ऊधो! करमन की गति न्यारी

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‘ऊधो! करमन की गति न्यारी’

(स्वामी श्रीशिवानन्दजी वैद्यराज)

एक बहुत बड़ा सेठ विपुल सम्पत्ति छोड़कर मरा था। उसका एकमात्र पुत्र उस सम्पत्तिका मालिक था। धनी लोगकि पुत्र अनावश्यक संसाधनोंकी प्रचुरताके कारण प्रायः बिगड़ जाते हैं। इसी दोषके कारण अपरिमित सम्पत्ति भेटके पुत्रने भी थोड़े दिनोंमें ही नष्ट कर दी। सम्पत्तिका नाश होनेसे उसे अत्यन्त कष्ट होने लगा। जिन धूर्त चापलूसोंके कुसंगमें पड़कर उसने धन गवाँया था, अब हे मीठी-मीठी बातोंकी जगह उसको फटकार देने लगे।
जब खाना मिलनेमें भी तंगी आने लगी, तब उसकी स्त्रीने कहा—’स्वामिन्! कुछ मेहनत में करती हूँ, कुछ आप करें, तो निर्वाह हो सकता है।’ स्त्रीने सूत कातने, आटा पीसने तथा धान कूटने आदिकी मेहनत मजदूरी शुरू कर दी और उसका पति (सेठका पुत्र) जंगलमें घास तथा लकड़ी काटने जाने लगा। घटनाचक्रमें पड़कर इन दम्पतीको ऐसा मोटा काम करनेके लिये बाध्य होना पड़ा, जो उन्होंने कभी किया नहीं था। जिन कोमल हाथोंमें फूलोंकी पंखुड़ी चुभा करती थी तथा सेमलकी रूईके गद्दे कड़े मालूम पड़ते थे, उन हाथोंसे ऐसा कठिन काम करनेके कारण सेठके लड़केके हाथ-पाँवमें काँटे चुभ जाते और छाले पड़ जाया करते थे। इस कष्टसे व्यथित होकर एक दिन वह एकान्त स्थान पाकर विलाप करने लगा।
उस दिन पास बहनेवाली उस जंगलकी नदीके किनारे ‘कर्मदेवता’ और ‘लक्ष्मी’ दोनों विचर रहे थे। | सेठके लड़केका रोना सुनकर लक्ष्मी बोलीं-देखो! मेरे बिना जीवका ऐसा हाल होता है। जैसे
तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव
अन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥

मेरा साथ-सहारा पाकर पहले यह क्या था और अब मेरे बिना इसकी क्या दशा है? हाथ-पाँव आदि इन्द्रियाँ, नाम, बुद्धि, बोल-चाल पहले जैसी ही हैं, केवल धनकी गरमीके बिना इसकी यह हालत हो गयी। लक्ष्मीकी यह बात सुनकर कर्मदेवताने कहा-मेरे बिना इसकी यह गति हुई है। जैसे
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ।

सारा संसार कर्मका वशवर्ती हो दारुयोषित् (कठपुतली) की तरह नाच रहा है इत्यादि। बहुत कुछ कथनोपकथनसे दोनोंमें विवाद उपस्थित हो गया। कर्मने कहा- ‘हे लक्ष्मी! तुम इसको धन देकर धनी करो। यदि तुम्हारे दिये धनसे यह धनी हो गया, तो तुम्हारा कथन सत्य है और जो धन पाकर भी यह ऐसेका ऐसा कोरा ही रहा, तो फिर अधिकता मेरी होगी, यानी मैं जीतूंगा।’
