
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारेभजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारेभजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥

समझने का प्रयास ही भ्रम का आरंभ है, क्योंकि आत्मा को शब्द नहीं चाहिए, केवल अनुभूति चाहिए, जिस क्षण तुम
सत्संग कैसे होएक भक्त अपने अन्तर्मन को पढता है देखता है मै अब खाली मटका हू भरा हुआ मटका बोलता

रिश्तों की डोर : संवाद ही विश्वास का सेतु मानव जीवन संबंधों के ताने-बाने से निर्मित है। हर रिश्ता एक

सत्यनिष्ठा (ईमानदारी) एक बार एक विद्यार्थी ने अपने अध्यापक से पूछा, “मास्टर जी ईमानदारी क्या होती है?” अध्यापक ने मुस्कराकर

स्वयमन्तर्बहिर्व्याप्य भासयन्नखिलं जगत्।ब्रह्म प्रकाशते वह्निप्रतप्तायसपिण्डवत्।।६२।। आदि शंकराचार्य का आत्मबोध ग्रन्थ अद्वैत वेदान्त की अनुपम व्याख्या है। इसमें आत्मा और ब्रह्म

भक्ति करते हुए भक्त कर्म को उत्सव की भांति देखता भक्त देखता है कर्म करते हुए जितने शुद्ध भाव प्रभु

वासुदेव सरवम पर प्रकाश डालते हैं वासुदेव सरवम को गहराई से समझगें तभी गीता ज्ञान को समझ सकते हैं। वासुदेव

एक पुरानी कहानीं घणी गई थोड़ी रही, या में पल पल जाय।एक पलक के कारणे, युं ना कलंक लगाय।एक राजा

महिला होने के बावजूद उनकेनाम के साथ ऋषि लगता है। वे ब्रह्मवादिनी इसलिए कहलातीहैं कि वे ब्रह्मविद्या की ज्ञाता थी।