मीरा चरित भाग- 85

हाड़ीजी और उनके साथ पचास साठ स्त्रियाँ मीरा को लेकर भूत महल की ओर चलीं।
मीरा की दासियों ने सारी रात आँखों को राह में गढ़ाए गढ़ाए ही काट दी।ड्योढ़ी के द्वार खुले ही रहे।ब्रह्ममुहुर्त लगते ही चम्पा और चमेली जोधीजी के पास दौड़ी दौड़ी गयीं- ‘बुजीसा हुकुम, मेरी बाईसा हुकुम कहाँ हैं? वे रात महलों में नहीं पधारीं।’
‘हैं क्या? महलों में नहीं पधारीं तो कहाँ गईं?’- उन्होंने चौंककर पूछा।
उन्होंने दासी भेजकर हाड़ीजी के महल में पुछवाया।वहाँ से उत्तर आया कि भूत महल से लौटते हुये द्वार तक हमारे साथ ही थीं, फिर अचानक लोप हो गईं।हमने सोचा भक्त हैं इनकी माया कौन जान सकता है।
यहसुनकर दोनों दासियाँ रो पड़ीं।उनकी आँखों से चौधारा फूट गई।हिल्कियाँ लेते हुये वे बोलीं- ‘बुजीसा हुकुम मुझे भूत महल में जाने की आज्ञा दीजिये।अवश्य ही बाईसा को उसमें बंद कर दिया गया है।’
‘तू कहाँ जायेगी और कैसे जायेगी? उसकी चाबियाँ तो श्री जी के पास हैं।वे भी रात को भूत महल में पधारे थे, ऐसा सुना है।’
यह सुनकर वे और जोर जोर से रोने लगीं।रोते हुये जहर देने और तलवार से मारने की सारी बात कह सुनाई- ‘हमारी बाईसा तो भोली हैं हुकुम, छल प्रपँच उन्हें छू भी नहीं गया है।वे सभी को अपने समान समझती हैं।वे क्यों मारना चाहते हैं उन्हें? क्या बिगाड़ा है उन्होंने किसी का? हम मेड़ते चले जायेगें या किसी तीर्थं में जा बैठेंगे।’- दासियों ने दु:ख से अवश हो राजमाता के चरण पकड़ लिये- ‘जहाँ हमारी बाईसा हुकुम हैं, वहीं हमें भी पहुँचा दें।’
‘तू चुप रह चम्पा, तेरे यूँ बिलखने से कुछ भी ठंडाई नहीं पड़गी।हल्ला होने से तेरी बाईसा कल मरती होगीं तो आज ही मर जायेगीं।मेरे सींग टूट गये हैं।अर्जुन भीम जैसे बेटे खोकर आँखे फूट गईं हैं।कुछ दिखाई नहीं देता।राँड और निपूती दोनों ही हो गई हूँ।विधाता के आगे किसका जोर चलता है? तू जा, मुझसे जो हो सकेगा वो करूँगी, पर ध्यान रहे घर का बात बाहर न जाये।’ दासियाँ रोती हुई चली गईं।