यह निर्णय हो जानेपर लक्ष्मीने उसके सामने रास्ते में दो लाल फेंक दिये। चूँकि वह सेठ था, अतः लालोंकी महिमा जानता था। लालोंको उठाकर बड़े हर्षसे घरको चला। गरमीका समय था, प्यास लग गयी। रास्तेमें एक छोटी-सी नदी थी। झुककर पानी पीने लगा, तो लालोंका जोड़ा जेबसे निकलकर नदीमें गिर पड़ा। गिरते ही खाद्यसामग्री जानकर मछलीने निगल लिया। वह घर आकर स्त्रीसहित पश्चात्ताप करने लगा। उस रोज सेठजी लालोंकी प्राप्तिकी खुशीमें बोझभरी तैयार गठरी भी वहीं जंगलके रास्तेमें पटक आये थे।
अगले दिन सेठतनय फिर नित्यकी तरह उसी जंगलमें लकड़ी काटने पहुँचा। उसकी दीन दशा देखकर लक्ष्मीजीने एक सच्चे मोतियोंका हार उस दिन रास्तेके बीचमें रख दिया। उसने हार उठाकर अपनी पगड़ीमें रख लिया। रास्ते में आनेवाली नदीमें स्नान करनेके वास्ते ठहर गया, हारसहित पगड़ी किनारेपर रख दी। चील खानेकी वस्तु समझकर हारको पगड़ीसहित लेकर उड़ गयी। आज भी सेठजीका लड़का खाली हाथों घर जाकर पत्नीके साथ शोक करने लगा।
तीसरे दिन सेठपुत्र फिर रोजकी तरह घास-फूस काटने जंगलमें पहुँचा, तो लक्ष्मीने रास्तेमें अशर्फियोंकी थैली फेंक दी। उसे सेठके पुत्रने उठा लिया। आज सेठ सीधा घरकी तरफ चला। रास्तेमें दो दिन धोखा खा जानेके कारण बीचमें कहीं नहीं ठहरा घरमें पहुँचनेपर देखा तो स्त्री घरपर नहीं थी। किसी पड़ोसीके यहाँ गयी थी। उसने घरके प्रधान दरवाजेके पास थैली रख दी और किवाड़ बन्द करके अपनी स्त्रीको पासके घरसे बुलाने गया। उसने समझा कि अभी लौट आता हूँ, पर वहाँ कुछ देर लग गयी। इतनेमें उसकी स्त्रीसे मिलने एक पड़ोसिन आयी। उसने दरवाजा खोला तो रास्तेके पास एक थैली देखी। धीरेसे थैली उठाकर पड़ोसिन अपने घर ले गयी। बादमें सेठ और उसकी स्त्रीने घर आकर थैली न देख बड़ा अफसोस किया।
चौथे दिन फिर सेठका पुत्र जंगलमें आकर घास काटने लगा। सेठकी यह दशा देख लक्ष्मीजीने कर्मदेवतासे कहा कि ‘मैं तो सब कुछ दे चुकी। बार-बार दिया, फिर भी यह कोरा ही रहा। अब आप कुछ देकर देखिये।’ यह सुन कर्मदेवताने सेठके पुत्रको ताँबेके दो टके दिये यानी उसके रास्तेमें दो पैसे फेंक दिये। सेठने टका उठाया और कहा कि ‘आज भगवान्ने हमको टका दिया, टका ही सही। हमारा किसीपर कर्ज तो है नहीं। इससे पहले बहुत कुछ तो दिया, पर लक्ष्मी क्या करे, जब कर्म ही सहायक नहीं है।’ सेठने टकेको लेकर घर जाते हुए देखा कि रास्ते में एक आदमी नदीसे मछली पकड़ रहा है। उसने एक पैसेकी मछली खरीदी। दूसरा पैसा मसाले और छौंक के तेलके लिये रख लिया। फिर सोचा लकड़ी यहींसे चुनता चलूँ। वहीं एक वृक्षपर सूखी डाली थी। उसे तोड़ने वृक्षपर चढ़ा तो वहाँ एक चीलका घोंसला नजर आया। उसमें हारसहित अपनी पगड़ी पड़ी देखी। उठाकर बड़ी खुशीसे घरमें आया। स्त्रीसे जरा जोरसे बोला-देवि ! जो चीज खो गयी थी, वह मिल गयी। यह आवाज उस पड़ोसिनने सुनी, जिसने थैली झटक ली