हमारा मन तङफ रहा है दिल भाव चाहता है भाव बनते नहीं है। हम खोज रहे हैं हमे खोज का
आज का भगवद चिंतन।इस शरीर पर जब जीव का अधिकार नहीं है तो संपत्ति और संतति पर कैसे हो सकता
! श्रीं हरि:!भगवान् कहते हैं – मैं ही अनेक रूप से हो गया । तो वासुदेव: सर्वम् । वास्तव में
साधक अपने अन्दर स्थिरता कैसे देखता है साधक हर क्षण चोकना रहता है वह अपने अन्तर्मन के भाव पढते हुए
एक दिन साधक के हृदय में प्रशन उठता है आत्म बोध आत्मज्ञान क्या है , आत्म स्वरूप कैसे होता है।
कुछ दिनों पुर्व सभी साधकों से एक प्रश्न किया था !!प्रश्न था आत्मा, जीवात्मा, सूक्षम आत्मा, मुक्तात्मा *किसे कहते हैं
..इस सत्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा.. शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई कितनी ही तपस्या कर ले, समाधि लगा
।। श्रीहरि: ।।भक्त का हृदय एक प्रार्थना है, एक अभीप्सा है- परमात्मा के द्वार पर एक दस्तक है। भक्त के
हम सब पुराने किये हुए पर ही मन बहलाते है हम भी मनुष्य रूप में आये हैं हममे भी चिन्तन
होश होतो दूसरा न तो कल्याणकारी हैऔर न अकल्याणकारी;होश हो तो आप सभी जगह से अपनेकल्याण को खींच लेते हैं।वहीं