राजमाता ने उदयकुँवर को बुलाकर कहा।उन्होंने जाकर श्री जी से पूछा।महाराणा ने कहा- ‘ताले तो मेरे हाथ से बंद किये गये हैं जीजा हुकुम, भाभी म्हाँरा तो बाई हुकुम से बात करते ही लोप हो गईं।’
मंदिर सत्संगी एक दूसरे से पूछते, किंतु सत्य का किसे ज्ञान था? महाराणा के आदमी किसी से कहते- ‘मेड़तणी जी सा पीहर पधारीं हैं।’
किसी ने कहा- ‘तीर्थयात्रा पर पधारीं हैं।’
और किसी ने कहा- ‘रूग्ण है।’
लोग भजन उतारने और खुशी पूछने के लिए ड्योढ़ी पर आये, पर किसी प्रकार की कोई उचित जानकारी न मिली।खलबलाहट मची और बात फैलने लगी।
दिन ढले बनवीर (पृथ्वीराज पासवान का पुत्र) उस ओर से निकला और ड्योढ़ीवान को आँसू पोछते देख समीप आकर पूछा- ‘क्या हुआ?’
पूछते ही जैसे आँसुओं का बाँध टूट पड़ा, अस्वीकृति में सिर हिलाकर वह घुटनों में सिर देकर फफक पड़ा। बनवीर को आश्चर्य हुआ कि यह बूढ़ा आदमी स्त्रियों की भाँति कैसे रो पड़ा?
‘क्या बात है भाई?’- उसके कंधे पर हाथ रख कर उसने फिर पूछा।ड्योढ़ीवान ने एक बार मुख उठाकर उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में भय और विवशता छलक पड़ी।उसने पुन: सिर झुका लिया।आँखों से निकल निकल करके आँसू उसकी दाढ़ी के श्वेत श्याम केशों में मोतियों की भाँति लटक रहे थे।उसकी लम्बी चौड़ी देह हिचकियों के कारण झटके खा रही थी और तलवार चलाने वाले दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर वह बालको की भाँति बिलख पड़ा।
‘क्या हुआ हुकुम, कुँवराणीसा अस्वस्थ हैं?’
उसने नहीं में सिर हिलाया।
‘घर में कोई अच्छी बुरी बात हो गई?’
उसने पुन: बताने के लिए सिर हिलाया।
‘तब क्या है? मुझे कहिये।अपनी शक्ति के भीतर होगी तो अवश्य सहायता करूँगा।’
‘हम लुट गये।हमारा आसरा टूट गया।हमारी बाईसा महल में नहीं हैं’- डोकरा फिर रो पड़ा।
‘महल में नहीं हैं? महल में नहीं तो कहाँ पधारीं? कितने दिन हुये?’- बनवीर ने पूछा।
‘आज चार दिन हो गये।एक दिन साँझ केसमय राजमाता जी से मिलने पधारीं और वापस नहीं लौटीं।’
‘तुम लोगों ने जानकारी नहीं ली?’
‘सब कुछ कर लिया। हमारी शक्ति ही कितनी है? कोई कहता है कि वे लोप हो गईं।कोई कहता है कि हमें तो कुछ नहीं मालुम।कोई भी सच्ची बात नहीं बताता।सब श्री जी से डरते हैं।आज चार दिनों से यहाँ रसोई बंद है।कौन जाने बाईसा हुकुम जीवित हैं कि नहीं।’- वह पुन: रोने लगा।
‘तुम धैर्य रखो।तुम्हारी बाईसा हुकुम जीवित है या नहीं, यह तो एकलिंग नाथजी के हाथ की बात है, किंतु वे कहाँ है, यह जानकारी मैं अवश्य कर लूँगा।’

बनवीर ने राजमाता जोधीजी के महल की ओर पद बढ़ाये।वहाँ पूछताछ करके उसका घोड़ा साँझ ढलते ढलते सलुम्बर के पथ पर दौड़ चला।दूसरे दिन मीरा के महलमें सलुम्बर बाबाजी( रावतजी) चम्पा केसम्मुख बैठे कुँवराणी मेड़तणीजी के विषय में पूछ रहे थे।दूसरी दासियाँ भी घूँघट किये चम्पा और मंगला के पास झुंड बना कर बैठी थीं- ‘वापस लौटने को तो बाईसा हुकुम ने ही फरमाया हुकुम, मेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी लौटने की, किंतु स्वामिनी की आज्ञा कैसे फेर दूँ।यही सोचकर बहुत भारी मन से हम यहाँ आईं।बाईसा हुकुम को भूत महल के ही किसी कक्ष में बंद कर दिया गया है’- चम्पा रो पड़ी।दूसरी भी सब घूघँट में आँसू पोछ रही थीं- ‘आज पाँच छ: दिन हो गये।कहाँ उनका जल और जीमण? उन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं सोचा।दूसरों के अपराध हँस कर टाल देती थीं।खंग लेकर सिर काटने आये, उन्हें भी हँसकर विदा किया।ऐसी सीधी सरल और भली आत्मा को भी कोई सताता है हुकुम।हमारे अन्नदाता (राव वीरमदेव जी) भला क्या जानते थे कि बड़े घरों में ऐसी बातें भी होती होगीं।आप भले ही मेरा सिर उतार लें हुकुम, पर अब सहा नहीं जाता।बाईसा हुकुम ने यहाँ पधारकर किसका बुरा किया? किसे ओछी बात कही? और किसका कुछ छीन लिया? भक्ति छोड़ना उनके वश में नहीं रहा।दो दो, चार चार दिन तक तो उन्हें चेत ही नहीं रहता।भगवान को अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता ही नहीं तो मनुष्य का भला बुरा सोचने का समय ही कहाँ है उनके पास।यह बात पहले भी छिपी हुई तो न थी।
क्रमशः

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