थी। उसने सोचा- इसको थैलीका हाल मालूम हो गया। ‘चोरकी दाढ़ीमें तिनका’ वाली कहावतके अनुसार वह विचारने लगी कि कहीं यह राजपुरुषोंसे हमारे घरकी तलाशी न करा दे ? इससे अप्रतिष्ठा तो होगी ही साथमें जेल भी जाना होगा। शायद जुर्माना भी हो जाय ? इत्यादि, पूर्वापर विचारकर उसने वह थैली धीरेसे सेठके घरमें डाल दी। इसके बाद ज्यों ही सेठ घरमें गया, देखा कि थैली भी पड़ी है। उधर मछली चीरी गयी, तो लाल भी उसके पेटसे निकल आये। आनन्द हो गया।
भाव यह है कि मनुष्यके कर्म ही सुख-दुःखके देनेवाले हैं। कर्मानुसार सब सामग्री जुट जाती है। यदि कर्म अच्छे न हों या यों कह लो कि कर्म सहायक न हाँ, तो मिली हुई सामग्री भी नष्ट हो जाती है। यदि रह भी गयी तो अपने किसी काम नहीं आती। घरमें अपने अधीन घृत, दुग्ध, अन्न, वस्त्र, वाहनप्रभृति सभी वस्तुएँ प्रस्तुत हैं, किंतु मन्दभाग्य होनेके कारण ये सामग्रियाँ कुछ भी काम नहीं आतीं। कर्महीनोंको तो अपनी स्त्री, जो अर्धांगिनी, प्राणप्रिया, प्राणाधिका आदि सब कुछ कहलाती और होनेका दावा या दम भरती है-वह भी पलमें परायी हो जाती है।
कर्मवीरोंका कहना ही क्या है? कर्मठोंको समुद्र गोष्पदीभूत (गायके खुरसे बने गड्ढे के समान) हो जाता है। वे चाहें तो सुमेरुको फूँकसे उड़ा दें। जब कि सब कुछ कर्मानुसार होता है, फिर मनुष्य कर्म न करे और इष्टफलकी आशा करे, तो उसकी भारी भूल है। सुख सब चाहते हैं, किंतु मिलता है वह पुण्योंसे और पुण्य सत्कर्मोंसे निष्पन्न होते हैं। मनुष्य सत्कर्म तो करना नहीं चाहता और सुखकी इच्छा करता है। उसका ऐसा चाहना कारणके बिना कार्योत्पत्तिकी कल्पना करना है। ‘करम प्रधान बिस्व करि राखा’ आदि कथनानुसार कर्म ही सब इष्टसिद्धियोंका प्रधान साधन है। किसी मनुष्यको किसीके ऐश्वर्यको देखकर ईर्ष्यालु नहीं होना चाहिये। यदि उसे वैसे वैभवकी चाहना है, तो पुण्य करे यानी पुण्यजनक कर्म करे । ‘अस्याः स्तनौ’ इत्यादि श्लोकोंमें। श्रीभर्तृहरि आदि सन्तोंने ईर्ष्याकषायान्तःकरणों (ईर्ष्याके रंगमें रंगे अन्तःकरणवाले लोगों) को यही उपदेश दिया है यानी पुण्यसम्पादन करनेकी सम्मति दी है।
मनुष्य सम्पत्ति और मान-बड़ाई प्रभृतिके पीछे भागा फिरता है, किंतु मृगमरीचिका या मृगजलकी तरह उसके हाथ कुछ नहीं पड़ता। मनुष्य संसारी पदार्थोंके पीछे जितना दौड़ेगा, वे उससे उतना ही दूर भागेंगे।
भागती फिरती थी दुनिया
जब तलब करते थेहम
अब जो नफरत हमने की
तो वह बेकरार आने को है ॥
क्या मनुष्यको ऐसी विधि नहीं मालूम कि वह चाहे तो अष्ट सिद्धि और नौ निधि आदि विभूतियाँ उसके लिये हस्तामलकवत् हो जायँ ? यानी सब कुछ बिना बुलाये और बिना चाहे उसके पास आप-से-आप हाजिर हो जाय!
