प्रभु संकीर्तन (Prabhu Sankirtan)

प्रभु संकीर्तन 46

“ सागरके मोती “कोई भी परिस्थिति रहनेवाली नहीं है । अभी जो है, वह क्या ठहरेगी ? इसपर स्वयं विचार

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प्रभु संकीर्तन 45

!! श्रीहरि: !!श्रीराम की कृपा —तुलसी रामहु तें अधिक राम भगत जियँ जान ।रिनिया राजा राम भे धनिक भए हनुमान

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प्रभु संकीर्तन 44

संसार सागर में अंधेरे और उजाले दोनों हैं…       जरूरी नहीं कि हम अपने इन बाहर खुले हुए नेत्रों से दिखाई

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प्रभु संकीर्तन 43

तुलसीदास जी कृत “श्री रामचरितमानस ‌ से साभार ‘ जय हनुमन्त सन्त हितकारी।सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी॥जन के काज विलम्ब

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प्रभु संकीर्तन 42

|| श्री हरि: || भगवान् की विशेष कृपा से मनुष्य शरीर मिलता है | मनुष्य-शरीर, मुमुक्षा और सत्संग – ये

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प्रभु संकीर्तन 41

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों

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प्रभु संकीर्तन 40

।राम। ।राम। ।राम। ।राम।यह संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, तब एक भगवान् ही थे और यह संसार नहीं रहेगा तब

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प्रभु संकीर्तन 39

जय श्री राम हमें भगवान की भक्ति करते हुए  सरवरूप परमात्मा की झलक और सबमे परमात्मा के प्रकाश की झलक

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प्रभु संकीर्तन 38

हर्ष और प्रेम का सुन्दर पावन पर्व होली है। वृन्दावन में बड़े ही उल्लास के साथ बड़े ही धूमधाम से

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प्रभु संकीर्तन 37

अनहद नाद ओंकार अगमं सुगमं परम विलक्षणमपूर्ण सत्यं पूर्ण सक्षमंअनहद नादं समग्र व्यापंसिमरत नामं परम आह्लादं केवल परमात्मा का नाम

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