‘कोई भी मनुष्य जरा और मृत्युसे नहीं
एक संत कहीं जा रहे थे। एक दुष्ट व्यक्ति उन्हें गालियाँ देता हुआ उनके पीछे-पीछे चल रहा था। संतने उससे
द्रोणाचार्य पाण्डव एवं कौरव राजकुमारोंको अस्त्र शिक्षा दे रहे थे। बीच-बीचमें आचार्य अपने शिष्योंके हस्तलाघव, लक्ष्यवेध, शस्त्र – चालनकी परीक्षा
हाड़-मांसकी देह और ‘मैं’ महर्षि रमणकी आयु तब सत्रह वर्षकी रही होगी। एक बार वे अपने काकाके घरकी छतपर सो
रँगी लोमड़ी एक लोमड़ी खानेकी तलाशमें एक गाँवमें घुस गयी। वह एक रंगरेजके घरके पिछवाड़े में चली गयी, जहाँपर रंगसे
नाग महाशयकी झोंपड़ी पुरानी हो चुकी थी । उसकी मरम्मत आवश्यक थी। मजदूर बुलाया गया। परंतु जब वह इनके घर
विक्रमीय दसवीं शताब्दीकी बात है । — एक दिन काश्मीर-नरेश महाराज यशस्करदेव अपनी राजसभा बैठकर किसी गम्भीर विषयका चिन्तन कर