है, इसकी विधि भी है और वह ‘कर्म’ है। सब कुछ कर्मकी महिमासे सम्पन्न हो सकता है। सत्कर्मानुष्ठान करो। फिर तो तुम संसारमें अपने लिये नन्दनकाननकी सृष्टि कर ही लोगे, साथ ही इस दुनियाको भी स्वर्गधाम बना दोगे।
क्या करें? संसार कर्महीन हो गया, जगत्में अकर्मण्यता फैल गयी, अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार चाहे ऊँचा हो चाहे नीचा, सबको स्व-स्वकर्म करना उचित है। पर आजकल कौन कर्मानुष्ठानसे कष्टको इष्ट मानता है? इसीका फल है ‘दुर्भिक्षं मरणं भयम्।’ लोगोंने अपने कर्म त्याग दिये, प्रकृतिदेवीने भी अपना काम करना छोड़ दिया या उसमें अस्तव्यस्तता ला दी। इसीसे नाना उत्पात उठकर देशको तबाह कर रहे हैं। किस कर्मका क्या फल है ? इसका अन्दाजा मनुष्य चाहे अपनी बुद्धिसे भले ही लगा ले, किंतु ठीक-ठीक तो भगवान् ही जानते हैं। इसीसे कहा गया है कि- ‘ऊधो! करमन की गति न्यारी।’

‘ऊधो! करमन की गति न्यारी’
(स्वामी श्रीशिवानन्दजी वैद्यराज)
एक बहुत बड़ा सेठ विपुल सम्पत्ति छोड़कर मरा था। उसका एकमात्र पुत्र उस सम्पत्तिका मालिक था। धनी लोगकि पुत्र अनावश्यक संसाधनोंकी प्रचुरताके कारण प्रायः बिगड़ जाते हैं। इसी दोषके कारण अपरिमित सम्पत्ति भेटके पुत्रने भी थोड़े दिनोंमें ही नष्ट कर दी। सम्पत्तिका नाश होनेसे उसे अत्यन्त कष्ट होने लगा। जिन धूर्त चापलूसोंके कुसंगमें पड़कर उसने धन गवाँया था, अब हे मीठी-मीठी बातोंकी जगह उसको फटकार देने लगे।
जब खाना मिलनेमें भी तंगी आने लगी, तब उसकी स्त्रीने कहा—’स्वामिन्! कुछ मेहनत में करती हूँ, कुछ आप करें, तो निर्वाह हो सकता है।’ स्त्रीने सूत कातने, आटा पीसने तथा धान कूटने आदिकी मेहनत मजदूरी शुरू कर दी और उसका पति (सेठका पुत्र) जंगलमें घास तथा लकड़ी काटने जाने लगा। घटनाचक्रमें पड़कर इन दम्पतीको ऐसा मोटा काम करनेके लिये बाध्य होना पड़ा, जो उन्होंने कभी किया नहीं था। जिन कोमल हाथोंमें फूलोंकी पंखुड़ी चुभा करती थी तथा सेमलकी रूईके गद्दे कड़े मालूम पड़ते थे, उन हाथोंसे ऐसा कठिन काम करनेके कारण सेठके लड़केके हाथ-पाँवमें काँटे चुभ जाते और छाले पड़ जाया करते थे। इस कष्टसे व्यथित होकर एक दिन वह एकान्त स्थान पाकर विलाप करने लगा।
उस दिन पास बहनेवाली उस जंगलकी नदीके किनारे ‘कर्मदेवता’ और ‘लक्ष्मी’ दोनों विचर रहे थे। | सेठके लड़केका रोना सुनकर लक्ष्मी बोलीं-देखो! मेरे बिना जीवका ऐसा हाल होता है। जैसे
तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव
अन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥

मेरा साथ-सहारा पाकर पहले यह क्या था और अब मेरे बिना इसकी क्या दशा है? हाथ-पाँव आदि इन्द्रियाँ, नाम, बुद्धि, बोल-चाल पहले जैसी ही हैं, केवल धनकी गरमीके बिना इसकी यह हालत हो गयी। लक्ष्मीकी यह बात सुनकर कर्मदेवताने कहा-मेरे बिना इसकी यह गति हुई है। जैसे
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ।

सारा संसार कर्मका वशवर्ती हो दारुयोषित् (कठपुतली) की तरह नाच रहा है इत्यादि। बहुत कुछ कथनोपकथनसे दोनोंमें विवाद उपस्थित हो गया। कर्मने कहा- ‘हे लक्ष्मी! तुम इसको धन देकर धनी करो। यदि तुम्हारे दिये धनसे यह धनी हो गया, तो तुम्हारा कथन सत्य है और जो धन पाकर भी यह ऐसेका ऐसा कोरा ही रहा, तो फिर अधिकता मेरी होगी, यानी मैं जीतूंगा।’
