मीरा चरित भाग- 88
‘चल ! कहाँ चलना है?’ कहते हुये मेरा हाथ पकड़ कर वे चल पड़े।सखी वहाँ कदम्ब की डाली पर बँधे
‘चल ! कहाँ चलना है?’ कहते हुये मेरा हाथ पकड़ कर वे चल पड़े।सखी वहाँ कदम्ब की डाली पर बँधे
इस घर की बाईसा हुकुम उस घर की बहू हैं।उन्होंने यह बात श्री जी से अर्ज कर दी थी।जान समझकर
उदयकुँवर बाईसा ने भय और आश्चर्य से उनकी ओर देखा।‘हाँ जीजा हुकुम, अब आप चाहे जो फरमायें मौड़ौं और यात्रियों
हाड़ीजी और उनके साथ पचास साठ स्त्रियाँ मीरा को लेकर भूत महल की ओर चलीं।मीरा की दासियों ने सारी रात
दिन ढलने पर मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाऊँगी।तुम जाकर निवेदन कर देना कि मुझे भी बुजीसा हुकुम के दर्शन
उन्होंने लौटकर बताया- ‘वे तो मर्यादाहीन व्यक्ति हैं।हमें कहने लगे कि हम अपना काम कर रहे हैं।तुम कौन हो बीच
महाराणा विक्रमादित्य का अपयश और मीरा की भक्ति का प्रभाव बढ़ गया। ऐसी लगन लगाय कठै थूँ जासी।तुम देखे बिन
भीत पर भगवान के चित्र टँगे हुये और झरोखे पर भारी मोटा पर्दा बँधा हुआ था।उन्होंने पलँग के नीचे झुक
मीरा ने अपने पाँव छुड़ाकर उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुये कहा। बालकों को दुलार करके और उन सबको भोजन
राजपूत के बेटे की जागीर उसकी तलवार है।उसके बल से वह जहाँ खड़ा होगा जागीर बना लेगा।’वे कमर से तलवार