प्रभु संकीर्तन (Prabhu Sankirtan)

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प्रभु संकीर्तन 53

|| श्री हरि: ||सत्संग के बिखरे मोती —श्रीकृष्ण के स्वरूप को, श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य को, श्रीकृष्ण के माधुर्य को ग्रहण

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प्रभु संकीर्तन 52

जो मनुष्य अपना काम-काज करते हुए प्रभु के नाम का सुमिरन करता रहता है , वह सदा समाधि के आनंद

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प्रभु संकीर्तन 51

गोपीयां तो चाहती यहीं है कि इस दिल को कन्हैया चुरा ले वे उपरी तौर से मेरे प्रभु प्राण नाथ

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प्रभु संकीर्तन 49

यमुना तट के पास मेंबैठी हूँ तेरी आस मेंतुम बसे हृदय में मेरेहो हर एक आभास में। मुरली की धुन

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प्रभु संकीर्तन 48

सुन सखी निठुर पप्पैया बोले।पिहु-पिहु कर पिय सूरत जनावे, मेरो प्राण पात जिहुं डोले॥सूरत समुद्र में मेरो मन कर्कश, मदन

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प्रभु संकीर्तन 48

।। नमो राघवाय ।। जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें।। नाथ जीव तव मायाँ मोहा।सो निस्तरइ तुम्हारेहिं

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प्रभु संकीर्तन 47

यह जीवन की सच्चाई है। एक दिन भी हम थोड़े कमजोर हो जाते हैं। तब घर वाले सबसे पहले दुत्कारते

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प्रभु संकीर्तन 50

हम भगवान् के मन्दिर में जाकर दर्शन करते हैं इसलिए हमें लगता है कि भगवान मन्दिर में ही रहते हैं।

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होली के 3 अर्थ हैं

(1) होली –अर्थात हम भगवान के “होलिए”। तन, मन, धन, समय, श्वास, संकल्प, सब भगवान के लिए है।(2) होली :-अर्थात

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प्रभु संकीर्तन 46

“ सागरके मोती “कोई भी परिस्थिति रहनेवाली नहीं है । अभी जो है, वह क्या ठहरेगी ? इसपर स्वयं विचार

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