यह निर्णय हो जानेपर लक्ष्मीने उसके सामने रास्ते में दो लाल फेंक दिये। चूँकि वह सेठ था, अतः लालोंकी महिमा जानता था। लालोंको उठाकर बड़े हर्षसे घरको चला। गरमीका समय था, प्यास लग गयी। रास्तेमें एक छोटी-सी नदी थी। झुककर पानी पीने लगा, तो लालोंका जोड़ा जेबसे निकलकर नदीमें गिर पड़ा। गिरते ही खाद्यसामग्री जानकर मछलीने निगल लिया। वह घर आकर स्त्रीसहित पश्चात्ताप करने लगा। उस रोज सेठजी लालोंकी प्राप्तिकी खुशीमें बोझभरी तैयार गठरी भी वहीं जंगलके रास्तेमें पटक आये थे।
अगले दिन सेठतनय फिर नित्यकी तरह उसी जंगलमें लकड़ी काटने पहुँचा। उसकी दीन दशा देखकर लक्ष्मीजीने एक सच्चे मोतियोंका हार उस दिन रास्तेके बीचमें रख दिया। उसने हार उठाकर अपनी पगड़ीमें रख लिया। रास्ते में आनेवाली नदीमें स्नान करनेके वास्ते ठहर गया, हारसहित पगड़ी किनारेपर रख दी। चील खानेकी वस्तु समझकर हारको पगड़ीसहित लेकर उड़ गयी। आज भी सेठजीका लड़का खाली हाथों घर जाकर पत्नीके साथ शोक करने लगा।
तीसरे दिन सेठपुत्र फिर रोजकी तरह घास-फूस काटने जंगलमें पहुँचा, तो लक्ष्मीने रास्तेमें अशर्फियोंकी थैली फेंक दी। उसे सेठके पुत्रने उठा लिया। आज सेठ सीधा घरकी तरफ चला। रास्तेमें दो दिन धोखा खा जानेके कारण बीचमें कहीं नहीं ठहरा घरमें पहुँचनेपर देखा तो स्त्री घरपर नहीं थी। किसी पड़ोसीके यहाँ गयी थी। उसने घरके प्रधान दरवाजेके पास थैली रख दी और किवाड़ बन्द करके अपनी स्त्रीको पासके घरसे बुलाने गया। उसने समझा कि अभी लौट आता हूँ, पर वहाँ कुछ देर लग गयी। इतनेमें उसकी स्त्रीसे मिलने एक पड़ोसिन आयी। उसने दरवाजा खोला तो रास्तेके पास एक थैली देखी। धीरेसे थैली उठाकर पड़ोसिन अपने घर ले गयी। बादमें सेठ और उसकी स्त्रीने घर आकर थैली न देख बड़ा अफसोस किया।
चौथे दिन फिर सेठका पुत्र जंगलमें आकर घास काटने लगा। सेठकी यह दशा देख लक्ष्मीजीने कर्मदेवतासे कहा कि ‘मैं तो सब कुछ दे चुकी। बार-बार दिया, फिर भी यह कोरा ही रहा। अब आप कुछ देकर देखिये।’ यह सुन कर्मदेवताने सेठके पुत्रको ताँबेके दो टके दिये यानी उसके रास्तेमें दो पैसे फेंक दिये। सेठने टका उठाया और कहा कि ‘आज भगवान्ने हमको टका दिया, टका ही सही। हमारा किसीपर कर्ज तो है नहीं। इससे पहले बहुत कुछ तो दिया, पर लक्ष्मी क्या करे, जब कर्म ही सहायक नहीं है।’ सेठने टकेको लेकर घर जाते हुए देखा कि रास्ते में एक आदमी नदीसे मछली पकड़ रहा है। उसने एक पैसेकी मछली खरीदी। दूसरा पैसा मसाले और छौंक के तेलके लिये रख लिया। फिर सोचा लकड़ी यहींसे चुनता चलूँ। वहीं एक वृक्षपर सूखी डाली थी। उसे तोड़ने वृक्षपर चढ़ा तो वहाँ एक चीलका घोंसला नजर आया। उसमें हारसहित अपनी पगड़ी पड़ी देखी। उठाकर बड़ी खुशीसे घरमें आया। स्त्रीसे जरा जोरसे बोला-देवि ! जो चीज खो गयी थी, वह मिल गयी। यह आवाज उस पड़ोसिनने सुनी, जिसने थैली झटक ली थी। उसने सोचा- इसको थैलीका हाल मालूम हो गया। ‘चोरकी दाढ़ीमें तिनका’ वाली कहावतके अनुसार वह विचारने लगी कि कहीं यह राजपुरुषोंसे हमारे घरकी तलाशी न करा दे ? इससे अप्रतिष्ठा तो होगी ही साथमें जेल भी जाना होगा। शायद जुर्माना भी हो जाय ? इत्यादि, पूर्वापर विचारकर उसने वह थैली धीरेसे सेठके घरमें डाल दी। इसके बाद ज्यों ही सेठ घरमें गया, देखा कि थैली भी पड़ी है। उधर मछली चीरी गयी, तो लाल भी उसके पेटसे निकल आये। आनन्द हो गया।
भाव यह है कि मनुष्यके कर्म ही सुख-दुःखके देनेवाले हैं। कर्मानुसार सब सामग्री जुट जाती है। यदि कर्म अच्छे न हों या यों कह लो कि कर्म सहायक न हाँ, तो मिली हुई सामग्री भी नष्ट हो जाती है। यदि रह भी गयी तो अपने किसी काम नहीं आती। घरमें अपने अधीन घृत, दुग्ध, अन्न, वस्त्र, वाहनप्रभृति सभी वस्तुएँ प्रस्तुत हैं, किंतु मन्दभाग्य होनेके कारण ये सामग्रियाँ कुछ भी काम नहीं आतीं। कर्महीनोंको तो अपनी स्त्री, जो अर्धांगिनी, प्राणप्रिया, प्राणाधिका आदि सब कुछ कहलाती और होनेका दावा या दम भरती है-वह भी पलमें परायी हो जाती है।
कर्मवीरोंका कहना ही क्या है? कर्मठोंको समुद्र गोष्पदीभूत (गायके खुरसे बने गड्ढे के समान) हो जाता है। वे चाहें तो सुमेरुको फूँकसे उड़ा दें। जब कि सब कुछ कर्मानुसार होता है, फिर मनुष्य कर्म न करे और इष्टफलकी आशा करे, तो उसकी भारी भूल है। सुख सब चाहते हैं, किंतु मिलता है वह पुण्योंसे और पुण्य सत्कर्मोंसे निष्पन्न होते हैं। मनुष्य सत्कर्म तो करना नहीं चाहता और सुखकी इच्छा करता है। उसका ऐसा चाहना कारणके बिना कार्योत्पत्तिकी कल्पना करना है। ‘करम प्रधान बिस्व करि राखा’ आदि कथनानुसार कर्म ही सब इष्टसिद्धियोंका प्रधान साधन है। किसी मनुष्यको किसीके ऐश्वर्यको देखकर ईर्ष्यालु नहीं होना चाहिये। यदि उसे वैसे वैभवकी चाहना है, तो पुण्य करे यानी पुण्यजनक कर्म करे । ‘अस्याः स्तनौ’ इत्यादि श्लोकोंमें। श्रीभर्तृहरि आदि सन्तोंने ईर्ष्याकषायान्तःकरणों (ईर्ष्याके रंगमें रंगे अन्तःकरणवाले लोगों) को यही उपदेश दिया है यानी पुण्यसम्पादन करनेकी सम्मति दी है।
मनुष्य सम्पत्ति और मान-बड़ाई प्रभृतिके पीछे भागा फिरता है, किंतु मृगमरीचिका या मृगजलकी तरह उसके हाथ कुछ नहीं पड़ता। मनुष्य संसारी पदार्थोंके पीछे जितना दौड़ेगा, वे उससे उतना ही दूर भागेंगे।
भागती फिरती थी दुनिया
जब तलब करते थेहम
अब जो नफरत हमने की
तो वह बेकरार आने को है ॥
क्या मनुष्यको ऐसी विधि नहीं मालूम कि वह चाहे तो अष्ट सिद्धि और नौ निधि आदि विभूतियाँ उसके लिये हस्तामलकवत् हो जायँ ? यानी सब कुछ बिना बुलाये और बिना चाहे उसके पास आप-से-आप हाजिर हो जाय!
है, इसकी विधि भी है और वह ‘कर्म’ है। सब कुछ कर्मकी महिमासे सम्पन्न हो सकता है। सत्कर्मानुष्ठान करो। फिर तो तुम संसारमें अपने लिये नन्दनकाननकी सृष्टि कर ही लोगे, साथ ही इस दुनियाको भी स्वर्गधाम बना दोगे।
क्या करें? संसार कर्महीन हो गया, जगत्में अकर्मण्यता फैल गयी, अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार चाहे ऊँचा हो चाहे नीचा, सबको स्व-स्वकर्म करना उचित है। पर आजकल कौन कर्मानुष्ठानसे कष्टको इष्ट मानता है? इसीका फल है ‘दुर्भिक्षं मरणं भयम्।’ लोगोंने अपने कर्म त्याग दिये, प्रकृतिदेवीने भी अपना काम करना छोड़ दिया या उसमें अस्तव्यस्तता ला दी। इसीसे नाना उत्पात उठकर देशको तबाह कर रहे हैं। किस कर्मका क्या फल है ? इसका अन्दाजा मनुष्य चाहे अपनी बुद्धिसे भले ही लगा ले, किंतु ठीक-ठीक तो भगवान् ही जानते हैं। इसीसे कहा गया है कि- ‘ऊधो! करमन की गति न्यारी।’

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